संजय कुंदन की कविताएं

                                   संजय कुंदन 

समकालीन कविता के एक महत्वपूर्ण कवि हैं संजय कुंदन।उनकी कविताओं में जो समय और समाज है वह हमारे ही आसपास का है और बहुत मजबूती से उपस्थित है।सत्ता,पूंजी,वर्चस्व और राजनीति के गठजोड़ की तह तक उनकी कविताएं ले जाती हैं और उसकी बखिया उधेड़ देती हैं।संजय कुंदन की कविताओं में हमारे समय का वह सच दर्ज है जो या तो आंखों से ओझल हो जाता है या उस पर ध्यान नहीं दिया जाता।बेहद मामूली विषय पर कई अविस्मरणीय कविताएं उन्होंने लिखी हैं।उनकी कविताओं में आम आदमी की पीड़ा तो है ही उनका संघर्ष भी वहां मौजूद है।अपने समय की विडंबनाओं को रचने का उनका तरीका बिल्कुल अलग है और प्रभावशाली भी।



सड़क


एक बीमार या नज़रबंद आदमी ही जानता है 

सड़क पर न निकल पाने का दर्द 

सड़कों से दूर रहना

हवा, पानी, धूप 

और चिड़ियों से अलग 

रहना ही नहीं है

यह मनुष्यता से भी कट जाना है


सड़कें कोलतार की चादरें नहीं हैं

वे सभ्यता का बायस्कोप हैं 

कोई इंसान आख़िर एक मशीन से 

कब तक दिल बहलाए 

कब तक तस्वीरों में ख़ुद को फँसाए

ज़िंदगी की हरक़तें देखे बग़ैर 

हमारी रगों में लहू थकने लगता है

सूखने लगता है आँखों का पानी


मनुष्य को मनुष्य की तरह जीते 

देखने के लिए 

ललकता है मन 

इसलिए हम उतरते हैं सड़क पर

सिर्फ़ परिचितों के लिए नहीं 

अपरिचितों के लिए भी 


अच्छा लगता है 

सड़क पर लोगों को देखना 

किसी को कहीं से आते हुए, 

किसी को दूर जाते हुए

कोई थका-हारा 

कोई हरा-हरा

कोई प्रतीक्षा की आँच में पकता 

कोई किसी से मिलकर चहकता

कोई ख़रीदारी करते हुए

कोई बाज़ार को चिढ़ाते हुए  

घर से सड़क और सड़क से घर आना 

पृथ्वी के घूर्णन की तरह 

हमारी गति है। 




जब नींद नहीं आती  


जब घंटों नींद नहीं आती तो 

लगता है मैं सदियों से जगा हुआ हूं

जब कभी बीतेगी रात मैं गिरूंगा 

किसी खंडहर की ईंट की तरह बाहर

या निकलूंगा किसी महाकाव्य के एक पन्ने की तरह फड़फड़ता हुआ

दुनिया बहुत आगे निकल चुकी होगी 

सोचकर डर जाता हूं कि 

मैं किस भाषा में 

एक आदमी से पूछूंगा – आज सोमवार है या मंगलवार 


किसी रात को लगता है  

मैं अपनी देह छोड़  

एक अंधेरे बियाबान में निकल पड़ा हूं

बस एक कुत्ता जो लगातार भौंके जा रहा 

चल रहा साथ मेरी यात्रा में 


किसी रात लगता है मैं पीछे भाग रहा हूं अपनी उम्र में 

थोड़ा हल्का होता जा रहा हूं

मेरे ऊपर से उतरती जा रही चिंताएं, समझदारी और रणनीतियां 

मैं एक बहुत पुरानी तारीख़ की खिड़की में कूद जाऊंगा 

वहां एक कमरे में कबाड़ के बीच पड़ी 

एक नन्ही साइकिल से धूल साफ़ करूंगा

फिर निकल

पडूंगा टुनटुनाते हुए । 




पक्षियों का लौटना


पक्षियों का लौटना

हमारी तरह नहीं होता

कि काम ख़तम पैसा हजम

ये नहीं कि गोली की तरह दग गए


वे बेचैन नहीं भागते

पिंड छुड़ाकर एक-दूसरे से

दाना-पानी का काम निपटाकर

वे लौटते हैं फ़ुर्सत से

