सौम्य मालवीय की कविताएं
क्या कह सकता है पहाड़
कहीं उठकर चल तो नहीं सकता
समेट नहीं सकता अपनी सलवटें
अपने पैर मोड़ कर-सर गोड़ कर बैठ नहीं सकता
उसे तो रहना है सर उठाये
कंधे से कंधा मिलाये
उसकी नदियाँ बौखलाती हैं
बदलियाँ बजर ढहाती हैं
वो समझाता ही है
कहता है धीरज से बहो-हरो मेरा दुख
छाओ-बोते रहो धमनियों में आसमान
वो ढहता है अपनी ही मिट्टी में
एक-एक कर टूटती हैं शिलाएँ
दरकती है देह-जल सूखता है पत्थरों का
वो नहीं किसी का संतरी-किसी का पासबाँ
राजमार्ग, सुरंगें, खनिज चूसने के यंत्र
कितना भी दावा धरें उस पर
राष्ट्रीय सम्पदा कह कर
हक़ीक़त तो ये है कि
पहाड़ धरती का शहीद है
उसकी हर साँस का शाहिद बन
ग़र्क़ होता है धीमे-धीमे अपनी ही घाटियों में
निर्जन अरण्य में चढ़ाता है
एकांत की हाँडी
पकाता है विद्रोह से भरा सन्नाटा
जैसे जेसीबी-स्टोन क्रशर
की मुख़ालिफ़त में!
जिसे विपत्ति कहते हैं हम-आप
उसके अस्तित्व की लड़ाई है
पहाड़ कभी लौटता नहीं
हमेशा मोर्चे पर रहता है
आपदा-प्रबंधन के नियम
राहत-कोषों की ख़ैरात
भूल जाते हैं ये छोटी सी बात कि
पहाड़बीती ही आपबीती है
इससे पहले कि लोग उठा सकें दर्द कोहसार-नुमा
जीवन बहाल हो जाता है
फ़ाइलें बंद हो जाती हैं।
इरफ़ान
(फ़िल्मकार अनूप सिंह की किताब इरफ़ान: डाइलॉग विद द वर्ड पढ़कर)
भंगिमाएँ बदल जाती हैं
जैसे रेत के ढूह चुपचाप बदल लेते हैं जगह
छायाएँ अपने गिरने का ढब बदलती हैं
कि कुछ दूसरा ही लगने लगता है जगत
पतंग मुड़ जाती है आसमान के किसी अप्रत्याशित कोने में
हल्की से डोर खेंचने पर
रंग फीके भी पड़ जाएँ तो
हड्डियों का ढाँचा साथ देता है आख़िर तक
उनके ख़ाके की ख़ूबी है
कि घोड़े, गधे और हाथी पर बीस बैठते हैं ऊँट
और पुरखों से नज़र आते हैं
आलाप पर आते-जाते खड़ा होता है कोई राग
– उभरते हैं उसके नुक़ूश
शदीद दर्द के बीच जागती है एक मुस्कान
सदा के लिए अपना बना जाती है
बड़ी-बड़ी रेगिस्तानी आँखों में
रेत की मामूली सी लकीर भी
अपनी जगह पाती है
मुद्राएँ पहनने वाला अभिनेता
इक रोज़ सदा के लिए चला जाता है नेपथ्य में
लेनिन के चेहरे की शिद्दत
आदम के वजूद की वहशत लिए
इशारे टंगे रह जाते हैं हैंगर पर
स्थितियाँ ठहरी हुई बद-गुमानी में
अंजुमन-ए-इरफ़ानी से यूँ खो जाता है इरफ़ान
कि ट्रेन दौड़ती तो है समतलों के साथ
पर उसका साया संग नहीं दौड़ता
रेखाओं में भर जाता है इतना कुछ
कि फ़्रेम टूटने लगते हैं
कोई बचता नहीं आकृतियों का नामलेवा
हर चीज़ से विदा होने लगता है उसका आकार
इरफ़ान केवल याद नहीं आता
दिल पर टूटता है
जैसे छवियों के बिखरने पर
तड़ से टूट जाते हैं यादों के शीशे !
