प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं
दुख का पता
वह उस स्त्री को नहीं जानता था
उसकी देह को जानता था
उसकी देह को जानता था वह
पर उसके दुख को नहीं
फिर अपने दुख से
पहचानने लगा थोड़ा थोड़ा
लक्षण उस पीड़ा के
मगर हाथ रखता वहाँ
तो छिटक कर दूसरी ओर
दुख किलकता किसी बच्चे सा
जब तक वह बताती
कि दुख है पूरी देह ही
आत्मा उसकी
जा चुकी थी
देह से परे
चिता में झोंक दिया उसने उसे
परिजनों मित्रों ने सांत्वना में
हाथ रखा पीठ पर कंधे पर
आखिर वह थी उसकी
सहचरी सहधर्मिणी
उसने राहत की साँस ली
कि देह के साथ
भस्म हो गया होगा
दुख भी उसका
उसे पता नहीं था
कि बदलता रहता
दुख अपना पता...
सुनवाई
अजी सुनते हो !
उसने कहा
पर सुनने वाला
कोई न था
अजी सुन रहे होऽ
सारी उम्र
वह कहती रही
बिना किसी सुनवाई
सुन रहे हो ?
यह कहते हुए
नाम किसी का
उसने लिया नहीं था
इसलिए कोई भी
सुन सकता था
लेकिन किसी ने नहीं सुना
या सुन कर भी
अनसुना करना ही चुना
ऊँचे आसनों पर जमे
लोग ऊँचे
बहुत ऊँचा सुनते
कविहृदय तो खैर
सुन सकते
कलियों के
फूल बनने की सरगोशी तक
मगर वे भी
अपनी अपनी
कहने में ही
रहे लगे
कुछ कहने के लिए
जब भी जैसे ही
होंठ उसके खुले
किसी ने रख दिये
उन पर होंठ
या फिर हाथ अपने
है कोई
जो सुनेगा कहीं ?
आवाज कबसे
गूँज रही
मानो प्रकाशवर्षों दूर
तारों की रोशनी
क्या यह आवाज भी
उस रोशनी की तरह
किसी तक पहुँचेगी
देर से ही सही ?
सुनने की यह गुहार
बेकल पुकार
आखिर किसकी
आधी आबादी
या पूरी जनता की
जिसे इस
संज्ञाहीन संबोधन के सिवा
आगे कुछ कह पाने का
मौका ही नहीं मिला...
पुरुष चरित्र
एक ने गले लगाया
अभिसार सुख लिया
छद्म रूप धर
छल कर
दूसरे ने
जो दरअसल
था पहला
आजीवन
अकेला उसका
होना रहना चाहता था
शाप दे दिया
अंजुल भर
पुण्यजल
निरपराध उस पर
छिड़क कर
पथरा देने वाली
बरसों की
अभिशप्त प्रतीक्षा के पार
किसी ने आकर
किया उद्धार
हाथ बढ़ा कर
नहीं
पाँव से छूकर
सदियों से
सोच में
स्त्री
कि सच में
बरताव किसका
बेहतर... ?
देव
ऋषि महात्मा
ईश्वर
किसे चाहिए
आखिर ?
क्यों
मिलना
दूभर
मनुष्य से
मनुष्य सा
मनुष्य होकर...?
