एकांत श्रीवास्तव की कविताएं

एकांत श्रीवास्तव

आखिरी बस


सच्चा प्यार 

आकाश की टहनियों में 

कहीं छुपा था 

अमरफल की तरह 


हम जिसे पत्थर मारकर गिराते थे 

वह प्यार झूठा था 

प्यार शरीर नहीं था 

शरीर तो नश्वर था 

रेत, मिट्टी,राख था 


आखिरी बस की हेडलाइट में 

पेड़ प्रकाशित होते थे एक-एक कर 

जैसे वे गाछ न हों 

कविता हों अरण्य की पुस्तक में 


जो प्रकाशित होकर भी 

अप्रकाशित रह जाता था 

वह हमारे हृदय का पन्ना था 

दिन पर दिन 

जो भूरा पड़ता जाता था 

प्रकाश के इंतजार में 


सच्चा प्यार 

कहीं सीपियों में पल रहा था 

सच्चे मोतियों की तरह 

उन समुद्र तटों पर 

जो निर्जन थे और खतरनाक भी 

और वहां से हम लौट आए थे 

आखिरी बस पकड़ कर।





मां और चेरी का फल 


दो रोटियां ज्यादा सेंकती है वह 

पकाती है थोड़ा अधिक अन्न 

कि शायद आज वह आ जाए

कनस्तर में कम होता जाता है आटा

झोले में कम होता जाता है चावल 

कम नहीं होती उम्मीद लेकिन हृदय में 


प्रतीक्षा की प्रचण्ड दोपहर में 

उम्मीद हो जैसे चेरी का फल 

सुर्ख, दहकता हुआ 

रोटियां बासी पड़ जाती हैं रोज

बासी नहीं पड़ती उम्मीद 


लालटेन की लौ धीमी करती है वह रात को 

बुझाती नहीं पूरी वह

कि शायद वह पुकारे

आधी रात 

और चेरी का फल 

उस पुकार की धमक से गिर जाए।





नहीं आने के लिए कह कर 


नहीं आने के लिए कह कर जाऊंगा 

और फिर आ जाऊंगा 


पवन से, पानी से, पहाड़ से 

कहूंगा - नहीं आऊंगा 

दोस्तों से कहूंगा और ऐसे हाथ मिलाऊंगा 

जैसे आखिरी बार 

कविता से कहूंगा - विदा 

और उसका शब्द बन जाऊंगा 

आकाश से कहूंगा और मेघ बन जाऊंगा 

तारा टूट कर नहीं जुड़ता 

मैं जुड़ जाऊंगा 

फूल मुरझा कर नहीं खिलता 

मैं खिल जाऊंगा 


हर समय दुखता रहता है यह जो जीवन 

हर समय टूटता रहता है यह जो मन

अपने ही मन से, जीवन से 

संसार से 

रूठ कर चला जाऊंगा 

नहीं आने के लिए कह कर 


और फिर आ जाऊंगा।


वन में बारिश 


कभी आगे बढ़ता हूं 

कभी हटता हूं पीछे 

क्या घूमता है खून में मेरे

लोहा 

या कोई डर!


वन में बारिश 

तिरछी बौछारें 

क्या कांपता है झंझा में ऐसे 

जीवन 

या कोई जड़!


एक आवाज सी होती है 

उड़ते हैं पंछी 

क्या गिरता है टूट कर ऐसे 

सपना 

या कोई घर!





