ज्योति चावला की कविताएं
मेरी बेटी अब खिलौनों और कहानियों की
रंग-बिरंगी दुनिया से उकताने लगी है
वह पंछी की तरह अपने खोल से बाहर आने को है आतुर
वह सवाल पूछने लगी है
वह पूछती है सवाल इतिहास के, भूगोल के
वह जानना चाहती है कि कैसे बनी यह दुनिया
कि ब्रह्मांड में घूम रहे इतने सौर पिंडों में से
यहीं क्यों जन्मा मनुष्य
और यह कि इतने बड़े ब्रह्मांड का हिस्सा होकर भी
कैसे इतना तुच्छ हो गया वह
वह जानना चाहती है कि कैसे बांट लिया उसने
अपने से दिखते लोगों को जाति और धर्म के खांचों में
वह जानना चाहती है कि कैसे खींच ली लकीरें
पानी और मिट्टी के बने इस गोले पर
जो घूमता ही आ रहा है न जाने कितनी सदियों से
अपनी ही धुरी पर
वह पूछती है कि
क्या सचमुच है इस दुनिया के पार कोई और दुनिया
और यह भी कि उन दुनियाओं के निवासी
जानते हैं कि पृथ्वी पर खींच दी हैं
कितनी लकीरें इंसानों ने
कहती है वह अच्छा ही हुआ कि
मनुष्य नहीं बस पाया अभी और किसी ग्रह पर
नहीं तो खत्म हो जातीं चंद्रमा में बैठी
बूढ़ी नानी की कहानियां
कि नानी बरसों से कात रही है
सूत चंद्रमा के भीतर रखे अपने चरखे पर
और बुनती है झिंगोला चांद के लिए
कि नाराज़ रहता है चंद्रमा नानी से इस बात पर
कि वह बुन रही है बरसों से एक ही रंग का झिंगोला
बिटिया कहती है कि
होता मनुष्य यदि चंद्रमा या कि मंगल पर
तो खींच देता वहां भी लकीरें
देश, जाति, धर्म, लिंग के आधार पर
और इन सबको देखकर सन्न हो जाती
बूढ़ी नानी और थम जाता उसका चरखा
भूल जाते ग्रह अपने असली रंग और सीरत
लेकिन वह खुश है इस बात से कि
पृथ्वी का चटख नीला रंग
अभी भी दिखता है नीला
ब्रह्मांड में घूमता अपनी धुरी पर
और अपने दोस्तों को नहीं दिखाती पृथ्वी
चोटें अपनी देह की
जो दी हैं मनुष्य ने बरसों से
मैं नहीं बताना चाहती
विज्ञान और भूगोल की कठिन पहेलियों में उलझी
अपनी बेटी को
कि पृथ्वी की सतह पर जो दिखता है नीला रंग वह
पानी का नहीं बल्कि
उसकी देह पर पड़ी चोटों का रंग है
जिससे नीली पड़ गई है पृथ्वी की देह।
उसे क्या पसंद है, इसकी परवाह किसी को नहीं
उसे रंगों में सबसे अधिक सफेद रंग पसंद था
बादलों के फाहों सा उज्ज्वल, सफेद कबूतरों सा निष्पाप
आंख की पुतली के नीचे दबा अपनी पहचान तलाशता सफेद रंग
लेकिन सफेद को लेकर उसके भीतर ऐसा डर बसाया गया कि
वह ख्वाब में भी खुद को सफेद कपड़ों में नहीं देख पाती
उसके सपनों में नहीं आते थे सफेद फूल
सफेद अब उसकी ज़िंदगी में केवल उसकी हंसी में रह गया था
निश्छल और धुला-धुला
उसे पखेरुओं में सबसे अधिक पसंद थी नन्हीं गौरैया
पेड़ की टहनियों में छिपी
अपनी आवाज़ से सबको अपनी ओर खींचती
दुनिया को अपने होने से खूबसूरत बनाती
लेकिन धीरे-धीरे निगल गए सारे बाज और गिद्ध उन गौरैयों को
वह सपनों में कभी-कभी बुलाकर मिल लेती उनसे
और भेज देती प्यार भरे संदेस
सफेद बादलों और उजले कबूतरों के नाम
उसे अच्छा लगता था चांदनी को निहारना रात भर
वह पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर खड़ी होकर
