अनुराधा सिंह की कविताएं
विरासत
दुनिया में हवा पानी कम
बालकनी में धूप कम
गमलों में मिट्टी गुज़ारे लायक
मुझे कम के पक्ष में खड़े रहना पड़ा है अब तक
जानती भी हूँ कि कम से
बहुत अधिक नहीं चला पाऊँगी मैं काम
लज्जा और लिहाज़ तो होने ही चाहिए
आँख ढँकने लायक
भले ही उघड़ी रहे आत्मा
फिर कुछ तो छोड़ कर भी जाना है मुझे
बच्चों की ख़ातिर पुरखों की इस ज़मीन पर
विरासत जैसा महान विचार नहीं मेरा
एक बेटी है
जो रहेगी बची पृथ्वी पर मेरे बाद भी
मंदिर की महंत नहीं जो दान पेटी की चाबी डोरी छोड़ जाऊँ
सात पीढ़ी बैठ कर खाएं ऐसा उद्यम नहीं नीयत में
खून में हुनर नहीं कि गा बजाकर लोक ही निभाएँ
घर के मर्द जुटे रहे दो जून की जुगाड़ में जीते जी
कभी कभी औरतें भी भिड़ गयीं रोज़नदारी में
इधर हमने निगल ली है हर पचाई जा सकने वाली चीज़
लकड़ी कोयला हवा पानी की बात नहीं
भाषा को खा रहे हैं
कितने ही शब्द हड़प गए, कितने क़तर ओछे कर दिए
जो कहीं का रास्ता भी पूछे यह लड़की किसी से
तो कम से कम एक हिफ़ाज़ती शब्द तो यह ओट दे
कि वह धरती की लुप्तप्राय प्राणी है .
मेरे भी दो ही हाथ हैं सबकी तरह
कितना सँवारूँ अपना आज कि बिगड़े नहीं उसका कल
कितनी छोड़ जाऊँ यह पृथ्वी उसके लिए
जो बिना धक्का खाए खड़ी हो सके एक जगह।
वहाँ जाना तो है
एक ट्रेन जो चलती थी सही समय
सवा तीन घंटे देरी से आ खड़ी हुई है प्लैटफ़ार्म पर
लोग हैरान परेशान हैं
बस मैं ही चल रही हूँ उसकी ओर अविकल
कि वहाँ जाना तो है पर जाने की जल्दी नहीं है
जिस शहर में अब माँ नहीं है
बहुत शहरों में बहुत कुछ नहीं होता
बने रहें वे भी, भला मैं कर क्या सकती हूँ
मुझे भी तो वहीं जाना है
उसी शहर का टिकट है
जहाँ अब माँ नहीं है
समुंदर के ऊष्ण शहर से आ रही है मेरी गाड़ी
और ठंडा होने लगा है यह मैदानी शहर सुबह शाम
ऊनी कपड़े दो ही चार हैं मेरे पास
किससे पूछूँ
कि उसकी भस्म हुई देह से विकरित ऊष्मा
स्टेशन पर उतरते ही ठिठुरने से बचा सकती है क्या मुझे
वह पहाड़ वहीं खड़ा है
वह नदी चलती ही जा रही है
सरसों सी कुछ चमक रही है विरल वृक्षों की आड़ से
बुंदेलखंड गुज़र रहा है यहीं ट्रेन के आसपास
जहाँ से भादों गुज़र चुका है दो महीने पहले
सूखा नहीं अब भी हरा है उनका रास्ता
पर किसे बताऊँ उसके रास्ते के ये हाल
कैसे बढ़ाऊँ उसी नम्बर की ओर उंगली
जिसके पीछे माँ की आवाज़ नहीं है
वह पहाड़ रहे आयुष्मान
वह नदी रहे अशेष
बुंदेलखंड भी बना रहे जहाँ था हमेशा
भादों आए और रहे हर साल हरा
सरसों रहे फूलती विरल या सघन वृक्षों की ओट में
भले तुम ही न रहो बस अपने ठियाँ अम्मा
तुम्हारी ओर जाता रास्ता बना रहे
और कुछ ऐसा करो कि
कोई सुनता रहे तुम्हारे नंबर पर
तुम्हारे रास्ते के सब हाल ।
रसोई
रसोई में अलमारियों के पल्ले
ठीक मेरे सिर की ऊँचाई पर लगे हैं
कोई बेध्यानी में खुला छोड़ दे
तो उनका तीखा कोना
बेध देता है मेरे ज़हन को