सांझ


दिन के उजले दर्पण पर 

फैल गई है सांझ की स्याही 

तारों के पारिजात - फूलों से 

आकाश का कटोरा 

भर गया है।


जोड़ा तालाब 


जुड़वां ज्यों दो बहनें बिल्कुल अगल- बगल 

धरती की दो आंखें कितनी सजल-सजल 

रगबग -रगबग पानी यह ,कलबल - कलबल

लहर-लहर में धूप , तितली कंवल - कंवल

सपनों जैसे पेड़ 

छांह गहरी शीतल 

ये कौन बटोही आया है मीलों चल कर 

सुख में मिलता है दुःख का लोहा गलकर।


एकांत श्रीवास्तव 

जन्म : 8 फरवरी, 1964; ज़िला—रायपुर (छत्तीसगढ़) का एक क़स्बा छुरा।

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम.एड., पीएच.डी.।

प्रमुख कृतियाँ : ‘अन्न हैं मेरे शब्द’, ‘मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद’, ‘बीज से फूल तक’धरती अधखिला फूल है , सूरजमुखी के खेतों तक (कविता-संग्रह); ‘कविता का आत्मपक्ष’ (समालोचना), ‘शेल्टर फ्रॉम दि रेन (अंग्रेज़ी में अनूदित कविताएँ); ‘मेरे दिन मेरे वर्ष’ (स्मृति कथा), ‘बढ़ई, कुम्हार और कवि’ (लम्बी कविता), ‘पानी भीतर फूल’ (उपन्यास) जितनी यह गाथा (कहानी संग्रह)है।

अनुवाद : कविताएँ अंग्रेज़ी व कुछ भारतीय भाषाओं में अनूदित। लोर्का, नाजिम हिकमत और कुछ दक्षिण अफ्रीकी कवियों की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद।

सम्पादन : नवम्बर 2006 से दिसम्बर 2008 तक तथा जनवरी 2011 से कुछ वर्षों तक ‘वागर्थ’ का सम्पादन।

पुरस्कार : शरद बिल्लौरे, रामविलास शर्मा, ठाकुर प्रसाद, दुष्यन्त कुमार, केदार, नरेन्द्र देव वर्मा, सूत्र,हेमन्त स्मृति, जगत ज्योति स्मृति, वर्तमान साहित्य—मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार।

ई-मेल: shrivastava.ekant@gmail.com

Comments

  1. एकांत श्रीवास्तव की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं। इनमें मनुष्य और उसकी जिजीविषा बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं।

    ReplyDelete
  2. Achhi kavitayen.

    ReplyDelete
  3. कवि एकांत की इन कविताओं में सादगी है तो जीवंतता भी है।ये सभी संवाद करती कविताएं पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। अभिनन्दन एकान्त भाई।
    नरेश चन्द्रकर

    ReplyDelete
  4. वाह सुंदर 🌻

    ReplyDelete
  5. हरीशचंद्र पाण्डे24 July 2025 at 08:49

    एकांत जी की कविताओं का अपना अलग ही अंदाज है।वे हड़बौंग माहौल में भी अपनी एकांतता व धैर्य बनाए रखते हैं।

    ReplyDelete
  6. दिविक रमेश24 July 2025 at 10:09

    इस शुरुआत के लिए अनंत बधाई। एकांत श्रीवास्तव अच्छे कवि हैं। मुझे भी उनकी कविताएँ- नहीं आने की कहकर, माँ और चेरी का फल , साँझ अपनी पसंद की लगी हैं। शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete
  7. विनोद शाही24 July 2025 at 10:11

    एकांत श्रीवास्तव मेरे प्रिय कवियों में हैं। एक अच्छी शुरुआत हुई है। कुछ कविताएं तो अद्भुत है। एक जटिल भाव संरचना और रिश्तो का एक नया व्याकरण कुछ कविताओं में सहज रूप में व्यक्त हो गया है। जैसे की इस भाव में कि मैं चला जाऊंगा कभी ना आने को कहकर और लौट आऊंगा।

    ReplyDelete
  8. एकांत श्रीवास्तव25 July 2025 at 01:51

    कौशिकी के प्रति, पाठकों के प्रति और कविता पर टिप्पणी करने वाले सभी आदरणीय और प्रिय साथियों के प्रति हृदय से आभार और बहुत बहुत धन्यवाद🌻

    ReplyDelete
  9. भावना झा25 July 2025 at 01:57

    बहुत सुंदर कविताएं हैं
    **नहीं आने के लिए कहकर** बहुत अच्छी लगी। बधाई शुभकामनाएं 🙏

