नीलेश रघुवंशी की कविताएं
नीलेश रघुवंशी
नीलेश रघुवंशी की कविताएं अपनी कहन शैली,विषय वस्तु और भंगिमा के कारण समकालीन कविता में एक अलग स्थान बना चुकी हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं। नीलेश रघुवंशी की कविताओं में स्त्री कविता का एक ऐसा मुहावरा है जो स्त्री के स्वप्न और संघर्ष को रेखांकित भी करता है तो उसमें दीनता का भाव नहीं है।यहां गर्व और आत्मविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हैं।
साँकल
कितने दिन हुए
किसी रैली जुलूस में शामिल हुए बिना
दिन कितने हुए
किसी जुल्म जोर जबरदस्ती के खिलाफ
नहीं लगाया कोई नारा
हुए दिन कितने नहीं बैठी धरने पर
किसी सत्याग्रह, पदयात्रा में नहीं चली जाने कितने दिनों से
‘कैंडल लाईट मार्च’ में तो शामिल नहीं हुई आज तक
तो क्या
सब कुछ ठीक हो गया है अब ?
इन दिनों क्या करना चाहिए
ऐसी ही आवाज़ों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखना चाहिए
‘चुप’ लगाकर घर में बैठे रहना चाहिए
या इतनी जोर से हुंकार भरना चाहिए कि
निर्लज्जता से डकार रहे हैं जो दूसरों के हिस्से
उठ सके उनके पेट में मरोड़
यह और बात है कि
सड़कें इतनी छोटी और दुकानें इतनीे फैल गई हैं कि
जुलूस भी तब्दील हो जाते हैं भीड़ में
विरोध के बिना जीवन कैसा होगा
घर के दरवाजे पर साँकल होगी
लेकिन उसमें खटखटाहट ना होगी
साँकल खटखटाए बिना दरवाजे के पार जाएँगे
तो चोर समझ लिए जाएँगे
चाँद आधा निकला होगा और कहा जाएगा हमसे
कहो- पूरा निकला है चाँद।
बेखटके
नींद इतनी कम और जलन इतनी ज्यादा कि
सड़क किनारे
सोते कुत्ते को देख भर जाती हूँ जलन से
इतनी कमियाँ हैं जीवन में कि
पानी के तोड़ को भी देखने लगी हूँ उम्मीद से
अंतिम इच्छा कहें या कहें पहली इच्छा
मैं बेखटके जीना चाहती हूँ ।
निकलना चाहती हूँ आधी रात को बेखटके
रात बारह का ‘शो’ देखकर
रेलवे स्टेशन पर घूमूँ जेब में हाथ डाले
कभी प्रतीक्षालय में जाऊँ तो कभी दूर कोने की
खाली बैंच को भर दूँ अपनी बेखटकी इच्छाओं से
इतनी रात गए
सूने प्लेटफार्म पर समझ न ले कोई ‘ऐसी-वैसी’
मैं ‘ऐसी-वैसी’ न समझी जाऊँ और
नुक्कड़ की इकलौती गुमटी पर चाय पीते
इत्मीनान से खींच सकूँ आधी रात का चित्र
क्षितिज के भी पार जा सके मेरी आँख
एक दृश्य रचने के लिए
मिलें मुझे भी पर्याप्त शब्द और रंग ।
जरूरत न हो
आधी रात में हाथ में पत्थर लेकर चलने की
आधी रात हो और जीने का पूरा मन हो
कोई मुझे देखे तो देखे एक नागरिक की तरह
यह देह भी क्या तुच्छ चीज है
बिगाड़कर रख दिये जिसने नागरिक होने के सारे अर्थ ।
उठती है रीढ़ में एक सर्द लहर
कैलेंडर, होर्डिंग्स, विज्ञापन, आइटम साँग
परदे पर दिखती सुंदर बिकाऊ देह
होर्डिंग्स पर पसरे देह के सौंदर्य से चैंधियाती हैं आँखें
देखती हूँ जितना आँख उठाकर
झुकती जाती है उतनी ही रीढ़
फिरती हूँ गली-गली
रीढ़हीन आत्मा के साथ चमकती देह लिए
जाने कौन कब उसे उघाड़कर रख दे
तिस पर जमाने को पीठ दिखाते
आधी रात में
बेखटके घूमकर पानी को आकार देना चाहती हूँ मैं ।
खेल का आनंद
कितनी अदभुत रोशनी थी वो
दिए की लौ न कँपकँपायी न थरथरायी
रात आकाश की बाँहों में तैरती सी लगी
तारे बिना संगीत के गुनगुनाने लगे
चाँद बल्ला बन तुम्हारे हाथों में आ गया
धरती एक गेंद में बदल गई और