वे झुंड में लौटते हुए

कहीं ठहर जाते आकाश में


और अलग-अलग दिशाओं में

चक्कर लगाते हैं

जाना होता है दक्षिण

तो बड़ी दूर तक

पश्चिम की ओर निकल जाता है एक समूह

और फिर लहराते हुए लौटता है


अलग-अलग दिशाओं में वे चक्कर लगाते

कभी ऊपर कभी नीचे कितनी रेखाएँ खींचते

और मिटाते

वे मुक्त करते आकाश को भय से

वे याद दिलाते कि हवाई रास्तों पर

युद्धक विमानों का ही नहीं

निर्दोष परिंदों का भी अधिकार है


हर रोज़ लौटने को एक उत्सव की तरह मनाते वे

इस विश्वास के साथ

कि आना है कल भी यहीं।




युवा साथी


कई बार तुम वाचाल लगते हो

और कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध 


समझ में नहीं आता 

अपने को इतना दिखाते क्यों हो

खुद को ही पीते हो कॉफी के साथ

टॉफी की जगह चुभलाते हो अपने को ही   


तुम्हारा अभिवादन कई बार चुभता है

उसमें एक तंज़ नज़र आता है 

जब तुमने मेरी समझ पर सवाल किया तो झटका लगा

थोड़ा बुरा लगा जब तुमने बताया 

कि मेरी कविताएं अब थकने लगी हैं 


पर सुकून मिला यह जानकर 

कि तुम भी उन्हीं किताबों और 

सपनों की सोहबत में हो 

जिनसे झिलमिलाती रहती थी

हमारी तरुणाई  

  

तुम लालच की मूसलाधार बारिश में भी 

बचे हुए हो साबुत 

आततायियों के बजबजाते हुए असंख्य संस्करणों 

से घिरे हुए भी 

लड़ रहे हो अपने तरीक़े से

हमारे साझा सपनों के लिए


तुम्हें लड़ता देख

जी जुड़ा रहा है।



हृदय 


मैं एक हृदय रोगी

अपने हृदय के बारे में सोचता रहता हूं


बेचारा मुझे लादे हुआ चल रहा है 

पूरा दम लगाकर 


अब वह सिर्फ पैंतीस प्रतिशत काम लायक बचा है

पर इतना कुछ खोकर भी हारा नहीं है मेरा हमदम    


कल डॉक्टर ने मुझे दिखाया था मॉनिटर पर

नज़र आया था रक्त के छत्ते जैसा कुछ 

कांपता हुआ, एक घड़घड़ाहट के साथ

मैंने सिर झुकाया उसके सामने 


मैं उसका अपराधी हूं

मेरी लापरवाहियों और अराजकताओं की 

मार झेलता रहा है वह

अब सह रहा 

आततायियों का अट्टहास

बुरी ख़बरों का आघात 


फिर भी हांफता, अपने को खींचता, 

एक सृष्टि जो मेरे भीतर बची-खुची है

उसे थोड़ा-थोड़ा संवारता 

धड़क रहा है मेरा हृदय ।




निम्न रक्तचाप


हल्का नशा है

जो मैंने नहीं किया


चलने को होता हूं तो लगता है

अलमारियां मुझ पर गिरना चाहती हैं

मैं धीरे-धीरे फिसलने लगता हूं पीछे


शहर अपने पंख फैलाए 

मेरे सामने से जा रहा

सिर उठाकर आसमान में उसे ताकने 

के लिए मुझे रक्त की हरकत चाहिए

पर मेरा रक्त न जाने 

कहां किस तली में दुबक गया है

शायद रूठ गया है  


लगता है

शरीर का पूरा वज़न संभाल रखा है आंखों ने


कहीं से जो धुआं मेरी तरफ़ आ रहा है

वह मेरी नींद है


हालांकि थोड़ी ही देर पहले सो कर उठा हूं

और सपने में शुरू हुई पैरों की झनझनाहट 

अब भी जारी है

मेरे पैर चींटियों की बांबी हैं अभी 


मैं जैसे किसी पतंग के शरीर में हूं

और अभी-अभी कटकर गिरा हूं

लहरा रहा हूं 

जीवन और मृत्यु के बीच।


वे किनके बच्चे हैं

 