इन्विजिलेशन
बाँट दी हैं उत्तर-पुस्तिकाएँ
और प्रश्न-पत्र हाथ में लिए घड़ी की ओर देख रहा हूँ
एक निर्मम चुप्पी पसरी है अभी
जो कुछ ही देर में
कलमों के घिसने-उँगलियों के चटखने-फर्नीचर की चरर-मरर में
विभक्त हो जाएगी
ट्रकों के बेहूदा हॉर्न
फेरीवालों की हाँफती पुकारें
उत्तर-पुस्तिकाओं की नीली इबारतों पर
गहराते साये
घर लौटते पक्षी-उनका कलरव भरा नीड़ सुख
निचाट दीवारों को ढँकते
मख़मली छाया-वसन
ध्वनियों और रोशनियों की ऐसी सिनेमाई घुसपैठ पर
कैसे पहरा रखूँगा मैं – एक लाचार कक्ष-निरीक्षक/
जिससे एक पैनी सतर्कता अपेक्षित है
वो ख़ुद ही शाम की
धँसती हुई ज़मीन पर खड़ा है!
समय-समय पर बताऊँगा समय
आधा पढ़ा उपन्यास निकालूँगा-रखूँगा
कुछ वक़्त कटेगा उदास समोसा खाते
सुड़कते गाढ़ी ऊब में ठहरा रसायन – उर्फ़ चाय!
चेहरों की लाचारी और आत्मविश्वास से
समान दूरी पर स्थित
जल्दी हस्ताक्षर करने के लिए
सोचता नाम के संक्षेपाक्षर
परीक्षा रूपी महायज्ञ में
पिन, गोंद, मोहर, लिफ़ाफ़े और स्याही जैसा एक सामान हूँ
जो रह-रह कर अपनी भूमिका में
ख़ासा गंभीर और सक्रिय हो उठता है
किसी को अतिरिक्त उत्तर-पुस्तिका की दरकार हो
याद आ गया हो टॉयलेट के अंधेरे में
खुरचा हुआ कोई फ़ॉर्मूला
मुझे बचे हुए मिनटों में
एकाएक याद करने लगते हैं परीक्षार्थी
‘मे आई...’…’मे आई...’
बिल-आख़िर
गिन कर कम से कम दो बार
पहुँचा दूँगा सभी उत्तर पुस्तिकाएँ कंट्रोल रूम में
बचे हुए प्रश्न-पत्र, धागे
उपस्थिती-सूची
बरामद की हुई चिटें
जो मेज़ों के गलियारों के बीच
मरी हुई मक्खियों सी पड़ी मिलेंगी
(और जिन पर लिखे होंगे बेहद हताश करने वाले उत्तर-
निरीह और याचक!)
समयबद्ध वृत्त से बाहर
अपना समयहीन समय लिए
जब निकलूँगा परीक्षा केंद्र से बाहर
एकाएक बह निकेलगा समय!
परीक्षार्थियों को याद आएँगे
आपस में गड्ड-मड्ड होते प्रश्न
आधे-अधूरे उत्तर
भूल जाएगा कटा-पिटा चेहरा मेरा
मुझे भी याद होगा तो बस
कतारबद्ध मेज़ों का एक क़ब्रिस्तान
जिसके निवासी एक तनाव भरी नींद के लिए
वहाँ दफ़्न होने आए
और फिर क़ब्रें आड़ी-तिरछी कर
निकल गए शोर भरी सड़कों पर
गुम होने के लिए
निज़ाम की मेहरबानी हुई तो
कुछ देर का मुजावर होने की चढ़त
महीने-दो महीने निकलते
चुपचाप जमा हो जाएगी मेरे खाते में
मैं भी क्या याद करूँगा
कि ऐसे सुन्न कर देने वाले कितने सन्नाटे
दफ़्न हैं भीतर
कि अब भी टहलते हैं ख़ाली परीक्षा हॉलों के प्रेत मन की दोपहरों में
ऊँघते हुए आती है
सीले काग़ज़ों पर बेजान जवाबों के घिसे जाने की आवाज़!