इठलाने लगीं तुम्हारी कलाईयाँ
मैदान में यही तो सुनना चाहते हो कि
कितनी हुनरमंद हैं तुम्हारी कलाईयाँ ।
इस तरह न खेलो कि
देखने वालों का कलेजा मुँह को आ जाए
पारी की शुरूआत होती है तुमसे
उसी तरह खत्म करो उसे खत्म होता है जैसे एक दिन
इतनी जिद भी ठीक नहीं
कसाई की तरह पेश न आओ खेल के साथ
हमेशा कुछ तूफा़नी करने की ही क्यों सोचते हो ।
हुल्लड़बाज दोस्तों के बीच मटकते हो कैसे आढ़े-टेढ़े
तुम्हें नाचते देख बड़ी मुश्किल से रूक पाती है हँसी
लेकिन
‘डांसिंग ऑन द विकेट’ खेलते क्या खूब लगते हो तुम
तुम्हारे ‘लेट कट’ को देख पहुँच जाती हूँ उस घड़ी में
जब लेबर रूम में प्रसव पीड़ा से कराह रही थी मैं
और
इस दुनिया को सलाम करने में कितने नखरे मार रहे थे तुम
बैक फुट हो या हो ड्राइव या डिफेंस
खेलते हो सारे शाॅट्स उन्हीं नखरों के साथ
लीव करते हो जब बाॅल को तो मुझे तुम्हारी पहली आवाज़
और
मेरी सबसे लम्बी राहत की साँस याद आ जाती है ।
हमेशा चयन और निर्णय के फेर में न पड़ना
कई बार जो छूट जाता है बचा भी वही रह जाता है
बैंच पर बैठना उतना बुरा भी नहीं जितना तुम समझते हो
खुद की जगह पक्की करने के फेर में
किसी के चोटिल होने की प्रतीक्षा ना करना
धैर्य बिल्कुल ना खोना उस समय
जब जादुई कलाईयों की जगह इठला रही हों जुगाड़ू कलाईयाँ
काबिलियत को परे धकेलने का नज़ला है जिन्हें
उन्हें देख गलत रास्ता ना पकड़ना कभी ।
मेरे हुनरमंद नन्हें खिलाड़ी
तुम खेल के पीछे के खेल में कभी ना उलझना
यह छीन लेगा तुमसे खेल का आनंद।
साइकिल का रास्ता
साइकिल चलाते हुए
जमीन पर रहते हुए भी
जमीन से ऊपर उठी मैं ।
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि
रास्ता काटती बिल्ली भी रूक गई दम साधकर
ढलान से ऐसे उतरी
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि
पहाड़ों को पारकर पहुँचना है सपनों के टीलों तक ।
साइकिल चलाते ही जाना
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर
शहर को पार करते हुए जाना
नदी न होती तो
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गईं होतीं
पहला पहिया न होता तो
कुछ करने की, जीतने की ज़िद न होती ।
खड़ी हूँ आज
उसी सड़क पर बगल में साईकिल दबाए
पैदल चलते लोगों को देख
घबरा जाती हैं अब सड़कें
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच
देखा नहीं आज तक
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में
मृत्यु का आभास होते ही
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे
क्या साईकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में
रौंप दी जाएगी क्या
साईकिल भी किसी स्मृति वन में ।
साईकिल में जंग भी नहीं लगी और
रास्ते पथरीले हुए बिना खत्म हो गए
फिर भी भोर के सपने की तरह
दिख ही जाती है सड़क पर साईकिल ।
बिना टिकट यात्रा करती लड़की
बिना टिकट यात्रा करती लड़की
होते हुए सबके साथ भी
सबसे बचाती है अपने को
किसी से भी आँखें नहीं मिलाती
बिना टिकट यात्रा करती लड़की।
छिपाती है अपनी घबराहट
जेब में हाथ डाल चुपचाप टटोलती है रूपये
टिकटचैकर को देख मुस्कुराती है
पास आता है टिकटचैकर
तो खिड़की से बाहर झाँकने लगती है
बिना टिकट यात्रा करती लड़की।
राहत की साँस लेती है
बिना टिकट यात्रा करती लड़की
पेड़ पहाड़ और आसमान भी तो