पुकारना चाहती थी चांद को अपने करीब
और रात भर बतियाना चाहती थी उसके कांधे पर रख अपना सिर
उसने सोचा था एक रात देखेगी अंधेरे को
अपनी चादर समेट सुबह में समा जाते हुए
पर उसे सुबह जल्दी उठ आंगन बुहारने के काम में लगा दिया गया
वह रोज़ चुन लेती थी झाड़ू से बटोरकर सारे सितारों को
जो रात भर बरसते रहे आकाश की आंखों से
वह उनसे ही चांद का पता पूछ लेती और
चुपके से दुबका लेती सितारों को अपने आंगन के पिछले हिस्से में
और इंतज़ार करती ऐसी रात का
जब वह जगाएगी सब सितारों को और
सुनेगी उनके किस्से मन भर
वह उनसे पूछेगी कौन गांव रहता है चांद
लौट जाता है हर रात किस गाड़ी में बैठकर
और फिर-फिर लौट आता है अगली रात
वह पूछेगी सितारों से
कि क्या उन्होंने कभी रात को सुबह में समाते देखा है
वह पूछेगी उनसे
कि क्या उन्हें भी लगता है डर रात के अंधेरे से
वह पूछेगी उनसे
कि किसने टांक दिए इतने सितारे आकाश की चादर पर
वह पूछेगी उनसे
कि सफेद ही क्यों होते हैं चांद, सितारे, बादल और कपास
वह हर रात एक सवाल तहा कर
अपने तकिये के नीचे रख देती और
सो जाती सुबह जल्दी उठकर झाडू बुहारने के इंतज़ार में
हर रात सितारे ताकते उसके कमरे में और
निराश हो सो जाते आंगन के पिछले हिस्से में
जहां उसने दुबकाया था उन्हें
एक रात ढेर सी बातें करने के ख्वाब के साथ
वक्त बीतता गया पर वह नहीं जुटा पाई कुछ पल
उन सितारों से बतियाने के लिए
पहाड़ इंतज़ार करते रहे उसके आने का, पर वह नहीं आई
रात ने समेटते हुए अपनी चादर कई बार याद किया उसको
पर वह सपने में लाल रंग की चुनरी ओढ़े और
लाल रंग से मांग सजाए
लौटाती रही सफेद को अपने दरवाज़े से
और उसकी हर रात सफेद पर लाल की जगह घेरने का दस्तावेज़ बन गई।
बेटी की गुल्लक
मेरी बेटी रोज़ सुबह उठती है
और नियम से अपनी गुल्लक में डालती है सिक्के
इन सिक्कों की खनक से खिल जाती है उसके चेहरे पर
एक बेहद मासूम सी मुस्कान
वह नियम से डालती है अपनी गुल्लक में सिक्के
ठीक ऐसे ही जैसे
नियम से निकलते हैं आसमान में
चांद, सूरज और तारे
वह सोचती है कि एक दिन लेकर अपनी गुल्लक
निकलेगी वह बाज़ार और
खरीद लाएगी अपनी पसंद के मुट्ठी भर तारे
ढेर सारी खुशियां और न जाने क्या कुछ
मैं उसके चेहरे पर खिली इस मुस्कान को देखती हूं हर सुबह
और उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा देती हूं
मेरी चार साल की मासूम बेटी नहीं जानती
मुद्रा, मुद्रास्फीति और विश्व बाज़ार के बारे में कुछ भी
वह नहीं जानती कि क्यों दुनिया के तराजू पर
गिर गया है रुपये का वज़न
वह इंतज़ार कर रही है उस दिन का
जिस दिन भर जाएगी उसकी गुल्लक इन सिक्कों से और
वह निकलेगी घर से इन चमकते सिक्कों को लिए
खरीदने चमकीले सपने
जानती हूं मैं कि जिस दिन इन सिक्कों को लिए
खड़ी होगी वह बाज़ार में
उसकी आंखों के कोरों में आंसुओं के सिवाय कुछ नहीं होगा
मैं उसकी पलकों पर आंसू की बूंदों की कल्पना करती हूं और
बेहद उदास हो जाती हूं।
उदासी
अठमाहे गर्भ को अपनी देह में छिपाए
वह लेटी है आंखें मूंद कर ऐसे
जैसे सो रही हो गहरी नींद और