धरती का फटना
अब तो लगता यही
कि हर आत्महत्या होती
दरअसल हत्या ही
जिसमें सम्मिलित अकसर
समाज और व्यवस्था सारी
जिसे तंत्र और लोक की
सहूलियत के लिए
करार दिया जाता कुछ और
जाने क्यों
अब सोचें तो
सीता के धरती की गोद में
समा जाने की पुराकथा भी
जान पड़ती
कुछ ऐसी ही
शरीक जिसमें
संपूर्ण समय समाज
खेत में हल चलाते
मिलने की कथा अवश्य कहीं
वास्तविक सी लगती
प्रथा नहीं तो परिपाटी
चली आ रही कबसे
इस धराधाम पर जनमते
बालिकाओं को
इस तरह त्याग देने की
भरी भीड़ के आगे
ऋतु के कर्षण कार्यसत्र का
शुभारंभ करते
मिली होगी कन्या परित्यक्ता वही
स्त्री-धन की तरह
उदार लाचार राजा ने
स्वीकार किया होगा
भूमि तनया को बना आत्मजा
तबसे उस मासूम की
यंत्रणाओं का
उस पर लगने वाली लांछनाओं का
आरंभ हुआ होगा
अटूट सिलसिला
दत्तक पिता विदेह कहाने वाले
पर वैदेही तो ठहरी देही
उस देह के साथ
जंगल आग
और जाने कहाँ कहाँ से
नहीं पड़ा गुजरना
क्या क्या भोगना सहना
परित्याग के सिवा
और क्या था
पुनः वन भेजना
और अगली बार तो
अग्निपरीक्षा के बावजूद
अग्निपरीक्षा जो अपने आप में
कविप्रतीक और लघुतरोक्ति
स्त्री हो यदि कोई
भले ही वैदेही
तो भी मिल पाता कहाँ
लाभ संदेह का
फिर जब
पाल पोस कर बड़ा करने के बाद
पुत्रों को उनके पौरुष से
और पुरुष होने के चलते
चुन लिया गया
राजमहल और वंश परंपरा को
आगे बढ़ाने के लिए
तो फिर से रह गयी होगी
वह एकाकी
अर्थ ढूँढ़ती उस जीवन का
जो नजर कहीं आया नहीं होगा
और तब भरे आहत मन से
निर्णय लिया होगा
स्वैच्छिक नहीं किन्तु स्वयं
मृत्यु के अनेक विकल्पों में से
एक उसे चुन लिया जाये
जीवन जहाँ से
शुरू हुआ था
जो थोड़ा भी जानता
औरतों के दुख और उनकी विवशता
किंचित कदाचित पहचानता
समझ सकता इसे आसानी से
फिर ज्ञानियों इतिकथाकारों पर
आयी होगी जिम्मेवारी
कि जीते जी इस भूमिसमाधि को
सर्वग्राह्य स्वीकार्य
और संभव हो सके तो पूज्य
पुराकथा परिकथा बना दें
किसी तरह से
ताकि यह मिट जाये
ध्यान से स्मृति से
कि उतरी जब वह भूगह्वर में
तो कौन कौन थे
ऊपर उसके
मिट्टी डालने वाले
रही बात जनश्रुति किंवदंती आख्यान की
तो यदि करुण पुकार
सुनकर किसी स्त्री की
फटती होती धरती
तो फटती फिर कभी
तब से कितनी बार
फूटा कितने स्त्री हृदयों का हाहाकार
कलपते विलापते करते आर्तनाद
कहा जाने कितनों ने
जान से जाने से पहले
कि रुक जा फट जा
ओ पृथ्वी दे आसरा
पुकारा माता कह कर भी
मगर किसी ने कहाँ सुनी ?
इसीलिए इस देश में
जब जब बात होती
रामराज की
उसे ले आने लौटाने की
मन ही मन अपने
सिहर जाती हर सीता
सिर्फ सिहरने से तो
काम नहीं चलेगा
कभी न कभी
उठना होगा
खड़ा होना
इसके सामने
इसके विरुद्ध
और अबकी किसी
तिनके की ओट में नहीं...
दोहरी
दर्द से होता
दोहरा कोई
जिम्मेदारी से दोहरी
स्त्रियाँ कामकाजी
एक साथ जो सँभालतीं
घर संसार
भीतर बाहर लगातार
मुक्ति फिर भी नहीं
मुक्ति कहाँ कहीं
देह और देहरी
पार करना नहीं काफी
या फिर पिंजर और पिंजरा ही
इसके लिए जरूरी
आप अपने को झिंझोड़ना
और औरों को छोड़ना
वे और जिनमें
शामिल अपने भी
शायद कुछ शायद कई
और फिर भरना
पर खोल कर पूरे
खुद को सँभाले
अपने सपने लिये
कभी तो केवल अपने लिए
उड़ान भरने की
चाहत हिम्मत
और समझदारी...
बोली का दुख दुख की बोली
बग्घा लगना
पिरुड़ी चढ़ना
इन्हें भला
अब कौन जानता
ये पुरनिया औरतों के दुख
जो नयी पीढ़ी को
नहीं पता
जिन्हें कभी कभी
अपनी बोली में
कुछ इस तरह वे
व्यक्त करतीं
तब भी उन्हें
सुनने समझने वाले
थे कितने
कह नहीं सकते
मगर कुछ बोलियाँ
कुछ बोल जरूर
जिनमें गूँजता उनका
रुदन गान
तैरतीं सिसकियाँ और पुकारें
वे गयीं
और उनके साथ ही
गुजरीं वे बोलियाँ भी
जिनमें दुर्लभ सुखों की तरह
संचित दुख था उनका
रचा बसा
वह दुख उन स्त्रियों का
जो इतिहास में कहीं
दर्ज नहीं
नित करता रहा
समाज अनदेखी
और साधे रही मौन
भाषा भी
कवि क्या अपनी कविताओं में
बचा सकोगे बसा सकोगे
कहीं धड़कता रख पाओगे
जीवित और जीवंत सदा वे
आवाजें अनुगूँजें
और पुकारें...?