हैं उसी की तरह बिना टिकट
बिना टिकट ही यात्रा करती हैं चिड़ियाँ सारे आसमान में।
पच्चीस रूपये का टिकट लो
इस महँगाई और बेरोज़गारी के दिनों में
अखरता है कितना
इन पच्चीस रूपयों में ले जा सकती है फल पिता के लिए।
ख़रीद सकती है
एक ज़रूरी किताब
अपनी छोटी बहन के लिए।
बोगी में बैठे लोग बतियाते हैं -
‘चेहरा बता देता है साबह
कौन चल रहा है बिना टिकट’
मन ही मन हँसती है
और हँसी को छिपाती है
बिना टिकट यात्रा करती लड़की
पकड़े जाने की आशंका से
अंदर ही अंदर सिहर जाती है
बिना टिकट यात्रा करती लड़की।
संतान साते
माँ परिक्रमा कर रही होगी पेड़ की
हम परिक्रमा कर रहे हैं पराये शहर की
जहाँ हमारी इच्छाएँ डूबती ही जा रही है।
सात पुए और सात पूड़ियाँ थाल में सजाकर
रखी होंगी नौ चूड़ियाँ
आठ बहन और एक भाई की खुशहाली
और लंबी आयु
पेड़ की परिक्रमा करते
कभी नहीं थके माँ के पाँव।
माँ नहीं समझ सकी कभी
जब माँग रही होती है वह दुआ
हम सब थक चुके होते हैं जीवन से।
माँ के थाल में सजी होंगी
सात पूड़ियाँ और सात पुए
पूजा में बेखबर माँ नहीं जानती
उसकी दो बेटियाँ
पराये शहर में भूखी होंगी
सबसे छोटी और लाड़ली बेटी
जिसके नाम की पूड़ी
इठला रही होगी माँ में थाल में
पूड़ी खाने की इच्छा को दबा रही होती है।
मुझे प्रेम चाहिए
मुझे प्रेम चाहिए
घनघोर बारिश- सा।
कड़कती धूप में घनी छाँ-सा
ठिठुरती ठंड में अलाव-सा प्रेम चाहिए मुझे।
उग आये पौधों और लबालब नदियों-सा
दूर तक फैली दूब
उस पर छाई ओस की बूँदों-सा।
काले बादलों में छिपा चाँद
सूरज की पहली किरण-सा
प्रेम चाहिए।
खिला-खिला लाल गुलाब-सा
कुनमुनाती हँसी-सा
अँधेरे में टिमटिमाती रोशनी-सा प्रेम चाहिए।
अनजाना अनचीन्हा अनबोला-सा
पहली नज़र-सा प्रेम चाहिए मुझे।
ऊबड़-खाबड़ रास्तों से मंज़िल तक पहुँचाता
प्रेम चाहिए मुझे
मुझे प्रेम चाहिए
सारी दुनिया रहती हो जिसमें
प्रेम चाहिए मुझे।
आधी जगह
जब भी पेड़ को देखती हूँ
आधा देखती हूँ
आधा तुम्हें देखने के लिए छोड़ती हूँ ।
हर जगह को
आधा खाली रखती हूँ
सिरहाने को भी
आधा छोड़ती हूँ तुम्हारे लिए ।
कभी भी
नदी को पूरा पार नहीं कर पाती
आधा पार
जो छोड़ती हूँ तुम्हारे लिए ।
कमल के पत्ते पर पानी काँपता है
चाँद काँपता है जैसे राहू के डर से
वसंत के डर से काँपता है जैसे पतझर
मैं काँपती हूँ आधेपन से
आधे चाँद से जल से भरे आधे लोटे से
काँपती हूँ तुम्हारे आधे प्यार से ।
समय और मुश्किल
ये मेरा समय है
जिसमें दर्ज नहीं मेरा होना
मेरा रहना, मेरा कहना।
मैं चुप हूँ
मैं बहुत बोलती हूँ
मैं वैसा नहीं कहती
जैसा तुम चाहते हो।
चुप तो मुश्किल
कहो तो मुश्किल
जागो तो मुश्किल
सोओ तो मुश्किल।
ये कैसा समय है
जिसमें
दूध की मुस्कान में भी खोजे जाते हैं अर्थ।
जिसमें चुप को कहना
और
कहने को चुप समझा जाता है।
खेल और युद्ध
खेल को खेल की तरह खेलो
खेल को युद्ध में मत बदलो
खेल की आड़ में युद्ध-युद्ध खेलोगे
तो मैदान नहीं बचेंगे फिर
बिना खेल के मैदान के
पहचाने जाएंगे हम ऐसे देश के रूप में
जो युद्ध को एक खेल समझता है
और इस तरह खेल की आड़ में
देश को युद्ध की आग में झोंकता है।
बहन की आंखों में
बहन की आंखों में बरहमेश दुख रहता है
रोती है तो दुख झलकता है
खुश होती है तो झिलमिलाता है दुख
क्यों है बहन की आंखों में इतना दुख?