मुझे याद नहीं किस रोज़ मैंने खोल दिये थे
अपने दिल के दरवाज़े तुम्हारे लिए
अब, मेरी आत्मा तार- तार हो जाती है
जब तुम बेध्यानी में खुला छोड़ जाते हो इन्हें
हमारी रसोई की अलमारियों में
यह ऊपर वाला खन
किसने बनाया होगा
किसने सोचा होगा कि दाल और चीनी भी
इतनी ऊँचाई पर रखे जा सकते है
किसने तय किया होगा कि वे मामूली चीज़ें भी
हमारी पहुँच से बाहर रखी जायें
जिन्हें पाकर ज़रूरतों
और विलासिताओं के फ़र्क़ से
लगातार चलनेवाली हमारी लड़ाई
ज़रा छोटी हो जाती है
दुनिया ने सबसे अधिक हथियार औरत को दिये
बस इस्तेमाल के तरीके अपने हक़ में कर लिए
हम अलग- अलग चाकुओं से
गोश्त मिर्ची टमाटर कटहल और आलू
काटती रहीं
हम अलग- अलग बहानों से ज़िबह होती रहीं
रसोईघरों प्रायद्वीपों महाद्वीपों में
अपनी लड़ाई में कब थी ज़रूरत
हमें तुम्हारी धार और लोहे की
दाँतों से ही काट लेती थीं
हम उधड़े कपड़ों और ज़ख्मों के धागे
ग़ुलाबी नाखूनों से छील लेती थीं
भभकते गर्म आलू और
खींच लेती थीं अपनी आत्मा के
चाक तलवों से सख्तजान कांटे
फिर भी तमाम असलहे
हमारी ही आग के एन नीचे
रसोई की दराज़ों में सहजाये गए
फिर भी हमारी आग जला पायी बस लोगों की भूख
वासना और थर्ड डिग्री तक अपनी देह
फिर भी हमारे चाकू काट पाए बस गोश्त सब्जियाँ
और कभी- कभी अपनी बाईं कलाई की एक नस, मसलेहतन।
रसोई से लिखने की मेज
साढ़े छह योजन दूर है
जाते हुए नहीं लगता
एक भी क्षण
मेज तक लौटने में
उम्र बीत जाती है।
चलो, न लौटें अब
उतनी ही जाऊँ
कि एक खींच में लौट सकूँ
उतनी ही लौटूँ
कि फिर- फिर आने का कौल न हो
दुआ करो
कि लौट सकना बहानों से बिद्ध हो
मसलन राह भूल जाऊँ मैं अपनी ही देह तक जाने की
चप्पलें घिस जाएँ जो कभी थीं नहीं मेरे तलवों पर
एक अथाह नदी बहने लगे अचानक हमारे बीच
और नाव न बनायें
मेरे पार के लोग
चलो, न लौटें अब और
तुम्हारी ओर प्रस्थान के लिए
दूरियों में डुबाऊँ पाँव
सिहरूँ, रुक जाऊँ
रोज़ कल पर टालूँ
रोज़ यह भूल जाऊँ
कि आज
उसी कल को होना था
जिस कल में मिलना तय है हमारा
यह जिसमें गैरहाजिर हो तुम
अपने इसी क्षण में खड़े होकर
देखूँ तुम्हारे उस निमिष को
जहाँ उपस्थित नहीं अब मैं
आओ तय करें कि हम हैं अकेले
आओ तय करें कि होना भर नहीं था प्रेम
तय करें कि न होना प्रेम है कितना।
उसे व्यर्थ होते देख रही थी
उसने बताया कि अक्सर मेरी कविता
फ़लाँ पत्रिका में पढ़ता रहता है
मैं हँसी बाआवाज़
यूँ कि आँख में पानी आ गया
कितना अच्छा है कवि होना
कितना सुंदर, स्त्री होना
वह खुश हुआ
उसे मेरे मन के चोर दरवाजे की
आसान चाबी
मिल गयी थी
मैं जो हँस देती हूँ अपनी कविताएँ
पढ़े़ भर से
कल्पना में देख रही थी उसे
अपनी कविता उस पत्रिका में
पढ़ते हुए
जिसमें वह छपी नहीं थी
मैं उसे खा़मख्वाह होते देख रही थी
मोम होते देख रही थी
पिघलते देख रही थी
फिर जमते और पत्थर होते देख रही थी
मैं उसे व्यर्थ होते देख रही थी
और हँस रही थी.....