कंधा
रिक्शे पर
आदमी के कंधे पर
सिर टिकाये
जा रही
बीमार स्त्री
इससे पहले
इस जीवन में
जीवन अगर उसे
कहा जा सके
ज्ञात नहीं
आदमी का
कंधा उसे कभी
मिला या नहीं
मिला होता
तो क्या पता
शायद बीमार भी
हुई नहीं होती
कोई कंधा
अंत समय
मिलने का
फायदा क्या ...
क्रिया कर्म
सनसनी दौड़ जाती
कर्मकांड के बीच
खड़ी हो उठती
कोई स्त्री
करते करते गुजरी
अब क्या मर कर भी
फिर क्रिया कर्म ही
औरत की
संज्ञा कोई
क्यों नहीं
हुआ करती
हो सकती
और अगर है
तो वह संज्ञाहीन
हुई कब और कैसे
क्या इस पर होगी
बात भी नहीं
जैसे कोई
बात ही नहीं... ?
इच्छा मृत्यु
इच्छा से मरना ही नहीं
जीते जी
इच्छाओं का मरना भी
इच्छा मृत्यु
सबको जीवन देने वाली
जीवन को जन्म देने वाली
क्या पूछ सकता हूँ तुमसे
कि यह इच्छा मृत्यु क्यों चुनी
अपने लिए ?
जितनी इच्छित
उतनी ही उपेक्षित
जन्मना अवांछित
क्या कर सकता
एक सवाल सीधा
उनके लिए तो
गौरव भरा
जीतते जाना
मन भर जीना
तुमने क्यों वरण किया
अभिशाप ऐसा
इच्छाओं को मारने या
मरने देने का
क्या यही तुम्हारी
पहली और
अंतिम इच्छा थी ?
क्षमा करना
यदि कवि की
कविता कोई
तुम्हारे अंदर
इच्छा सोई
जगा रही
यह इच्छा जन्म
तो यही सही
क्या केवल
जन्म देने का ही
जन्म लेने का
हक स्त्री को नहीं...?
अंतिम प्रार्थना
अपने अंतिम समय में
खोजता पुरुष
कि हो कोई स्त्री
देखने
सँभालने
सहेजने के लिए
दिन दिन और अशक्त होता
जाने के दिन के करीब जाता
यही सोचता
यही मनाता
गुहराता दुहराता
अपनी बीमार पुकार में
माँगता अब तक के लिए क्षमा
करता याचना
अंतिम प्रार्थना
ऐसे समय
जब ईश्वर पर भी
नहीं भरोसा
तुम हो कहाँ
हो कहाँ
ओ स्त्री
ओ माता दुहिता
भगिनि संगिनि...?
और जाने कहाँ से
किसी रूप में
वह चली भी आती
मिल ही जाती
क्या एक स्त्री को
अपने अंतिम समय में
मिलेगी
कोई स्त्री...?
जगाना जुगाना
( अपनी अपनी आग )
नदियों के किनारे
फूलीं फलीं
पहली सभ्यतायें
पर किरणें पहली
जागीं उनकी
जब आदमी ने जाना
पत्थरों के टुकड़ों से
आग जगाना
तबसे तो सीख लिया
कई लोगों ने
आग लगाना
गोले बारूद बनाना
फिर भी
बचा बसा है
यह घर संसार
तो इसीलिए
कि अब भी अनगिन औरतें
जानती हैं
आँच बचाना
आग जुगाना...