कहती है
मेरे दुख से दूर ही रहना
नहीं तो वो तुझसे भी चेंट जाएगा
लिपट जाएगा तेरी गर्दन से काले नाग की तरह
इस चील गाड़ी को मेरे साथ ही रहने दे
कराहते नहीं, हँसते हुए बोलती है
इतना बड़ा जिगरा नहीं है मेरा
जिन आंखों में काजल लगाया मैंने
देख सकूं उनमें दुख को
बहन मेरी आंखों में दुख नहीं देख सकती
मैं हूँ कि जाने कब से
देख रही हूँ बहन को दुख में रहते।
हाइवे पर लांग ड्राइव
एक बार में
पूरा का पूरा कुछ नहीं दिखता
कितना अच्छा हो
दिख जाए सारा का सारा
एक बार में
एक ही रास्ते पर जाती हूँ बार-बार
दिखता है हर बार छूट गया कुछ
कितने रास्ते, कितने राहगीर, कितने मोड़
कितनी पुलिया, कितने पेड़ और कोण
जाने कैसे रह जाते हैं आंख में आने से
दिखता है पहले तो बड़ा-बड़ा सब कुछ
सिमटता जाता है फिर सब कुछ धीरे-धीरे
दिखती है
एक पतली-सी लकीर की तरह सिर्फ सड़क
सिकुड़ती जाती हैं आंखें, झपकती नहीं पलकें
वाइड एंगल से नैरो एंगल में आना
कितना दुखदायी और घातक है
सांप की तरह सरसराती गाड़ियां
निकल जाती हैं कितना आगे
तुम भी
मुझे छोड़कर निकल गए कितना आगे
पीठ फेर लेती हूँ यादों में भी
तुमने मुझे ऐसे छोड़ा
जैसे बाढ़ में उफनते नाले को पार करते
एक चप्पल साथ छोड़ते बह गई थी
घुटनों तक पानी में डूबी
एक चप्पल को छाती से चिपकाए
दूसरी चप्पल के लिए कितना रोई थी, मैं
जब भी लांग ड्राइव पर जाती हूँ
वाइड एंगल से नैरो एंगल में आती हूँ कि
आ जाती है तुम्हारी याद।
नीलेश रघुवंशी
जन्म : 4 अगस्त, 1969, गंज बासौदा (मध्यप्रदेश)।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी साहित्य), एम.फिल. (भाषा विज्ञान)।
रचनाएँ : घर निकासी, पानी का स्वाद,अन्तिम पंक्ति में,खिड़की खुलने के बाद, एक चीज कम (कविता-संग्रह); एलिस इन वंडरलैंड, डॉन क्विगजोट, झाँसी की रानी (2006)(बच्चों के नाटक); छुटी हुई जगह स्त्री कविता पर नाट्य आलेख, अभी न होगा मेरा अन्त निराला पर नाट्य आलेख, ए क्रिएटीव लीजेंड सैयद हैदर रजा एवं ब.व. कारन्त पर नाट्य आलेख और भी कई नाटक एवं टेलीफिल्म में पटकथा लेखन।
सम्मान : भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार (हण्डा कविता पर 1997), आर्य स्मृति सम्मान (घर निकासी पर 1997), दुष्यन्त कुमार स्मृति सम्मान (घर निकासी 1997), केदार सम्मान (पानी का स्वाद पर 2004), प्रथम शीला स्मृति पुरस्कार (पानी का स्वाद 2006), भारतीय भाषा परिषद कोलकाता का युवा लेखन पुरस्कार (अन्तिम पंक्ति में 2009)।
गाथा एक लम्बे सफर की वृत्तचित्र के लिए (Best Literary Adaptation of Acclaimed Work) डी.डी. अवार्ड 2003।
वृत्तचित्र जगमग जग कर दे डी.डी. अवार्ड 2004।