जब देखो न तब सामान्य संवाद के बीच
बड़बड़ाने लगता हूँ परीक्षा-सम्बन्धी निर्देश
/समय तीन घंटा
पूर्णाङ्क सौ
अपने प्रवेश-पत्र निकाल कर मेज़ पर रखें
कुछ भी और न लिखें प्रश्न-पत्र पर
अपने नाम
और अनुक्रमांक के सिवा!
इस बार बहुत दिनों बाद दिल्ली
इस बार बहुत दिनों बाद गया दिल्ली
बहुत उखड़ा हुआ था शहर से
शहर ने भी बुलाया नहीं था
बल्कि ये तय कर चुका था कि बुलाएगा तो भी जाऊँगा नहीं
चंद घंटे बस पकड़ने के लिए
या एयरपोर्ट-रेलवे स्टेशन पर इंतज़ार की मजबूरी अलग
पर शहर से मिलने नहीं जाऊँगा
मेरे भीतर जितना शहर जमा है शहर छोड़ने के बाद भी
वो ही एक बड़ी उलझन है
उसी को ख़ाली करता रहता हूँ भीतर से/बूँद-बूँद रिसने देता हूँ
छुड़ाता हूँ जैसे ज़िंदगी का मैल हो
पर भागते-फिरते दिल्ली से
सामने खड़ा हो जाता है सब्ज़ी मण्डी का टिकट काउंटर
सराय रोहिल्ला की उलझी हुई पटरियाँ
दिल्ली कैंट की चटियल धूप
कश्मीरी गेट के चीकट खम्भे
फ़्लाइट नंबरों से झिलमिलाता टर्मिनल-1 का डिस्प्ले बोर्ड
गोकि दिल्ली से आने-जाने-निकलने के रास्ते ही
दिल्ली से निकलने नहीं देते
उमस भरी झाड़ियाँ पैरों से लिपट जाती हैं
संग चल पड़ते हैं ख़ून के सूखे हुए धब्बे
जाग उठती है हड्डियों में बसी आनन्द विहार की रात
डिपो का शोर बरसता रहता है
नींद की बंजर ज़मीन पर
दिल्ली कोई इबारत तो नहीं
जो दिल पर मुनक़्क़श हो जाए
एक रहगुज़र सी है
जो मुझसे और कभी मैं उससे होकर गुज़रता रहता हूँ
अक्सर कहीं बसने को होता हूँ कि जाना हो जाता है दिल्ली
बस पर फिर क्या उखड़ा-उखड़ा रहता हूँ दिनों-हफ़्तों
कभी दिल-आज़ार मंज़रों को सोचता
कभी शहर-ए-दिल-आवेज़
की याद में खोया
बिन सोया।
शिलान्यास
शुभ मुहूर्त पर
शिलान्यास हो गया प्रस्तावित फ़ोरलेन का
पुल का
नए सचिवालय का भी
एक बड़ा होर्डिंग भी लग गया
पहाड़ में समतल के सुख गिनाता
इन सब के लिए
अलग-अलग जगहों से कटेगा पहाड़
चूँकि पहाड़ का शिलान्यास तो हुआ नहीं
इसीलिए मिटेगा-डाइनामाइट से फूटेगा
शिला-शिला होने तक!
तीर्थ-तिज़ारत-ताक़त के न्यासी
नासते हुए गुज़र जाएँगे गिरिमालाओं के विन्यास को
क्या पता फिर क्या बचेगा धरती पर
उनकी रक्खी शिलाओं के सिवा?