सो रहा हो उसके पेट में उसका अठमांहा बच्चा
यह अखबार में छपी एक तस्वीर है जहां
भीषण त्रासदी के निशान बिखरे पडे़ हैं यहां-वहां
पूरे परिदृश्य में मची हलचल और हाहाकार के बीच
दीवार से सिर टिकाए वह स्त्री मृत
ऐसे जैसे दिन भर के काम के बाद थककर
सो गई हो पलभर, और
ऐसे जैसे पलभर सो लेने के बाद
सहारा लेकर इसी दीवार का खड़ी होगी फिर से
और सहलाएगी अपने अजन्मे बच्चे को मन भर
सो गया हो उसके भीतर ही उसका अठमांहा गर्भ भी
अपनी मां के पेट से टेक लगाए सो रहा वह मासूम
सुरक्षित है भीतर कि
सबसे सुरक्षित महसूसते हैं शिशु स्वयं को
जब होते हैं मां के स्नेह से भरे अंक में
मेरी आंखों के सामने जीवन्त हो उठता है
उस मासूम का मृत चेहरा कि
पेट के भीतर अपने नन्हें हाथों से
कैसे थाम रखा होगा उसने अपनी मां को
अपनी आंखें मींचे कितना सुरक्षित महसूस रहा होगा खुद को
और इसी तरह अजन्मा ही लौट गया वह जहां से आया था
यह मेरे समय का भयानक सच है
कि चारों तरफ मचा है हाहाकार
और अजन्मे ही लौट जा रहे हैं बच्चे
ऐसे जैसे उदास लौट जाए कोई दरवाज़े से।
मैं अब तुमसे विदा लेता हूं
(पाश की कविता मैं अब तुमसे विदा लेता हूं से साभार)
मैं अब तुमसे विदा लेता हूं मेरी दोस्त
मैंने चाहा था तुम्हारा साथ
क्षितिज के अंतिम छोर तक
कि हम शामिल होते
सितारों में साथ-साथ और
मुस्कुराते हुए देखते धरती पर अपने खिलाए फूलों को
लेकिन मैं अब तुमसे विदा लेता हूं
मेरी दोस्त
पिछले बरस जब अपने आंगन में हमने लगाया था
मोंगरे का पौधा
सोचा था मैंने कि इसके फूलों को बीनकर
चांदी की तार में
मैं सजाउंगा तुम्हारे जूड़े पर किसी चांदनी रात में
तुम मुस्कुराओगी और मैं खिल जाउंगा
हम चुराकर रख लेंगे चांद की सारी चांदनी
अपनी तिजोरियों में और
ज़िंदगी भर थोड़ा-थोड़ा खर्च करेंगे उसे
लेकिन अभी खिलकर आया भी नहीं यौवन मोंगरे पर
और मैं तुमसे विदा ले रहा हूं।
मेरी दोस्त
मैंने चाहा तो था अपने बच्चों के लिए बरगद बनना
कि साया बना रहूं मैं उनका
और उन पर कभी तीखी धूप तक न पड़े
कि खिलते रहें हमारे खिलाए फूल यूं ही
लेकिन जानती हो तुम
बरगद के नीचे नहीं खिला करते फूल
फूलों को खिलने के लिए आंख मिलानी ही पड़ती है धूप से
अब जब मैं विदा ले रहा हूं तुमसे
तो कहता हूं कि तुम बरगद न बनना हमारी खिलाई पौधों के लिए
कि खिलने देना उन्हें अपने दम पर
खींचने देना धरती से अपने हिस्से की मिट्टी और पानी
और जब फूलने लगें उनकी सांसें
महक जाना उनके चारों ओर मोंगरे के फूलों की तरह
मेरी दोस्त अब हम चाहकर भी नहीं मिल पाएंगे कहीं
लेकिन मेरा यकीन करना कि
तुम्हारे जीवन के हर मोड़ पर खड़ा हूं मैं
तुम्हें हिम्मत बंधाते
कि जब भी कमज़ोर पड़ोगी तुम
वो मैं ही हूंगा तुम्हें देखकर मुस्कुराता
तुम हमारे बच्चों में ढूंढना मुझे
मैं उनकी आंखों, उनकी ठोढ़ी
उनकी ज़िद, उनकी मुस्कुराहटों में हमेशा रहूंगा
मेरी दोस्त
जा रहा हूं तुमसे विदा लेकर
मैंने किए थे वायदे साथ हंसने, रोने और मुस्कुराने के
हमें करनी थीं यात्राएं समुद्रों और पहाड़ों की