सम्प्रति : दूरदर्शन केन्द्र, भोपाल में कार्यरत।
सम्पर्क : ए-40, आकृति गार्डन्स नेहरू नगर, भोपाल (म.प्र.)।
E-mail : neeleshraghuwanshi67@gmail.com







बहुत सुंदर कविताएँ । मन को गहराई तक छूने वाली नीलेश जी को बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteमैंने पढ़ी सब। बहुत अच्छी कविताएं हैं। हार्दिक शुभकामनाएं नीलेश जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर। नीलेश जी को बहुत-बहुत बधाई!
ReplyDeleteकविताओं का स्वागत है। सभी कविताएँ हृदय तक पहुंचीं।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteनीलेश हमारे समय की महत्वपूर्ण कवि हैं और भविष्य की आवाज़ भी।
अशेष शुभकामनायें।
नीलेश रघुवंशी की कविताएं अलग से पहचानी जा सकती हैं। उनकी शैली और अंदाज सबसे अलहदा है।
ReplyDeleteभौतिक और पराभौतिक स्थितियों में गहरे उतरकर वहां से कथ्य खींच लाना उनकी विशेषता है।
कविता के इलाके की एक जिम्मेदार नागरिक नीलेश रघुवंशी की कविताएं हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से आती हैं।
ReplyDeleteबिना टिकिट यात्रा करती लड़की के बारे में आज भला कौन हिंदी कवि सोचता है?
बेहद सशक्त कविता।
बहुत अच्छी कविताएँ । साइकिल का रास्ता बहुत पसंद आई। नीलेश जी को हार्दिक बधाई 💐
ReplyDeleteकुछ कविताओं को पहले भी पढ़ चुकी हूँ,बावज़ूद इसके इन कविताओं को बार बार पढ़ना नया सा लगता है ।नीलेश जी मेरी प्रिय कवयित्रियों में से एक हैं ,उनकी कविताओं में स्त्रियों के लिए चेतना के बंद सिरे खुलते हैं जैसे कि सुंदरियों मत आया करो तुम सम्मान समारोहों में.. सरल,सहज भाषा में बड़ी से बड़ी बात कहना बड़े कवियों को ही साधना आता है..शंकरानंद जी धन्यवाद नीलेश जी की कविताओं को प्रकाशित करने के लिए 💐💐
ReplyDeleteहमेशा की तरह सुंदर कविताएं , कुछ पढ़ी हुई कुछ नई , मेरी प्रिय कविता सायकिल भी फिर से पढ़ने मिली ।
ReplyDeleteनीलेश रघुवंशी की सभी कविताएं पढ़ीं। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लग रहा जैसे कुछ ज़रूरी बातें जो हमें कहनी चाहिए थीं, वो बातें नीलेश ने कहा दी हैं। खेल के मैदान में और खेल के मैदान के बाहर भी। वह बहुत महत्वपूर्ण कविता जो यह कहना चाहिए कि बहुत दिनों से जो करना चाहिए था, वह नहीं किया। कई मोर्चों पर एक साथ कई मुद्राएं अख्तियार करती उनकी कविताएं आम नागरिक की एक जरूरी बयान लगती हैं। नीलेश को बधाई और शुभकामनाएं।।
ReplyDeleteहीरालाल नागर
कुछ तो चर्चित और प्रकाशित हैं।जो नयी हैं उनमें नीलेश रंग है।
ReplyDeleteक्रिकेट वाली पहली दफ़ा पढ़ी ,सबसे अच्छी यही है।