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निरंजन श्रोत्रिय की कविताएं

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                                  निरंजन श्रोत्रिय   निरंजन श्रोत्रिय की कविताओं को अगर संपूर्णता में देखें तो उनकी कविताओं में जीवन की जद्दोजहद और स्वप्न तो है ही।अपने समय के क्रूर यथार्थ पर भी उनकी गहरी नज़र है।वे एक बादशाह को तानाशाह में बदलते देखते हैं तो भौंचक नहीं रह जाते बल्कि उसे कविता में दर्ज करते हैं।उनकी कविताओं में  अलग तरह की बेचैनी है जो हर चीज़ को बारीकी से देखने के लिए मजबूर करती है।यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं कि कविता कैसे बने बनाए मुहावरों से अलग भी लिखी जा सकती है और अपनी छाप छोड़ सकती है। अंतर बताओ जब भी खोलता हूँ बच्चों का पन्ना अख़बार में एक स्तम्भ पाता हूँ स्थायी भाव की तरह— अंतर बताओ! दो चित्र हैं हू-ब- हू कि बच्चे पार्क में खेल रहे या स्कूल में मचा रहे धमा-चौकड़ी या सर्कस का कोई दृश्य दस अंतर बताने हैं बच्चों को क्यूँकि दिखते एक-से, मगर हैं नहीं बच्चे जुट जाते हैं अंतर ढूँढने जितने ज़्यादा अंतर उतने अधिक बुद्धिमान! उस समय जबकि समानता ढूँढना बेहद ज़रूरी है बच्चे ...

सविता सिंह की दस कविताएं

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  सविता सिंह  समकालीन हिंदी कविता में जिन कवियों की पहचान उनकी कविताओं से आसानी से की जा सकती है उनमें सविता सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।उनकी कविताएं भाषा के स्तर पर जितनी कोमल दिखती हैं भाव और भंगिमा के स्तर पर उतनी ही वे ठोस होती हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं। जिधर स्वप्न है  जिधर स्वप्न है उधर ही प्यास है उधर एक खाली मैदान है पथरीला  कहते हैं उधर पहले घास का साम्राज्य था उसमें रहने वाले जीवों का एक बार आसमान से ढेर सारा जल उतरा महीनों हरियाली को खुद में डुबोए रखा फिर उसे नष्ट कर दिया जीवन की प्यास बची रही उसे ही समझने तमाम जीवों ने फिर जन्म लिया तब से वे अब तक ऐसे ही हैं प्यासे गला सूखा हुआ स्वप्न जगा चलता हुआ। विकट इच्छा उड़ती हुई सी एक प्यास आकर गले में बस गई वह महज पानी के लिए नहीं आई थी मेरे पास उसे पता था मुक्ति का  कोई एक रास्ता मुझसे होकर जाता है वह मेरे साथ ही चलना चाहती थी पानी ढूंढना मेरा काम था उसे तो बस चलना था  दग्ध मेरी आत्मा के साथ उसे अंदाजा कहां था उन कंकड़ों पत्थरों का  जो रास्ते में आने वाले थे उसे मेरी दूसरी...

विष्णु नागर की कविताएं

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                                      विष्णु नागर   विष्णु नागर की कविताओं में जो व्यंग्य है वह बेध देता है।इनमें हमारे समय का वह यथार्थ है जो विद्रूप है और विह्वल करने वाला है।उनकी यह शैली गद्य में भी उतनी ही मारक है जितनी कविता में।ये कविताएं इसका उदाहरण हैं कि कैसे व्यंग्य का इस्तेमाल कर कविता को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। दलाल  दलाल कभी ग़लत नहीं होते वे खरीदनेवाले के भी  शुभचिंतक होते हैं बेचनेवाले के भी वे सकारात्मक होते हैं  वे काले को भी उतना ही अच्छा बताते हैं  जितना सफेद को पीले, नीले, हरे, गुलाबी के भी वे प्रशंसक होते हैं  वे दोनों से अंतरंग होकर दोनों की हिम्मत बढ़ाते हैं  दोनों से कमाते हुए  दोनों को सुखी -समृद्ध देखना चाहते हैं  दलाल कभी विफल नहीं होते दलाल कभी ग़लत नहीं होते हवा पानी रोशनी से भी ज्यादा  जरूरी होते हैं दलाल। समय कल पत्ते भी जिनकी इजाजत से हिलते थे आज जंगल के जंगल उजड़ जाते हैं उन्हें खबर तक नहीं होती। कवि की मुश...