    ReplyDelete
  10. कुमार अनुपम25 July 2025 at 02:17

    एकांत जी मेरे प्रिय कवि हैं। ये कविताएँ कई स्तरों पर घटित हो रही हैं जिनमें बिम्ब बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। आसान दिखती पंक्तियों में एक काव्यात्मक बहुस्तरीयता है। पढ़कर मन ही मन में आनंद ले रहा हूँ।

    ReplyDelete
  11. सुंदर कविताएं,l

    ReplyDelete
  12. राकेशरेणु25 July 2025 at 03:19

    अच्छी कविताएँ हैं । ख़ासतौर पर नहीं आने के लिए कह कर और जोड़ा तालाब । एकांत अपनी कविताओं में अद्भुत भाव और बिम्ब रचते हैं । आप दोनों को बधाई ! कौशिकी के लिए अशेष शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  13. बहुत अच्छी कविताएं 🙏

    ReplyDelete
  14. अग्रज और प्रिय कवि छत्तीसगढ़ से हैं, उसी छत्तीस गढ़ के जहाँ के विनोद कुमार शुक्ल हैं. विनोद जी के बाद यदि किसी कवि की कविताओं में इस प्रदेश का अपना भूगोल, अपनी वन सम्पदा और संस्कृति उन्मुक्तता से प्रकट हुई है तो वे एकांत जी ही हैं. विनोद जी की बाद वाली पीढ़ी के एक ईमानदार देशज कवि. उन्होंने अपनी काव्य संवेदना निर्मित की, अपने बिंब अपनी भाषा गढ़ने में सफलता पाई. प्रकृति उनकी कविताओं में किसी महत्वपूर्ण चरित्र की तरह उपस्थित होती है. प्रस्तुत कविताओं में ताज़गी है. चेरी का फल और माँ कविता बहुत मार्मिक है. कौशिकी का आभार एकांत जी की कविताओं को पढवाने के लिए.

    ReplyDelete
  15. ललन चतुर्वेदी27 July 2025 at 04:04

    अच्छी शुरुआत!
    एकांत जी को पढ़ता रहा हूं। प्रस्तुत कविताएं भी अच्छी हैं।

    ReplyDelete
  16. सीमा सिंह27 July 2025 at 04:04

    एकांत जी मेरे प्रिय कवियों में हैं
    आपको बधाई और शुभकामनाएँ 💐

    ReplyDelete
  17. लीलाधर मंडलोई27 July 2025 at 17:15

    आपकी कविताओं का एक जुदा संसार और निजता की अंतःदृष्टि
    है..इधर जब कविता चर्चा के केंद्र में शिथिल उपस्थिति है तब इनका आवस्तिकर अर्थ है।

    ReplyDelete
  18. विजय बहादुर सिंह28 July 2025 at 05:17

    तुम्हारी ये कविताएँ भी खूब अच्छी हैं और यथार्थ और कल्पना के रहस्यात्मक धागों से बुनी हुई हैं.

    ReplyDelete
  19. कुमार अंबुज28 July 2025 at 07:58

    प्रिय एकांत,
    आपकी कविताएँ हमेशा की तरह मार्मिकता और संवेदना से ओतप्रोत हैं। और जीवन की हलचल से। आप उस जगह पर हैं, जहाँ किसी टिप्पणी की पृथक से ज़रूरत नहीं है। फिर भी।
    😊👍

    ReplyDelete
  20. एकांत की कविताएँ सामाजिक संवेदनाओं, मानवीय सरोकारों और प्रकृति के सौंदर्य से गहराई से जुड़ी हुई हैं। उनकी काव्य-शैली सहज, संवेदनशील और विचारोत्तेजक है। उनकी की कविताओं में स्थानीयता ग्रामीण भारत के दृश्य, भाव और प्रकृति से जुड़ी हैं — जैसे तालाब, सांझ, छाया, पारिजात, पेड़, बटोही आदि। भारत के गांव की जिंदगी आज भी एकांत के यहां मौलिकता के साथ मौजूद है चाहे भारत में विलुप्त के कगार पर हों। ये स्थानीयता से वैश्विकता की ओर डग भरती अद्भुत कविता है ।