प्रेम रंजन अनिमेष
देश के सर्वाधिक सशक्त, नवोन्मेषी एवं बहुआयामी रचनाकारों में अग्रगण्य
जन्म 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में
बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव, विविध विधाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित
कविता हेतु भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार तथा 'एक मधुर सपना' और 'पानी पानी' सरीखी कहानियाँ प्रतिष्ठित कथा पत्रिकाओं 'हंस' व 'कथादेश' द्वारा शीर्ष सम्मान से सम्मानित
कविता संग्रह : मिट्टी के फल, कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल, माँ के साथ, स्त्री सूक्त,जीवन खेल, जीवन शृंखला,कवि का सबद, कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र और कुछ साक्ष्य, नींद में नाच, ऊँट, अवगुण सूत्र, लोकशास्त्र, अंतरंग अनंतरंग, नयी कवितावली, क से कवि क से कविता, आदि
ईबुक : 'अच्छे आदमी की कवितायें', 'अमराई' एवं 'साइकिल पर संसार' ईपुस्तक के रूप में ( क्रमशः 'हिन्दी समय', 'हिन्दवी' व 'नाॅटनल' पर उपलब्ध)
अनेक बड़ी कविता शृंखलाओं के लिए सुविख्यात
कहानी संग्रह 'एक स्वप्निल प्रेमकथा' ('नाॅटनल' पर उपलब्ध) तथा 'एक मधुर सपना' पुस्तकनामा से प्रकाशित, 'गूँगी माँ का गीत', 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'थमी हुई साँसों का सफ़र', 'पानी पानी', 'नटुआ नाच', 'उसने नहीं कहा था', 'रात की बात', 'अबोध कथायें' आदि शीघ्र प्रकाश्य ।
उपन्यास ' 'माई रे...', 'स्त्रीगाथा', 'परदे की दुनिया', ' 'दि हिंदी टीचर', आदि
बच्चों के लिए कविता संग्रह 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशन विभाग से प्रकाशित, 'आसमान का सपना' प्रकाशन की प्रक्रिया में।
ग़ज़ल संग्रह 'पहला मौसम' और ग़ज़ल के और दीवान
संपादन : अरुण कमल की प्रतिनिधि कवितायें
अनुवाद : नोबल पुरस्कार प्राप्त आयरिश कवि सीमस हीनी तथा ख्यात अमरीकी कवि विलियम कार्लोस विलियम्स की कविताओं का अनुवाद
आलोचनात्मक लेखन : चौथाई, ऊँचा सोचना आदि
संस्मरण, नाटक, पटकथा तथा गायन एवं संगीत रचना भी । अलबम 'माँओं की खोई लोरियाँ','धानी सा', 'एक सौग़ात' ।
ब्लॉग : 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)
स्थायी आवास: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020
वर्तमान पता: 11 सी, आकाश, अर्श हाइट्स, नाॅर्थ ऑफिस पाड़ा, डोरंडा, राँची 834002
ईमेल : premranjananimesh@gmail.com
दूरभाष : 9930453711, 9967285190
ReplyDeleteहिंदी कविता के परिदृश्य में प्रेम रंजन अनिमेष का नाम उन कवियों में लिया जाता है, जिन्होंने स्त्री-जीवन की पीड़ा, द्वंद्व और संघर्ष को नये आयाम दिए हैं। उनकी कविताएँ केवल भावनात्मक सहानुभूति तक सीमित नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक बोध के साथ स्त्री के अस्तित्वगत प्रश्नों को उठाती हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ—दुख का पता, सुनवाई, पुरुष चरित्र, धरती का फटना, दोहरी, बोली का दुख दुख की बोली, कंधा, क्रिया कर्म, इच्छा मृत्यु, अंतिम प्रार्थना, जगाना जुगाना—स्त्री-दुःख के विविध पहलुओं को मार्मिकता और प्रखरता के साथ सामने लाती हैं।
“दुख का पता” कविता स्त्री के उस अनुभव को उभारती है जहाँ उसकी देह तो पहचानी जाती है, लेकिन उसके दुख को अनजाना छोड़ दिया जाता है। पुरुष के लिए स्त्री देह का सुख तो उपलब्ध है, पर दुख की पहचान तभी होती है जब उसका सामना अपने निजी दुःख से होता है। यहाँ कवि स्त्री के जीवन को देह-आधारित दृष्टि से परे जाकर आत्मा और पीड़ा के धरातल पर देखने का आग्रह करता है।