तुम्हें चढ़ना था मेरी पीठ पर
और मुझे पटकना था तुम्हें कश्मीर के बर्फीले फाहों पर
और फिर हमें हंसना था देर तक यूं ही एक-दूसरे को ताकते हुए
लेकिन बीच सफर में ही छुड़ा लिया है मैंने हाथ
और विदा लेता हूं तुमसे
तुम करना वे सारी यात्राएं
जिनका ख्वाब हमने साथ-साथ बुना था
तम्हारी हर यात्रा में तुम्हारे साथ हूं मैं
दूर कहीं से
जब-जब थकोगी तुम
मैं फेंकूंगा बर्फ के नरम फाहे तुम्हारे चेहरे पर
और तुम उठ खड़ी होना मेरी दोस्त
मैं विदा ले रहा हूं
तुम्हारी पीठ पर लदे बोझ को दुगुना करके
हो सके तो मुझे माफ कर देना
मेरी दोस्त।
सुनना
सुनो, तुम जब भी किसी स्त्री को सुनना
तो उसे पूरा सुनना
जब भी बैठना किसी स्त्री के पास
तो दरवाज़े के बाहर ही छोड़ आना सारी हड़बड़ियां
उतार आना वे जूते जिनके तलुवों में बंधी हैं
अनगिनत यात्राएं
ऐसे बैठना किसी स्त्री के पास
जैसे थकान से व्याकुल मनुष्य जाता है नदी के पास
कुछ पूछना मत उससे, न सवाल, न जिज्ञासाएं
बस सुनना, उसे उसी के धैर्य सा
तुम पाओगे कि वह उतर जाएगी तुममें
जैसे उतरती है नदी की कलकल
सभ्यता की अतल गहराइयों में
तुम सुनना उसे उसके शब्दों से परे
उसके मौन को सुनना तुम
सुन सको तो सुनना उसकी आंखों को
जिनमें कितना कुछ अनकहा दफ्न है सदियों से
हो सकता है वे न जानती हों राजनीति के बारे में
न ही पता हो उन्हें दुनिया का भूगोल
नहीं जानती हों शायद वे कि
धरती के किस कोने में बसता है कौन-सा देस
कौन-सी नदी, किस झरने से बुझाता है प्यास
कोई गांव, या कि शहर या कि देस
लेकिन वे जानती हैं नदियों की अनंतिम यात्राएं
जिनसे सींची जाती रही हैं सभ्यताएं और संस्कृतियां
उनकी बातों से नहीं बीन पाओगे तुम शब्द
जिनसे सजे और समृद्ध हैं हज़ारों कोश
रीते ही लौटोगे तुम जो नहीं छोड़ पाए
अपने पूर्वाग्रह दरवाज़े से बाहर
उनके करीब बैठ तुम जानोगे कि
कितने श्रीहीन हैं हमारे वे ग्रंथ
जिनमें अर्थ कैद हैं केवल एक ही पक्ष के
स्त्रियां अपने शब्दों, अपनी भाषा के साथ
यात्राएं करती आई हैं सदियों की
उनके पाठ किताबों में नहीं, स्मृतियों में दर्ज हैं
जिन्हें वे सौंपती ही चली आ रही हैं
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को निरंतर
तुम जाना उसके पास तो
उसके मौन की लिपि को पढ़ना
उसकी चुप्पियों की ध्वनियों को सुनना
वह एक चमत्कार की तरह खुल जाएगी तुम्हारे समक्ष
ठीक ऐसे जैसे रात के घोर अंधेरे को चीरकर
एकाएक निकल ही आता है सूरज नदी के उस पार से।
किताबें और हथियार
(फिलिस्तीन के विध्वंस के दृश्य पर हाथ में किताब लिए रोती बच्ची को देखकर)
वह बच्ची जो हाथ में अपनी फटी किताब लिए रो रही है
वह नहीं जानती कि जो लिखा है उसकी किताब में
दुनियादारी की किताब में वह सब कुछ बेमानी है
जिन्होंने गिराए बम उसके स्कूल और उसकी किताबों पर
जिन्होंने बिखरा दिए उसके रंगों के बक्से
केवल एक रंग की चाह में
उन्होंने भी पढ़ी थीं बचपन में यही किताबें
जिनमें दुनिया को सतरंगी बताया गया है।
बच्चे
(फिलिस्तीन में मारे गए बच्चों के लिए)
1.