यह कैसे हो सकता है कि 

मैं ग़ज़ा के बच्चों की बात न करूं 

मुंह में रेत भरकर खाना मांगते 

एक लड़के के बारे में कुछ न कहूं

और अपनी छोटी बहन को कंधे पर लादकर भागती हुई

एक लड़की की चर्चा न करूं 


मुझे ग़ज़ा की विस्थापित लड़कियों  

या एक दलाल के साथ काम की तलाश में दिल्ली जा रही 

बंगाल और झारखंड की लड़कियों की आंखों में एक सी कातरता दिखी

मुझे मुजफ्फरपुर शेल्टर होम और बोको हराम की क़ैद से 

एक जैसा ही क्रंदन सुनाई पड़ा   


ग़ज़ा के बच्चों की बात करने का मतलब यह नहीं कि

कि मैं जालौर, राजस्थान के बच्चे 

इंद्र कुमार मेघवाल को भूल गया

जो अपने ही शिक्षक के हाथों मारा गया  

उसके घड़े से पानी पी लेने के कारण 


जो कहते हैं फिलिस्तीन पर बात मत करो

वे इंद्र कुमार मेघवाल की हत्या को हत्या नहीं मानते

वे ग़ज़ा में हज़ारों बच्चों की हत्या को भी 

हत्या नहीं मानते


जब मैं मध्य प्रदेश और बिहार से 

हर साल लापता हो जाने वाले 

हज़ारों बच्चों के बारे में सोचता हूं 

मुझे अपने चारों ओर कई फिलिस्तीन 

दिखाई देते हैं 


बच्चों का गायब होना कोई मुद्दा नहीं है

सरकारी स्कूलों का बंद होते जाना कोई मुद्दा नहीं है

एक मासूम का मज़दूरी करना कोई मुद्दा नहीं है 

मुद्दा बस यह है कि ग़ज़ा के बच्चों पर बात न हो।  

(बोको हरामः नाइजीरिया का आतंकी संगठन, जिसने हज़ारों लड़कियों को अगवा किया)


फ़रीद से मुलाक़ात 


अब्बा डिप्रेशन में चले गए हैं

घर से निकलना छोड़ दिया है

अकसर कमरे में बैठे रहते हैं बिना लाइट जलाए

अम्मी रात में घबराकर उठती हैं नींद से 


बता रहा है फ़रीद 

कि अब तो ट्रेन का सफ़र बड़ा भारी लगने लगा है

पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़े रास्ते भर

डर लगता है कि कोई नाम न पूछ ले

मोबाइल पर बात करते हुए बचता हूं

कि उर्दू का कोई लफ़्ज़ न निकल जाए 

एक बार तो मेरी बहन की तबीयत ख़राब हो गई

लोगों की बातें सुन-सुनकर


मुझे समझ नहीं आया फ़रीद को क्या जवाब दूं 

सोचा उसके कंधे पर हाथ रख दूं 

और कहूं-सब ठीक हो जाएगा

पर कुछ कहते हुए नहीं बना

जी में आया मुंह ढांप लूं

या किसी बहाने खिसक लूं 


उसने ही मुझे उबार लिया

कहा-तुम्हारी कमीज़ ग़ज़ब की है

कहां से ली?