    ReplyDelete
  21. यहां कविता ग्रामीण भूगोल और सांस्कृतिक भावनाओं का सजीव चित्रण है।

    “जोड़ा तालाब” का बिंब दो बहनों के रूप में खींचा गया है — यह ग्रामीण समाज की सहज तुलना है, जहाँ प्रकृति को आत्मीय रिश्तों में ढालकर देखा जाता है।

    “रगबग-रगब”, “कलग पानी, कलबलबल” — यह ध्वन्यात्मक सौंदर्यं तालाबों की चंचलता और जीवन्तता को गहराई से व्यक्त करता है।

    ReplyDelete
  22. श्रीवास्तव की कविताओं में दृश्यात्मकता बहुत प्रबल है — जैसे आकाश का कटोरा, छाँह सागर शीतल, दो बहनों जैसे तालाब थक कर हृदय छू लेता है।ध्वन्यात्मक सौंदर्य एकांत की विशेषता है “जोड़ा तालाब” में, जल की आवाज़, पेड़ों की छाया और चलने वाले बटोही की कल्पना सुनाई और दिखाई देती है।

    ReplyDelete
  23. बोधिसत्व28 July 2025 at 10:07

    एकांत भाई की ये कविताएँ पढ़वाने के लिए कौशिकी का और शंकरानंद का आभार!

    एकांत भाई ने निरंतर अपनी कविता की भूमि का विस्तार किया है साथ ही कविता की अपनी जमीन पर पकड़ भी मजबूत की है!

    अन्न हैं मेरे शब्द और नाग केसर के आगे उन्होंने अपना कहन भी सांद्र किया है और देखने की गहराई भी विकसित की है! अपने पैंतीस साल से अधिक के लेखन को वे निरंतर प्रौढ़ता देते जा रहे हैं जो उनकी ही पीढ़ी के कई कवियों से संभव नहीं हुआ!

    इन अच्छी विरल कविताओं के लिए उनको बधाई!

    ReplyDelete
  24. अनामिका28 July 2025 at 10:19

    आपकी कविताएं मेरे आंगन का मणिदीप हैं।सीधा दिल में उतर आती हैं।

    ReplyDelete
  25. जयप्रकाश29 July 2025 at 02:56

    कविताएँ पढ़ ली थीं। बहुत पसंद आईं। मर्मस्पर्शी बिम्बों की अप्रतिम कविताएँ हैं। आपकी मान्य कवि-छवि के अनुकूल लेकिन संवेदना की गहराई और उसके परिसर का विस्तार करने वाली कविताएँ हैं। आपको पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है।

    ReplyDelete
  26. एकांत श्रीवास्तव, इस समय उन थोड़े से कवियों में से हैं जो कविता में मार्मिकता करुणा को महत्व देते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण जो मैं देख पाता हूँ -वह है जीवन प्रकृति से उनका अविभाज्य सम्बन्ध।ये कविताएं कृत्रिमता के मोह से निकलकर जीवन के हुलास को, अवसाद को, धूप को ,बरसात को गले लगाती हैं।ये कविताएं जीवन की तरह स्वाभाविक मगर प्रकृति की तरह नित्य लगती हैं। इन कविताओं के लिए कवि को बहुत बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  27. उषा राय30 July 2025 at 17:05

    आहा कितनी सुंदर भीगी- भीगी कविताएँ। किस तरह की लयात्मकता है। सीधे मन में चलने लगती हैं। कई बार पढ़ने का मन करता है।
    धन्यवाद। शुभ प्रभात 🌹🌿