अपने बच्चे की मृत देह को सीने से लगाए वह स्त्री
सजदे में है
वह एक ऐसी दुनिया का ख्वाब देख रही है
दुनिया के सारे बच्चों के लिए
जहां के शब्दकोशों में बच्चे और ज़िंदगी
एक-दूसरे के पर्याय हों।
2.
जो गिरा रहे हैं बम
वे बचा रहे हैं अपनी संततियों को
उनकी संततियों की जान लेकर।
3.
वो किसका खुदा है
जो खड़ा करना चाहता है अपनी सल्तनत की इमारत
मासूम बच्चों की छाती के नाज़ुक अस्थि पिंजरों पर
मासूमों की छाती पर खड़े किए गए स्तंभ ढह ही जाएंगे
क्योंकि जानते हैं हम
नाज़ुक होती हैं बच्चों की हड्डियां
ज़रा सी चोट से चटक जाती हैं।
उम्मीदों से भरी उस स्त्री के लिए
(उस दोस्त के लिए जिसकी आंखों में रोशनी थोड़ी कम है)
मैं चाहती हूं मेरी दोस्त
कि हमारी ज़बानी जंग में हमेशा जीतो तुम ही
मैं चाहती हूं कि मेरी नाउम्मीदी की बदरंग चादर पर
तुम्हारी उम्मीदों के फूल खिले रहें
तुममें ताकत है अपनी अधखुली आंखों से
दुनिया को खूबसूरत देख लेने की
कि जिस सूख चुके पेड़ को देखकर
मैं पढ़ रही हूं मर्सिया
तुम अपनी उम्मीदों के नाखून से खुरचकर
देख लेती हो उसकी एक टहनी
और ज़रा सा हरा पाते ही उमंग से भर जाती हो
तुम कहती हो कि अभी भी विकल्पहीन नहीं है दुनिया
तुम कहती हो कि
बचे हैं अभी कितने ही रंग रंगों के बक्से में
तुम कहती हो कि
देखूं मैं भी दुनिया को ऐसी ही अधखुली आंखों से
जैसे देखती हो तुम
मैं तुम पर हंसती हूं कई बार
और कई बार इस बात से उदास हो जाती हूं
कि जिस दिन खुलेंगीं तुम्हारी आंखें पूरी
अपने आसपास इतना विद्रूप देखकर क्या करोगी तुम
मेरे खयालों में तुम फिर मुस्कुराती हो
और मुझे ले जाती हो उन पहाड़ों की तरफ
जहां से धरती बेहद खूबसूरत दिखाई देती है
मेरी दोस्त
काश होता हमारे चारों ओर सब कुछ ठीक वैसा ही
जैसा समझती हो तुम
काश जो कहा जाता उसके मायने होते ठीक वही
काश जो दिख रहा होता
उसके पीछे न होता कुछ भी रहस्यमय
एक ही रंग के निरंकुश विस्तार से डरती मैं
तुम्हारी अधखुली आंखों को बड़ी उम्मीद से निहारती हूं।
यह समय और तुम्हारी तस्वीर
तुम्हारी तस्वीरें अक्सर मुझे रोक लेती हैं
कि चारों तरफ जल रही लाशों के बीच
तुम्हारा चेहरा किसी ठंडे झरने का-सा है
कि जब एक रंग के अतिरेक से
सहमे हुए हैं वे सब जिनमें बाकी है
थोड़ी-सी इंसानियत
कि जिन्होंने प्यार किया सतरंगी इंद्रधनुष से
जब चारों ओर के उन्मादी शोर से डरकर
ठूंस रहे हैं सब कानों में उंगलियां
और रो रहे हैं उंगलियों की बेबसी पर
तुम्हारा दुपट्टे में छिपा मादक चेहरा