“सुनवाई” कविता स्त्री के आजीवन मौन और उसकी अनसुनी पुकार का बयान है। यह पुकार किसी विशेष पुरुष के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए है। यह उस आधी आबादी की आवाज़ है जिसे सुनने के बजाय हमेशा दबा दिया गया। कविता का प्रश्न—क्या यह आवाज़ कभी तारों की रोशनी की तरह देर-सबेर सुनी जाएगी?—हमारे समाज की संवेदनहीनता को कटघरे में खड़ा करता है।
“पुरुष चरित्र” में पुरुष के छल, शाप और उद्धार की विडंबनाएँ उजागर होती हैं। इसी तरह “धरती का फटना” में सीता की कथा का पुनर्पाठ करते हुए कवि यह स्थापित करते हैं कि धरती में समाना सीता का स्वैच्छिक निर्णय नहीं, बल्कि सामाजिक हत्या का परिणाम था। इस दृष्टि से अनिमेष की कविताएँ मिथकों और आख्यानों का नये सिरे से स्त्री-केंद्रित विवेचन करती हैं।
“दोहरी” कविता कामकाजी स्त्रियों की दोहरी जिम्मेदारियों पर रोशनी डालती है। वे घर और बाहर दोनों को सँभालती हैं, पर मुक्ति फिर भी कहीं नहीं है। “क्रिया कर्म” और “इच्छा मृत्यु” में स्त्री की सामाजिक उपस्थिति की कमी, उसकी इच्छाओं की मृत्यु और कर्मकांड की उपेक्षा पर तीखे सवाल उठाए गए हैं। ये कविताएँ बताती हैं कि आधुनिक समय में भी स्त्री-जीवन की कठिनाइयाँ कितनी गहरी हैं।
“बोली का दुख दुख की बोली” में कवि लोक-भाषाओं और स्त्रियों की मौखिक परंपरा को स्त्री-दुःख का संवाहक मानते हैं। पुरनिया औरतों की बोली में छिपे दुख अब इतिहास के साथ लुप्त हो रहे हैं। कवि पूछता है कि क्या कवि अपने शब्दों में इन्हें बचा पाएगा? यह कविता भाषा, स्मृति और स्त्री-संवेदना के रिश्ते को मार्मिकता से सामने रखती है।
अनिमेष की कविताएँ केवल दुख का आख्यान नहीं हैं, बल्कि उनमें प्रतिरोध और पुनर्निर्माण की संभावनाएँ भी हैं। “जगाना जुगाना” बताती है कि सभ्यता अब भी स्त्रियों की जीवन-रक्षक आँच पर टिकी है। यही स्त्रियाँ घर और समाज को बचाए रखती हैं। यह स्त्री की भूमिका को मात्र पीड़िता नहीं, बल्कि निर्माता और पोषक के रूप में सामने लाता है।
अनिमेष की कविताओं की सबसे बड़ी शक्ति उनकी भाषा है। यहाँ भावुकता नहीं, बल्कि तीखा यथार्थ और गहन करुणा है। मिथकीय सन्दर्भ, लोक-भाषा, प्रतीक और प्रत्यक्ष सामाजिक प्रसंगों का सुंदर मिश्रण कविताओं को बहुआयामी बनाता है। शिल्प सरल है, पर असर गहरा। कवि की प्रश्नवाचक शैली कविताओं को संवादधर्मी और आलोचनात्मक तीव्रता प्रदान करती है।
प्रेम रंजन अनिमेष की ये कविताएँ स्त्री जीवन के दुख और संघर्ष को एक नये सौंदर्यशास्त्र के साथ सामने लाती हैं। ये कविताएँ केवल स्त्रियों के लिए लिखी सहानुभूतिपूर्ण रचनाएँ नहीं, बल्कि समाज की आत्मा को झकझोरने वाले शोकगीत हैं। इनका महत्व इस बात में है कि ये हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि स्त्री का दुख केवल उसका निजी दुख नहीं, बल्कि पूरे समाज की असफलता और दोष का प्रमाण है।
Kavi प्रेम रंजन अनिमेष के प्रस्तुत सभी संवेदनशील दुख की कविताएं हैं जिनमें स्त्री के दुख है जो दर्द की आवाज में बोल रही है,मुझे लगा दर्द के प्रति हमारे अवचेतन को और जगा भी रही है। प्रेम जी में कविता की आँख से देखने की अदभुत क्षमता लगी इन कविताओं को पढ़कर ,वैसे भी वे हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। अभिनंदन कवि प्रेम।
