प्रभात की कविताएं
बचत
इच्छाएँ तो बचती
जिनके पीछे
भागा-भागा फिरा
सारी उमर
कितना बचा-बचा कर
रखा था जिन्हें
लम्बी उदासी से
घिर जाने पर भी
जिनमें जान ही नहीं
उन इच्छाओं से
अब मोह भी नहीं
तुम्हारी आँखों ने
कहा था कभी मुझे
निर्मोही
तब कितना
मोह था मन में
ऐसा होता है जीवन में
बचत करते-करते
बीत जाती है उम्र
बचता कुछ भी नहीं।
उमस
इस उमस की कोई बारिश नहीं है
यह इंसानों की पैदा की हुई है
चेहरे का पसीना पौंछते-पौंछते बीत गया दिन
पसीना पौंछते-पौंछते ही बीत जाएगा जीवन
जो बंद ठण्डी हवाओं में बैठे हैं
क्यों आएँगे बाहर
कोई दरवाज़ा नहीं खुलेगा
प्रतीक्षा व्यर्थ है
पेड़ों के ही पत्ते हिलें तो हिलें
कम नहीं है जिनकी तकलीफ़ें
आम लोगों जैसी
या उनसे अधिक ही है।
दिल
क्या यह कोई पुरानी रुलाई है
जो अटकी रह गई थी दिल में
या यह कोई आ रही रुलाई है
जो रास्ते में है अभी
कौन आ रहा है दिल को ढूँढ़ते हुए
कौन जा रहा है दिल से निकलकर।
परिवर्तन
उदासियाँ जा रही हैं
यातनाएँ आ रही हैं।
कैसे
जहाँ एक शब्द भी
नागवार गुज़रे
वहाँ पूरी बात कैसे कहें।
जीवित रहना
अनेक ओर से
अनेक अपमान थे
सभी सहे जा सकते थे
कुछ ही चुनने की छूट भी थी
कोई एक पसंदीदा अपमान
भी चुना जा सकता था
मैं तीसरे विकल्प पर गया
और ज़िन्दा रहा
मेरा अपना चुनाव ही
मुझ जीवित को खाता रहा।
हिन्दी कविता
जब जब अगली पीढ़ी के
हाथों में गई है
वह सरल हुई है
देखना एक दिन वह
सरल हो जाएगी
लोकगीतों की तरह
ऐसे मिलेगी अपने
पढ़ने वालों से
जैसे दो प्रेमी कर रहे
हों बातें।
गाँव का नाम
सातवीं-आठवीं और छठी
तीनों कक्षाओं के गिने चुने बच्चों को
जंगल से विस्थापित बस्ती के
उजाड़ में बने स्कूल की
टपरी में पढ़ा रहा था कि सन्तरा बोली
सर, आपका गाँव कौनसा है?
अपने गाँव का नाम ही भूल गए क्या
फिर उसने खुद ही बताया और बोली-
मेरी बड़ी बहन की शादी हुई है वहाँ
आपके गाँव में
आपने पढ़ाया है उसे भी
मैं विस्मय से देखने लगा
मेरी एक छात्रा
रोज पीती है वहाँ का पानी
साँस लेती है उन हवाओं में
रोज सुनती है जानवरों पक्षियों
और लोगों की आवाजें
रोज चलती है वह उन पेड़ों
और बादलों के नीचे
साइकिल चलाता था मैं कभी
सुनहरी घासों से घिरी
जिन पगडण्डियों में
सारस देखने जाता था खेतों में
मैं कई सालों से अपने गाँव नहीं गया
हमेशा यही सोचता रहा
अब तो मृत्यु के बाद ही पहुँचेगी
मेरे गाँव में मेरी मिट्टी
नहीं जानता था कि
मेरी देह की मिट्टी से
उठती है जो कर्म की धूल
मेरे जीते ही पहुँच जाएगी एक दिन
मेरे गाँव
सन्तरा हँसते हुए बोली-
आपको तो आपके गाँव का नाम भी पता नहीं
गाँव का नाम भी भूलता है कोई कभी ?