धरती
उसका भी तो शिलान्यास नहीं हुआ था कभी
अभी याद आया
पहाड़ को टूटता हुआ देखकर...
भूली हुई चीज़ों के अनंत से
भूली हुई चीज़ों के अनंत से
कोई चीज़ उछल कर आ गिरी
याद के चौखटे में
अकेली, संकुचाई हुई, तेज़ी से पिघल रही
जैसे जूते में चिपककर अजनबी दुनिया में आ गई बर्फ़ हो
भूली हुई चीज़ों का अनंत
पहले पृथ्वी पर ही हुआ करता था
संभव था रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते हुए उससे टकरा जाना
पर अब वो आसमानी असीमता जैसा दूर है
याद की नीली फ़िल्म से ढँका हुआ
कभी किसी विपथ खगोलीय वस्तु की तरह
कोई भूली हुई चीज़
खेतों में मिलती है
या रेलवे ट्रैक्स के पास बच्चों को
जो उसे टीन के डब्बे की तरह सुतली से बाँध कर
गाते-बजाते अपने जुलूस निकालते हैं
हमारी दुनिया की त्यागी हुई चीज़ें
‘उस’ दुनिया में फिर भी जीवित रहती हैं
जैसे नीले तारपोलीन से ढँकी वो दुनिया अनंत का द्वार हो
जिसे बाहरी हुक़्मरानों के आने पर दीवारों से ढँक भी देते हैं
कोई ज़रूरी नहीं कि हमारी हर भूली हुई चीज़
निष्पाप और निहत्थी ही हो
घनी बस्तियों में कूड़ा बीनते बच्चे की बोरी में छुपा हुआ
लैंडमाइन भी तो स्मृति के लिए
अनस्तित्व में जा चुका था
कंडोम के पिचके हुए ग़ुब्बारे
इस्तेमाल की हुई सीरिंज
विगत के कई नुकीले-धारदार टुकड़े!
क्या संभव है
भूली हुई चीज़ों के अनंत की एक इक्वेशन लिखना
और उसे प्रेम, गुनाह, बेहिसी जैसी
सभी चर राशियों के लिए संतुष्ट होता हुआ पाना
वर्तमान की चिरसम्मत यान्त्रिकी से निकलकर
खोजना अपने अपराधों का फलन
किसी भूली हुई चीज़ से कुछ हल करना
कुछ हल होना।
अब तक लौटा नहीं शब्द
बहुत दिन हुए घर से निकला
अब तक लौटा नहीं शब्द
अपनों में रुसवा हुआ-ताने सुने-बोल सहे
बाहर निकला – लोगों ने कहा बाहरी है
फ़िज़ूल है कौड़ी भर का भी नहीं
कुछ ने कहा पश्चिमी
कुछ बोले फ़ारस से आया है
बाज़ ‘घुसपैठिया’ कहने से भी नहीं चूके
पता नहीं चला कब, कैसे
हर ओर एक गाली सा उछाला जाने लगा !
बस एक दिन ख़ामोशी पर पैर रखकर निकल गया
तब से लौटा नहीं शब्द
न जाने कहाँ होगा ?
न पैसे रखकर निकला है
न ढंग से कपड़े ही पहने हैं
फ़ोन वो रखता नहीं
अपना चश्मा भी यहीं छोड़ गया है
छोटी उमर में ही नज़र कमज़ोर हो गई थी
बोलने से अधिक टटोलने लगा था शब्द
पिछले दिनों
जो शब्द छोड़कर चले गए भाषा को
उन सब में सबसे छोटा
सबसे सहल था
भाषा अक्सर चिंता करती थी उसकी
भाषा में अब बहुत सी ख़ाली जगहें हैं
एक अदद जगह उस शब्द की भी है
मैं कविता में लिख देता उसे
यदि इतने भर से उसका पुनर्वास हो जाता
पर जो जीवन में नहीं
वो कविता में कैसे - कब तक हो सकता है ?