ReplyDeleteबेहतरीन कविताएं,मर्म स्पर्शी कविताएं।
ReplyDeleteप्रेम रंजन अनिमेष की ये कविताएं अलग से पहचानी जा सकती हैं।
हार्दिक शुभकामनाएं भैया।
बहुत अच्छी कविताएँ, मार्मिक और निःशब्द करती हुई
ReplyDeleteकौशिकी की सभी कविताएँ, पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे, प्रेम रंजन अनिमेष जी स्त्री जीवन के अंधेरे कोनों पर रोशनी डालकर दुःखों के जाले दिखा रहे हैं । वे जाले जिन्हें समाज सदा से अनदेखा करता रहा है । कविताएँ मन को गहरे स्पर्श करती हुई उद्वेलित करतीं हैं ।
ReplyDeleteदिल को छू लेने वाली हर पंक्ति, बहुत ही सुंदर कविताएँ l
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteअंतर्दृष्टिपूर्ण कविताएं । यह कविताएं हमें अपनी सीमाओं को तोड़ने और नए क्षितिज तलाशने की प्रेरणा देती है । 💐💐
ReplyDeleteअनिमेष समकालीन कविता के ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने आरंभ से गहन अनुभूति, यथार्थ अवलोकन, कलात्मक अनुशासन और अभिव्यक्ति के उत्कृष्ट निकष से सुधी पाठकों का न केवल ध्यान खींचा, अपितु समकालीन कविता के परिदृश्य को ज्योतिर्मय बनाया है। अनिमेष लगातार लिख रहे हैं। उनके लेखन का परिसर बहुत व्यापक है। वे साहित्य की हर मकबूल विधा में सृजनरत हैं । महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अभिव्यक्ति के जोखिमों व चुनौतियों से टकराते हैं और इस टकराहट में हर बार नवोन्मेष, नवानुसंधान व नवाविष्कार करते हुए कला के नक्षत्र को और चमकदार बना डालते हैं।
ReplyDeleteस्त्री मन के कोने-कोने तक झाँक आना, उसे समझना, परखना बहुत बड़ी बात है। स्त्री लेखिकाओं की रचना की दृष्टि में यह सामान्य बात प्रतीत होती है। परंतु एक पुरुष का इस कदर संवेदनशील होकर, उसकी स्त्री मन विषयक रचना में जीवंतता और सजीवता की प्रस्तुति देख कर यह अनुभव होता है कि उसे स्त्री मन और स्त्री मनोविज्ञान की कितनी गहरी पकड़ है। एक पुरुष लेखक द्वारा स्त्री-मनोविज्ञान की यही गहरी और सूक्ष्म पकड़-परख एक स्त्री को आश्वस्त करती है कि स्त्री तुम अकेली नहीं हो। तुम्हें समझने वाला, तुम्हारे मन की अन्तर्वेदना और गहराई को समझने वाला, तुम्हारा साथ निभाने वाला पुरुष है।
आदरणीय अनिमेष सर को इन शानदार कविताओं के लिए बहुत बधाई।
आपकी लेखनी यूं ही निर्बाध चलती रहे।
आपकी लेखन और लेखनी को साधुवाद प्रेम रंजन जी । आपकी लेखनी निरंतर रचनात्मक 'मोड' में रहे और सार्थक रचनाओं की भेंट साहित्य क्षेत्र को मिलती रहे।
ReplyDeleteइन्द्रजीत सिलीगुड़ी
उत्कृष्ट लेखनी के धनी अनिमेष रंजन जी हैं । आपकी हर कविता समाज में परिलक्षित विषयों पर केंद्रित है जो कुछ न कुछ गहन विचार व्यक्त करती हैं । दुख का पता और सुनवाई को आपने इतने संजीदगी से विचारों को पिरोया है जो मेरी रूह को भी छू गयी । बहुत सुंदर आदरणीय ।
ReplyDeleteराजेंद्र गुप्ता
ReplyDeleteवाह्ह्हह्ह्ह्ह.
बेहद मार्मिक
🌹🙏🌹
क्या अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteनिःशब्द करती हैं सदा उनकी स्त्री विषयक अभिव्यक्तियाँ
अंतिम प्रार्थना के पुरुष को देखा है करीब से तो प्रत्यक्ष हो उठा वह दयनीय भाव।
बड़ी जगह में जगह बनाने योग्य हैं उनकी कविताई
क्या अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteनिःशब्द करती हैं सदा उनकी स्त्री विषयक अभिव्यक्तियाँ
अंतिम प्रार्थना के पुरुष को देखा है करीब से तो प्रत्यक्ष हो उठा वह दयनीय भाव।
बड़ी जगह में जगह बनाने योग्य हैं उनकी कविताई