अव्यक्त
कह रहे थे
तुम अपने प्रेम की गाथा
पूरे उद्वेग , पीड़ा और सुख के साथ
सुन रही थी मैं
एक साधक सी
उदार
तल्लीन
निचले होंठ मे दाबे
अपना पूरा प्रेम,
सुख, पीड़ा
और एक सिसकी।
डरो
डरो जब वह तुम पर से हटा ले
अपना हाथ धीरे से
डरो उस दिन से
जब कोई उलाहना बाकी न रहे
लहजे और ख़तों में
छोड़ दे वह सारी तितलियाँ एक साथ
एक मक़बरे के उजाड़ में
लौट आए फ़कीर सी खाली हाथ
अलमस्त
तुम्हें बार बार गुम जाने की आदत है
डरो
जब वह न डरे एक शाम
तुम्हारे घर न लौटने से
कभी नहीं डरे तुम
उसकी बेख़्वाब करवटों से
पर डरना
जब तुम्हारी रात के
दोनों तरफ दीवार हो
और खिड़की पर टंगी हो
उसकी उखड़ी हुई नींद ।
अनुराधा सिंह
जन्म 16अगस्त 1971 को ओबरा जलविद्युत पावर प्लांट, उत्तरप्रदेश में हुआ।
इनकी शिक्षा दयालबाग शिक्षण संस्थान आगरा में हुई । इन्होंने मनोविज्ञान और अंग्रेजी साहित्य में स्नात्तकोत्तर किया है।
कुछ समय तक केन्द्रीय विद्यालय, भोपाल और गुना में अध्यापन कार्य किया।
’क्वांटम कांसेप्ट्स एण्ड सोल्यूशन’ नामक संस्था का संचालन।
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविता और अनुवाद कार्य प्रकाशित।
‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ और उत्सव का पुष्प नहीं हूँ (कविता संग्रह) तथा 'ल्हासा का लहू' और 'बचा रहे स्पर्श' आदि पुस्तकें प्रकाशित.
शीला सिद्धान्तकर सम्मान (2019) हेमन्त स्मृति सम्मान (2020) और केदार सम्मान (2024) से सम्मानित।
ईमेल : anuradhadei@yahoo.co.in






बहुत अच्छी कविताएं ।
ReplyDeleteअच्छी कविताओं की उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteस्वप्निल श्रीवास्तव
ReplyDeleteनरेश चन्द्रकर
यह अनुराधा जी की बहुत बढ़िया कविताएं लगी मुझे । दुनिया में हवा पानी कम, बालकनी में धूप कम के संदर्भ से शुरू हुई कविता अपने सम्पूर्ण स्वरूप में एक विशाल संदर्भ खोल रही है।
स्त्री-सामर्थ्य और उसके महत्व को सामान्य जीवन-कार्य कलाओं में रखकर देखने की अद्भुत क्षमता इन कविताओं में नजर आती है। अनुराधा जी इन कविताओं में सामान्य संदर्भों में प्रवेश करते हुए भी असामान्य अर्थ दे जाती है । अनूठी शैली।
अभिनंदन कवि अनुराधा।
9:51 pm
बेहद शानदार कविताएँ ।
ReplyDeleteकम के पक्ष में खड़ा होना 👌👌