कविता में भी अब बहुत सी ख़ाली जगहें हैं
जिनके बीच से होकर
करम-ए-दुनिया से मुहर-ब-लब
मरी हुई धूप टहलती है।
पढ़ी जा रही किताब
धीमे-धीमे हाथों से छूट रही है किताब
शब्द बह रहे हैं एक दूसरे में
चंद लाइनें पढ़ने के बाद
फिर फिर लौटता हूँ पहली सतर के पहले शब्द पर
एक हाथ की उँगलियाँ किताब के सीने पर पड़ी हैं
उसी हाथ के अँगूठे पर टिकी है किताब की रीढ़
और दूसरे हाथ ने किताब और पहले हाथ को एक साथ थाम रखा है
बिखर रहा है यह स्थापत्य
जैसे जैसे बढ़ रही है नींद की जादुई लतर
लैम्प अपनी रोशनी एक जगह टिकाकर सो चुका है
तलवों के खुले हुए पंख भी बंद हो चुके हैं
आँखें देख रही हैं सिर्फ़ अपने देखने की परछाईं
समय आ गया है कि अब किताब को
वैसे ही खुला हुआ पर औंधा कर
सिरहाने की मेज़ पर रख दूँ
उस पर निकाल कर धर दूँ अपना चश्मा भी
बुरी ख़बरों से भरे हुए दिन को कुछ इस तरह करूँ विदा
कि अगली सुबह आख़िरी पढ़ी हुई जगह पर निशान लगाकर
शेल्फ़ में सजा सकूँ किताब को
एक पढ़ी जा रही किताब का साथ ख़ुद को देकर
शुरू करूँ अगला दिन
नींद में पूरी तरह गाफ़िल होने से पहले
दिल-ए-नातवाँ के लिए इससे
बड़ा भरोसा कुछ भी नहीं !
सौम्य मालवीय
जन्म 25 मई 1987, इलाहाबाद ।
सौम्य लम्बे समय से कविताएँ लिख रहे हैं और अनुवाद में भी गहरी रुचि रखते हैं । हिन्दी की तक़रीबन सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएँ, लेख आदि प्रकाशित।
दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के समाजशास्त्र विभाग से उन्होंने गणितीय ज्ञान के समाजशास्त्र पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की है और इसी विषय पर अंग्रेज़ी में सतत लेखन करते रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई महाविद्यालयों में अध्यापन के बाद वे क़रीब दो वर्ष अहमदाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहे और वर्तमान में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी हि. प्र. के मानविकी एवं समाज विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। गणित पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से जारी शोध एवं लेखन के अलावा, सौम्य नृतत्वशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन और कृतित्व पर एक मोनोग्राफ़ लिखने में संलग्न हैं । 'घर एक नामुमकिन जगह है' (2021) शीर्षक से प्रकाशित उनके कविता संग्रह को 2022 के भारतभूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । 'एक परित्यक्त पुल का सपना' (2024) उनका दूसरा कविता संग्रह है।
संपर्क:स्थाई पता - ए - 111, मेंहदौरी कॉलोनी, तेलियरगंज, इलाहाबाद - 211004, उत्तर प्रदेश वर्तमान पता - C9/F2, दक्षिणी परिसर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी, कमांद, मंडी - 175005, हिमाचल प्रदेश
सभी पेंटिंग : वाज़दा ख़ान
वाज़दा ख़ान
एम. ए. (चित्रकला), डी. फिल.