बसंत त्रिपाठी की कविताएं

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  बसंत त्रिपाठी   बसंत त्रिपाठी की कविताओं में हाल के वर्षों का वह यथार्थ बेचैन करता है जो दिखता तो है लेकिन उसके दिखने का इतना अभ्यास करा दिया गया है कि वह निर्मम और खुरदरा होने के बावजूद बहुत असर नहीं करता।विकास के तमाम उपाय चमक-दमक की जमीन तैयार कर रहे हैं लेकिन उस चमक की नींव में जो दब रहा है वह भविष्य की राख है।ये कविताएं उसी 'अनामंत्रित अंधेरे' के बाद की कविताएं हैं जिसने धीरे-धीरे सबकुछ अपने नियंत्रण में ले लिया है या लेने के लिए प्रयासरत है।   पहाड़ से लौटकर पहाड़ से लौटा हूँ  बुरुँश, बाँज और देवदारु के जंगल से  फेफड़ों में ऑक्सीजन भरकर लौटा हूँ  लौटा हूँ बहुत नीला आसमान देखकर  पारदर्शी जल को तेज बहते देखकर लौटा हूँ  टूरिस्ट पैकेज को फाइव स्टार रेटिंग देकर लौटा हूँ  लेकिन जब से लौटा हूँ  उदास हूँ, दरक रहा हूँ कि हाय  एक दिन बाँज के जंगल नहीं रहेंगे  आसमान मैदानी आसमानों की तरह धूसर हो जाएगा  पारदर्शी नदियाँ  मटमैले नालों की तरह बहेंगी  क्योंकि पहाड़ से सिर्फ लौटा नहीं हूँ  अबाध निर्माण की विध्वंसक कार्रव...

अनुराधा सिंह की कविताएं

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  अनुराधा सिंह  अनुराधा सिंह अपनी कविताओं में समय और समाज के साथ स्त्री जीवन और उसकी विडंबनाओं को बहुत मार्मिक तरीके से दर्ज करती हैं।इस दर्ज करने में उनकी भाषा जादू की तरह असर करती हैं।यही कारण है कि ये कविताएं अपनी बुनावट में बहुत महीन और गझिन हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं। विरासत  दुनिया में हवा पानी कम   बालकनी में धूप कम   गमलों में मिट्टी गुज़ारे लायक  मुझे कम के पक्ष में खड़े रहना पड़ा है अब तक  जानती भी हूँ कि कम से  बहुत अधिक नहीं चला पाऊँगी मैं काम  लज्जा और लिहाज़ तो होने ही चाहिए आँख ढँकने लायक  भले ही उघड़ी रहे आत्मा  फिर कुछ तो छोड़ कर भी जाना है मुझे  बच्चों की ख़ातिर पुरखों की इस ज़मीन पर  विरासत जैसा महान विचार नहीं मेरा   एक बेटी है  जो रहेगी बची पृथ्वी पर मेरे बाद भी   मंदिर की महंत नहीं जो दान पेटी की चाबी डोरी छोड़ जाऊँ सात पीढ़ी बैठ कर खाएं ऐसा उद्यम नहीं नीयत में  खून में हुनर नहीं कि गा बजाकर लोक ही निभाएँ   घर के मर्द जुटे रहे दो जून की जुगाड़ मे...

नीलेश रघुवंशी की कविताएं

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                                    नीलेश रघुवंशी   नीलेश रघुवंशी की कविताएं अपनी कहन शैली,विषय वस्तु और भंगिमा के कारण समकालीन कविता में एक अलग स्थान बना चुकी हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं। नीलेश रघुवंशी की कविताओं में स्त्री कविता का एक ऐसा मुहावरा है जो स्त्री के स्वप्न और संघर्ष को रेखांकित भी करता है तो उसमें दीनता का भाव नहीं है।यहां गर्व और आत्मविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हैं। साँकल कितने दिन हुए किसी रैली जुलूस में शामिल हुए बिना  दिन कितने हुए  किसी जुल्म जोर जबरदस्ती के खिलाफ नहीं लगाया कोई नारा  हुए दिन कितने नहीं बैठी धरने पर  किसी सत्याग्रह, पदयात्रा में नहीं चली जाने कितने दिनों से ‘कैंडल लाईट मार्च’ में तो शामिल नहीं हुई आज तक  तो क्या सब कुछ ठीक हो गया है अब ?  इन दिनों क्या करना चाहिए  ऐसी ही आवाज़ों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखना चाहिए  ‘चुप’ लगाकर घर में बैठे रहना चाहिए  या इतनी जोर से हुंकार भरना चाहिए कि निर्लज्जता से डकार...

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं

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  प्रेम रंजन अनिमेष   यहां प्रस्तुत प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं स्त्री जीवन के द्वंद्व और दुःख को एक नए कोण से उभारती हैं।ये एक तरह से शोक गीत हैं जिन्हें पढ़ते हुए विह्वल हुए बिना नहीं रहा जा सकता। अनिमेष की कविताएं ऐसी ही होती हैं। दुख का पता                                                    वह उस स्त्री को नहीं जानता था उसकी देह को जानता था उसकी देह को जानता था वह पर उसके दुख को नहीं  फिर अपने दुख से  पहचानने लगा थोड़ा थोड़ा  लक्षण उस पीड़ा के मगर हाथ रखता वहाँ  तो छिटक कर दूसरी ओर दुख किलकता किसी बच्चे सा जब तक वह बताती कि दुख है पूरी देह ही आत्मा उसकी जा चुकी थी देह से परे चिता में झोंक दिया उसने उसे परिजनों मित्रों ने सांत्वना में  हाथ रखा पीठ पर कंधे पर आखिर वह थी उसकी  सहचरी सहधर्मिणी  उसने राहत की साँस ली कि देह के साथ  भस्म हो गया होगा  दुख भी उसका उसे पता नहीं था कि बदलता रहता दुख अपना पता.. ....