मृत्यु 


हर रात जब मैं सो रहा होता हूं 

सड़क से गुज़र रहे होते ट्रक 

लौट रहे होते बैंड वाले बारात निपटाकर

लौट रहे होते अख़बारनवीस अखबार का नगर संस्करण निकालकर

नर्सें हड़बड़ाई अस्पताल पहुंच रही होतीं नाइट ड्यूटी के लिए 

कुछ चमगादड़ इधर से उधर लहरा रहे होते, कुत्ते भौंक रहे होते


आ-जा रही होतीं रेलगाड़ियां, रेलमपेल मची रहती स्टेशन पर

खौल रही होती चाय प्लैटफॉर्म पर

किसी गली में एक दुकान का शटर तोड़ा जा रहा होता

कुछ गुप्त बैठकें हो रही होतीं किसी पांचसितारा होटल में 


एक दिन मैं और रातों की तरह सोऊंगा

फिर कभी नहीं उठूंगा

तब भी सब कुछ ऐसे ही होता रहेगा शहर में 

बस किसी-किसी दिन 

एक स्त्री को रसोई में अचानक याद आ जाएगा 

हमारे साझा क्षणों का कोई प्रसंग 

वह दौड़ी हुई आएगी कुछ बताने या कुछ पूछने हमारे कमरे में 

जहां बिस्तर पर पसरी होगी मेरी अनुपस्थिति। 




कुछ और कवि 


कविता के संसार में 

और भी हैं कई संसार  

ऐसे कवि भी होते हैं 

जो कभी किसी से नहीं कहते 

वे कवि हैं


वे एकांत में कविताएँ लिखते 

और रख देते दराज में 

अपनी गुमसुम रहने की आदत के कारण

कवि टाइप आदमी या कविजी कहे जाते 

अपने दफ़्तर में

पर नहीं बताते कि वे सचमुच कवि हैं


वे सिद्ध कवियों की तरह कभी दावा नहीं करते  

दुनिया को बदल देंगे 

पर वे किसी के दुख से परेशान हो जाते

चले जाते किसी घायल अजनबी को ख़ून देने

अपने साथियों के साथ धरने पर बैठते, जेल जाते

गवाही दे आते 


उन्हें पता ही नहीं रहता  

कविताएँ कैसे छपती हैं पत्रिकाओं में

कभी किसी का मन करता, क्यों न किताब छपाएँ

फिर ख़याल आता बेटी के लिए साइकिल 

ख़रीदना ज़्यादा ज़रूरी है   


उनमें से कोई किसी दिन एक गोष्ठी में पहुँच जाता

पर वहाँ इस्तरी किए चेहरों और

शब्दों के झाग से घबरा जाता 

भागकर आता अपनी अँधेरी दुनिया में

जहाँ उसकी कविताएँ उसका इंतज़ार कर रही होतीं। 




संजय कुंदन

जन्म : 7 दिसम्बर, 1969

पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए।

प्रकाशित कृतियां:

कागज के प्रदेश में (कविता संग्रह), चुप्पी का शोर (कविता संग्रह), योजनाओं का शहर (कविता संग्रह), तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह), बॉस की पार्टी (कहानी संग्रह), श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह), टूटने के बाद (उपन्यास), तीन ताल (उपन्यास), नेहरूः द स्टेट्समैन( नाटक), ज़ीरो माइल पटना (संस्मरण)।

कुछ नुक्कड़ नाटकों का भी लेखन। कुछ नाटकों में अभिनय और निर्देशन।

पुरस्कार/सम्मान: भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, हेमंत स्मृति सम्मान, विद्यापति पुरस्कार और बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार।

अनुवाद कार्य: आवर हिस्ट्री, देयर हिस्ट्री, हूज हिस्ट्री (रोमिला थापर), एनिमल फार्म (जॉर्ज ऑरवेल), लेटर्स ऑन सेज़ां (रिल्के), पैशन इंडिया (जेवियर मोरो) और वॉशिंगटन बुलेट्स (विजय प्रशाद) का हिंदी में अनुवाद।

रचनाएं अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, असमिया और नेपाली में अनूदित।

संप्रति: वाम प्रकाशन, नई दिल्ली में संपादक।


सभी पेंटिंग: वाज़दा ख़ान 




 

Comments

  1. नेहा नरूका14 November 2025 at 21:42

    सड़क सबसे अच्छी लगी। बीमारी, नींद, अवसाद, मृत्यु इत्यादि के बहाने मनुष्य के जीवन में सामाजिकता की जो ज़रूरत है, उसे बेहद सम्प्रेषणीय भाषा में अभिव्यक्त किया गया है इन कविताओं में। प्रभावशाली कविताएँ।

    ReplyDelete
  2. रजत सान्याल14 November 2025 at 21:43

    बेहतरीन कविताएं।

    ReplyDelete
  3. मीठेस निर्मोही14 November 2025 at 21:44

    वाह! बेहतरीन कविताएं।

    ReplyDelete
  4. सुरेश जिनागल14 November 2025 at 22:34

    अपने समकाल से टकराती और सवाल उठती कविताएं हैं।

    ReplyDelete
  5. मुकेश तिरपुड़े15 November 2025 at 00:13

    समकालीन हिंदी कविता के प्रतिष्ठित कवि वरिष्ठ साहित्यकार श्री संजय कुंदन जी कहानी और कविता दोनों के लेखन में बराबर दक्षता रखते हैं।।।
    सड़क के बारे में उनकी यह उल्लेखनीय कविता बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने सड़क के महत्व को समझाया है।।।
    सचमुच सड़क हमारी जिंदगी के लिए बहुत जरूरी है यह हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा है ।।।

    ReplyDelete
  6. सवाल करती सामाजिक सरोकार की शसक्त अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  7. अनामिका चक्रवर्ती15 November 2025 at 01:45

    बहुत सुंदर
    हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  8. ह्दय पर लिखी कविता अच्छी लगी

    ReplyDelete
  9. सभी कविताओं में कविता का एलीमेंट है.