    ReplyDelete
  28. नवल शुक्ल31 July 2025 at 04:36

    सभी कविताएं बहुत अच्छी हैं।
    बिलकुल तुम्हारा स्वर।

    ReplyDelete
  29. एकांत जी की कविताएं वर्षों से पढ़ता रहा हूँ। वाकई आपमें सहज सरल शब्दों में अद्भुत कुछ कह देने की क्षमता है। कोमल भावनाएं मन में भर जाती हैं। ठीक ही कहा है किसी ने, जेल में बंद हर आतंकवादियों और अपराधियों को कविताएं पढ़वानी चाहिए। इससे उसमें अपराध की प्रवृत्ति बदल जाती है।

    ReplyDelete
  30. विमल कुमार3 August 2025 at 03:20

    आपकी कविताएं आपकी तरह ही निष्कपट हैं।आपकी इन कविताओं से ईर्ष्या भी होती है।आपने अपनी संवेदना मार्मिकता और बिंब धर्मिता को अभी भी बचाये रखा है।इन कविताओं को पढ़कर उस एकांत की याद आती है जो पहली बार 33 साल पहले भोपाल में मिले।एकांत की कविता ने हिंदी कविता को नया रंग और नयी खुशबू दी है भले ही यह दुनिया बहुत बदल गयी है।

    ReplyDelete
  31. विजय कुमार3 August 2025 at 03:21

    आपकी सतत रचनाशीलता बहुत प्रेरक है।

    ReplyDelete
  32. संजय जायसवाल4 August 2025 at 07:50

    बहुत सुचिंतित और तथ्यपूर्ण कविताएं। संस्कृति और सभ्यता के द्वंद्व के बीच मानवीय मूल्यों की पक्षधरता के प्रति आपका यह आग्रह अनुकरणीय है।

    ReplyDelete
  33. संजय शाम10 August 2025 at 09:43

    अत्यंत आत्मीय आपकी भावभूमि की होकर भी अलहदा वाह । मैं आज इस कविता को फिर से पढ़ा अभिभूत हो गया। 👌👌👌👌

    ReplyDelete
  34. वरुण कुमार15 August 2025 at 03:14

    सामान्य प्रकृत जीवन के बीच से अपनी कविताओं के बिम्ब एकांत जी उठाते हैं और बिल्कुल संवेद्य अनुभव बुनते हैं। कई पंक्तियांँ याद रह जाने लायक हैं, जैसे :
    "अपने ही मन से, जीवन से,
    संसार से
    रूठकर चला जाऊंगा
    नहीं आने के लिए कहकर
    और फिर आ जाऊंगा।"

    या फिर :

    "दिन के उजले दर्पण पर
    फैल गई है सांँझ की स्याही
    तारों के पारिजात-फूलों से
    आकाश का कटोरा
    भर गया है।"

    कविता में विचार का तत्व हो या प्रकृति के अवलोकन का, या सहज अनुभव को ही व्यक्त करने का, एकांत सभी जगह सफलता से हाथ आजमाते हैं।

    ReplyDelete
  35. *माँ और चेरी का फल* और *नहीं आने को कहकर* इन दोनों कविताओं में जो रिश्तों की कसावट है, जो विश्वास है, जो आत्मीयता और अपनापन है , उससे में खूब जुड़ता हूँ। सभी कविताएँ बेहतरीन🙏

    ReplyDelete
  36. छगन लाल सोनी17 August 2025 at 03:44

    बेहतरीन रचनाएँ
    हर रचना में नयापन और फूल पान की बात है

    ReplyDelete
  37. मांघी लाल यादव17 August 2025 at 03:46

    आपकी कविताएं मेरा मन मोह लेती हैं, उनमें से यह भी हैं बिल्कुल दिल के करीब।

    ReplyDelete
  38. दिनों बाद आपकी कविताएँ पढ़कर बड़ी ख़ुशी मिली. अस्सी और नब्बे के दशक के वे दिन याद आ गए जब आपकी कविताएँ देशबंधु के अवकाश अंक में छपतीं और घर पर पिताजी उन कविताओं का पाठ करते जिन्हें माँ और मैं मुग्ध भाव से सुनते... इन कविताओं में भी वही टटके बिम्बों और प्रतिकों में वही ताज़गी और आत्मीय भाव महसूस हुआ जो उन दिनों महसूस होता था. माँ और चेरी का फल, और नहीं आने को कहकर और जोड़ा तालाब कविताएँ बहुत अच्छी लगीं.