कई एकल, सामूहिक प्रदर्शनियां व कार्यशालाओं में भागेदारी 2024 : At A memory square Triveni gallery नई दिल्ली 2022 : And Yet ललित कला एकेडमी, नई दिल्ली
2021: बिटवीन टाइम्स (ऑनलाइन), आर्ट बीट्स फाउंडेशन, पुणे
2021: नोन-अननोन (ऑनलाइन), डॉम पोलोनिज्नी, रॉक्लॉ, पोलैंड
2021: द अदर साइड: ए ब्लैंक जर्नी (ऑनलाइन), पंच रोठी, द इंटरनेशनल आर्टिस्ट ग्रुप ऑफ इंडिया, कोलकाता
2012: अनएन्डिंग सॉन्ग, उड़ीसा आर्ट गैलरी, भुवनेश्वर
2006: फेमिनिज्म विदिन, कैनवस आर्ट गैलरी, दिल्ली
2001: शेड्स ऑफ लाइफ, निराला आर्ट गैलरी, इलाहाबाद
इसके साथ ही दिल्ली, गुरुग्राम, जयपुर, नागपुर, लखनऊ, कानपुर समेत अनेक जगहों पर सामूहिक प्रदर्शनियों में सहभागिता।
कई आर्टिस्ट कैम्प व कार्यशालाओं में भागेदारी।
कविता संग्रह 2022: खड़िया सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर 2022 : जमीन पर गिरी प्रार्थना
2009: जिस तरह घुलती है काया, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
2015: समय के चेहरे पर, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
नया ज्ञानोदय, हंस, दोआबा, बहुवचन, साक्षात्कार, उत्तर प्रदेश, युवा संवाद, इंडिया टुडे, संचेतना, उद्घोष, कथाक्रम, परिकथा, वागर्थ, आजकल, इन्द्रप्रस्थ भारती, पाखी, संडे पोस्ट, जनसत्ता, प्रभात खबर समेत सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में कविताएं व रेखांकन प्रकाशित।
कला विषय पर अनेक लेख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया, राजी सेठ व ग्राफिक्स कलाकार श्याम शर्मा से बातचीत (साक्षात्कार)
कुछ कविताओं का अंग्रेजी, पंजाबी व कन्नड़ में अनुवाद।
अनेक पुस्तकों के कवर डिजाइन।
सम्मान व पुरस्कार
2020: स्पन्दन ललित कला सम्मान, मध्यप्रदेश
2019: शताब्दी सम्मान, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन
2016: रश्मिरथी पुरस्कार (सम्पूर्ण कलाओं के लिये)
2010: हेमन्त स्मृति कविता सम्मान (जिस तरह घुलती है काया)
2002: त्रिवेणी कला महोत्सव पुरस्कार
फेलोशिप
2017-18: सीनियर फेलोशिप (चित्रकला), संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार
2004-05: गढ़ी ग्रान्ट, ललित कला अकादमी, दिल्ली
ई-मेल: vazda.artist@gmail.com








सौम्य बहुत शानदार कवि हैं। उनकी कविताएँ असद ज़ैदी की वॉल पर पढ़ता रहा। हमेशा पाया कि वे संवेदनशील हैं, उनके पास बड़ी साफ़ नज़र है और वे भयानक यथार्थ को कहने का साहस और विवेक रखते हैं। आपका शुक्रिया ये कविताएं पढ़वाने के लिए।
ReplyDeleteसौम्य जी बहुत ही प्रतिभाशाली कवि,हैं, संवेदनशील भी। शैली भी अलग है।सभी कविताएँ बेहतरीन हैं। पढ़ी जा रही है किताब, अब तक लौटा नहीं शब्द,पहाड़ धरती का शहीद है यह तीन कविताएं मुझे बहुत ही पसंद आया। तीनों कविताओं में भाषाओं के प्रयोग अलग है। वाजदा जी की पेंटिंग भी बेहद खूबसूरत। दिल से शुक्रिया आप सभी का।
ReplyDeleteबेहतरीन कविताएँ। बहुत गहरी चेतना से उपजी ये कविताएँ पाठक के मन को झकझोर देती हैं । सौम्य को इन भावपूर्ण कविताओं के लिए बहुत बहुत बधाई।💐
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