हमें किसी और ग्रह पर ले जाता है
मैं सोचती हूं कि सब धूं-धूं करके
जलते इस समय में
कैसे रह सकती हो तुम इतनी शांत, इतनी स्थिर
कैसे तुम दिख सकती हो शकुंतला सी
किसी दुष्यंत के इंतज़ार में स्वेद कणों से सिक्त
कामुकता से तप्त तुम लगती हो ऐसी
जैसे अपनी ही अग्नि भस्म कर देगी तुम्हें
प्रेम में होना दुनिया की सबसे सुंदर क्रिया है
लेकिन लाशों के ढेर पर किया जाने वाला प्रेम
जुगुप्सा ही अधिक उपजाता है।
ज्योति चावला
चर्चित रचनाकार। कविता और कहानी में समान रूप से लेखन। तीन कविता संग्रह - ‘माँ का जवान चेहरा’, जैसे कोई उदास लौट जाए दरवाजे से और यह उन्नींदी रातों का समय है क्रमशः आधार प्रकाशन, वाणी प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन समुह से प्रकाशित। एक कहानी संग्रह ‘अँधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ आधार प्रकाशन से प्रकाशित। कहानियों की दूसरी किताब जल्द ही। आलोचना की एक पुस्तक कथा-अंतर्कथा-अंतर्पाठ सेतु प्रकाशन से प्रकाशित। कविताएँ और कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित। कई कहानियां और कविताएं विभिन्न महत्वपूर्ण संकलनों में संकलित। कविता के लिए शीला सिद्धांतकर कविता सम्मान, पाखी कविता सम्मान, अमर उजाला श्रेष्ठ कृति सम्मान (छाप) से सम्मानित। सृजनात्मक साहित्य के अलावा अनुवाद के उत्तर-आधुनिक विमर्श में खास रुचि।
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन।
मोबाइल -9871819666, jtchawla@gmail.com









सचमुच वाकई औरत मन की मनोविज्ञान लगभग कुछ छोड़ विश्लेषित करने की क्षमता है उनमें। बहुत- बहुत बधाई उनको और आपको भी कि एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली।
ReplyDeleteअतिसुंदर कविता....।
ReplyDeleteस्त्री मन की व्याख्या करती एक सहज अभिव्यक्ति।
अच्छी और प्रभावी कविताएं हैं।इनका फलक विस्तृत है।अपनी व्याप्ति में इन कविताओं में समय की धड़कन है।
ReplyDeleteकौशिकी की प्रस्तुति सुंदर है।
‘सुनना’ पढ़ते हुए लगा कि आप केवल कविता नहीं, बल्कि जीवन का एक गूढ़ सत्य हमारे सामने रख रही हैं। स्त्री को उसके मौन और उसकी आंखों के अनकहे से समझने का आह्वान बहुत ही मार्मिक है। आपकी अभिव्यक्ति नदी की तरह सहज और निरंतर बहती है। हार्दिक बधाई और आभार इस अद्भुत कविता के लिए।
ReplyDeleteबधाइयां... वाह । कविताएं एक अलग भावभूमि पर हैं
ReplyDeleteऔर छाया मुक्त..
विविध अनुभव की कबितायें
ReplyDeleteकौशिकी का यह काम उल्लेखनीय है