    ReplyDelete
  39. भास्कर चौधरी19 August 2025 at 07:51

    दिनों बाद आपकी कविताएँ पढ़कर बड़ी ख़ुशी मिली. अस्सी और नब्बे के दशक के वे दिन याद आ गए जब आपकी कविताएँ देशबंधु के अवकाश अंक में छपतीं और घर पर पिताजी उन कविताओं का पाठ करते जिन्हें माँ और मैं मुग्ध भाव से सुनते... इन कविताओं में शामिल टटके बिम्बों और प्रतीकों में वही ताज़गी और आत्मीय भाव महसूस हुआ जो उन दिनों महसूस होता था. माँ और चेरी का फल, और नहीं आने को कहकर और जोड़ा तालाब कविताएँ बहुत अच्छी लगीं.
    🌹🌹

    ReplyDelete
  40. शाजी के. (केरल)21 August 2025 at 06:33

    कविता "आखिरी बस "कुछ झकझोर सी गई। आखिरी बस की दौड़ती हेडलाइट - उम्र भर की लंबी अधूरी तलाश- जो अप्रकाशित ही रही - ऐसी नियती उसकी।सच्चा प्यार आसमान की डगालियां में छुपा है अमर फल जैसा। या फिर निर्जन, दुर्गम समुद्र तटों पर - अथाह गहराई में - सीप के कंठ का सच्चा मोती - निरंतर अगम्य, अबूझ और पहुंच के बाहर।
    और यह यात्रा है वापसी की,आखिरी बस में बैठकर।
    कविता "मां और चेरी का फल" पढ़कर महाश्वेता देवी की "हजार चौरासी की मां" याद आती है,याद आता है उसका कभी न खत्म होता इंतज़ार।
    कविता "न आने के लिए कहकर " से
    खुद को संबंधित पाता हूं।
    आपकी कविताएं सादगी भरी हैं मगर अथाह निगूढ़ता की परतों में लिपटी हैं- जैसे किसी रहस्य के आवरण में ढंकी हुईं, खुलकर भी पूरा न खुलती हुईं.....

    ReplyDelete
  41. रमेश चंद्र मिश्र22 August 2025 at 02:43

    बहुत अच्छी कविताएं हैं। क्या कहूं, इन्हें पढ़कर हृदय के तार झंकृत हो उठे।प्रकृति के उपादानों से जैसे आपने कविता रूपी माला पिरो दी हो और वह (काव्य) मानव हृदय का संगीत बन गया हो।

    ReplyDelete
  42. दिव्या माथुर22 August 2025 at 02:44

    आपकी कविता "आखिरी बस " बहुत अच्छी लगी।
    - दिव्या माथुर, लंदन

    ReplyDelete
  43. बहुत सहजता व सशक्त अभिव्यक्ति। सभी कविताओं की अंतिम पंक्तियां ठिठक कर सोचने को विवश कर देती। हम इन पंक्तियों के प्रभाव से तुरंत निकल नहीं पाते।

    हर समय दुखता रहता है यह जो जीवन

    हर समय टूटता रहता है यह जो मन

    अपने ही मन से, जीवन से

    संसार से

    रूठ कर चला जाऊंगा

    नहीं आने के लिए कह कर



    और फिर आ जाऊंगा।

    ReplyDelete
  44. एक अच्छी कविता अपनी अनुठी शैली लिये जिनमें जिंदगी और.प्रकृति की प्रतीक लिये अपनी.बात रखी है। एकाँत.अपने साहित्यिक उच्चतम शिखर लिये.है फिर बिना लागलपेट की बातें कह देते है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं

प्रभात की कविताएं