बहन बता रही थी
वहाँ अब कोई आपको जानता नहीं
कह रही थी
मिलने आएगी वह आपसे किसी दिन।
पटरियाँ
पटरियों को कँपाती हुई आती हैं रेलें
चली जाती हैं
धड़धड़ाते हुए
काँपकर
रह जाती हैं पटरियाँ
करती हैं प्रतीक्षा
उनके फिर आने की।
मोबाइल
पैसे खाता है वह
और मैं खिलाता हूँ
उस पर आरोप नहीं लगता कभी
कि वह पैसे खाता है
सार्वभौमिक रूप से मान्य है
उसका पैसे खाना
उसके भीतर जो
एप काम करते हैं
उनमें से कईयों के तो
इंसान का खून मुँह लगा है
कई एप लोगों की इल्लिट्रेसी का
फायदा उठाकर
पैसा उड़ाते हैं लोगों के खातों से
कोई उन्हें गुनहगार नहीं कहता
वह लोगों की बातें चुराता है
तसवीरें लेता है बिला इजाज़त
बह बच्चों का शिकार करता है
पर सबूत नहीं मिलते उसके खि़लाफ़
पैसे न हों तो वह नहीं कहता
कि कुछ भी करो कहीं से भी लाओ
मगर लाता हूँ
जैसे वह ऐसा शख़्स हो मेरी ज़िन्दगी में
जिसकी जिम्मेदारी हो मुझ पर
उसे पसंद है आजादी
अपनी और दूसरों की
उसे फ़िक्र है अपनी
ना कि दूसरों की।
एक बूढ़ा एक बुढ़िया
एक बूढ़ा
पटरियाँ पार करने की कोशिश कर रहा था
एक बुढ़िया
उसे देखे जा रही थी एकटक
क्या है
बूढ़े ने खीजते हुए कहा
रुको
बुढ़िया ने कहा
गाड़ी आ रही है
यह मुझे ले जाने वाली गाड़ी नहीं है
बूढ़े ने कहा
और फिर धीरे धीरे
पटरियाँ पार करने लगा अँधेरे में
वे नहीं पहचान पाए
अजनबी शहर में एक दूसरे को
लेकिन वक़्त पहचानता था
पचास साल पुराने प्रेमी जोड़े को
घटाओं के घिरने जैसा था सब कुछ
दिलों में गड़गड़ाहट
बातों मे झकझोरती हवाएँ
आँखों में जल्द ही लौट जाने की
बेबसी और बारिश
जाने क्या
बुदबुदाते हुए चला गया बूढ़ा
पटरी पार कर
जाने क्या
बुदबुदाते हुए देखती रही वह उसे जाते हुए।
प्रभात
1972 में राजस्थान में करौली जिले के रायसना गाँव में जन्म। शिक्षा और लोक साहित्य के क्षेत्र में स्वतंत्र कार्य।
प्रकाशित किताबें (कविता संग्रह) अपनों में नहीं रह पाने का गीत, जीवन के दिन,अबके मरेंगे तो बदली बनेंगे।
(मोनोग्राफ) धवले : पद गायन परम्परा और लोक कवि धवले, कहानीकार सत्यानारायण।
(बच्चों के लिए) ‘पेड़ों की अम्मां, बंजारा नमक लाया, कालीबाई, रफ्तार खान का स्कूटर, साइकिल पर था कव्वा, घुमंतुओं का डेरा, अमिया, ऊँट का फूल, लाइटनिंग, आओ भाई खिल्लू’ आदि पैंतीस किताबें।
मराठी, अंग्रेजी, पंजाबी, मैथिली आदि भाषाओं में कविताओं के अनुवाद।





बेहद ख़ूबसूरत और ज़रूरी कविताएं हैं। इन्हें पढ़वाने के लिए शुक्रिया आपका।
ReplyDeleteअपनी ही कविता 'हिन्दी कविता' को सार्थक करती कविताएँ। शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteप्रभात जी की कविताओं को पढ़कर जीवन की अनुभूति होती है। इनके यहाँ भाव बहुत महीन है, सदैव की तरह यह कविताएं भी उतनी ही उत्कृष्ट है
ReplyDeleteप्रभात की कविताएं पढ़ना एक विरल अनुभव है। एक अरसे बाद इस तरह की मुकम्मल कविताएं जो हमें अपनी जड़ों की ओर ले जाती हैं और अपनेपन से जोड़ती हैं इस अजनबी समय में।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव से भरी कविताएं हैं
ReplyDeleteप्रभात की कविताओं का मुझे इंतज़ार रहता है। बहुत कम कवि हैं जिन्हें पढ़ते हुए लगता है कि कविता पढ़ रहे हैं। "गांव का नाम" और "एक बूढ़ा एक बुढ़िया" विशेष रूप से अच्छी लगीं। कौशिकी के प्रति आभार...
ReplyDeleteप्रभात मेरे प्रिय कवियों में शामिल हैं, उनकी कविता मन के आंतरिक पर्दों को खोलती चलती हैं...पढ़कर मन थिरा गया हो जैसे...
ReplyDeleteप्रिय कवि प्रभात की कविताएं पढ़ी। पढ़ना तो था ही। इन्हें कैसे छोड़ सकता था। इस समय जब जटिलता को ही अच्छी कविता की कसौटी बतायी और बनायी जा रही है,ऐसे में प्रभात की सरल - सहज कविताएं इस धारणा पर कठोर आघात करती है।मेरा मानना है कि सरलता में ही तरलता है। हिन्दी कविता को प्रभात जैसे और कवियों की ज़रूरत है।
ReplyDeleteचूंकि कौशिकी मेरा अपना ब्लाॅग है इसलिए प्रभात की कविताएं पढ़ना भी लाजिमी है। प्रभात मशहूर कवि हैं। पूरा राजस्थान उनकी कविताई पर गर्व करता है और मैं भी।
ReplyDeleteप्रभात की कविताएं पढ़ना एक विरल अनुभव है। इन कविताओं से गुजरना अपने आसपास को बेहद करीब से जांचना है। इस तरह की अनूठी कविताएं बहुत अरसे बाद पढ़ने में आई
ReplyDeleteप्रभात जी कविताओं से यह मेरा पहला अनुभव है ,नि:संदेह इनकी कविताओं में वो बात मिली जो आम जीवन के ज्वलंत विमर्श को रेखांकित करता है ।आपको इसके लिए हार्दिक बधाई और प्रभात जी को अनंत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteये मनुष्य की जिजीविषा की कविताएँ है। इन कविताओं में साधारणता का संघर्ष है । अद्भुत कविताएँ ।
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