    ReplyDelete
  10. डॉ उर्वशी15 November 2025 at 03:31



    संजय कुंदन की कविता ‘सड़क’ सड़क को केवल आवागमन का मार्ग नहीं, बल्कि मनुष्य और मनुष्यता के जीवंत स्पेस के रूप में प्रस्तुत करती है। कविता बताती है कि सड़क से दूर होना दरअसल जीवन की हलचल, समाज की धड़कन और मानवीय रिश्तों से दूर हो जाना है।

    कवि सड़क को “सभ्यता का बायस्कोप” कहकर बेहद प्रभावी तरीके से जीवन की विविध गतिविधियों, भावनाओं और संघर्षों को सामने रखता है। सड़क पर चलते लोगों के छोटे-छोटे दृश्य—थकान, खुशी, प्रतीक्षा, मिलन—सभी जीवन का सहज और सुंदर कोलाज बन जाते हैं।

    यह कविता याद दिलाती है कि सड़क मनुष्यता की सबसे खुली और सच्ची जगह है, जहाँ जीवन अपनी पूरी गतिशीलता और गर्मजोशी के साथ उपस्थित होता है।

    ReplyDelete
  11. राजेन्द्र गुप्ता15 November 2025 at 17:57

    " सडक " बढिया है. 🌹🙏

    ReplyDelete
  12. वाज़दा ख़ान19 November 2025 at 19:43

    संजय कुंदन जी की कविताएं बेहद सारगर्भित हैं। कविताएं पाठक की चेतना को झकझोरती हैं। सोचने को बाध्य करती हैं। संजय कुंदन जी की कविताएं हमेशा से मुझे पसंद रही हैं। इतनी संवेदनशील कविताएं पढ़वाने के लिए आपका शुक्रिया। पेंटिंग्स लगाने के लिए भी आपका बहुत शुक्रिया 🌹🙏🙏

    ReplyDelete
  13. हीरालाल नागर20 November 2025 at 00:24

    संजय कुंदन की सभी कविताएं मुझे अच्छी लगीं। कवि वर्तमान की लगभग सभी विसंगतियों पर नज़र रखते हैं। और धीरे-धीरे उनकी पर्ते खोलते हैं।
    वह घटना को नहीं घटना की संतापावस्था को मजबूती से गहते हैं और पाठकों के लिए कविता का बेचैनी भरा पाठ सौंप देते हैं। संजय कुंदन उन कवियों में हैं जिनको प्रगतिशील कविता की सही पहचान है।
    उन्हें बधाई और आपको भी।

    ReplyDelete
  14. मुकेश तिरपुड़े20 November 2025 at 02:20

    समकालीन हिंदी कविता के प्रतिष्ठित कवि श्री संजय कुंदन जी की महत्वपूर्ण उल्लेखनीय रचनाएं हमें अतीत की ओर अग्रसर करती हैं हमारी चेतना को सुनहरे अतीत में रोके रखने का प्रयास करती हैं श्री संजय कुंदन जी की बेहतरीन कहानियां और विचारणीय कविताएं पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।।वे गद्य और पद्य दोनों विधाओं में बराबर दक्षता रखते हैं।।।
    बहुत बहुत शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं

    ReplyDelete
  15. हरि मृदुल22 November 2025 at 04:50

    मुझे हमेशा ही संजय कुंदन की कविताओं ने आकर्षित किया है। वजह है उनकी बारीक दृष्टि। कुचक्र के विभिन्न स्वरूपों को समझने की कूवत। अपने समय से मुठभेड़ करने की तरकीब। संजय भाई के कहन का अपना ढप है। शिल्प विहीनता की ओर जाता अपना शिल्प। उन्हें इन अच्छी कविताओं के लिए बहुत बधाई।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एकांत श्रीवास्तव की कविताएं

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं

प्रभात की कविताएं