नेहा नरूका की कविताएं
नेहा नरूका
समकालीन कविता में नेहा नरूका की कविताएं अपनी भाषा,कहन शैली और तेवर के कारण शुरू से ध्यान खींचती रही हैं।अपने समय के धूसर और स्याह सच को वे जिस अंदाज में रचती हैं वह रेखांकित करने लायक है।यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं।
जैकेट कम्पनी वाली फूलवती
फूलवती एक फैक्ट्री के लिए जैकेट सिलती है
आँखें जवाब दे रही हैं उसकी
फिर भी वह देख लेती हैं अंधेरे में
खट-खट करती सुई का धागा
घण्टे भर में बना देती है
किसी अज़नबी के लिए उसकी पसंद के रंग रूप वाली सुंदर जैकेट
यूँ तो उसका बनाया जैकेट सैकड़ों अज़नबियों ने पहन रखा है
पर अजनबी अनजान हैं फूलवती के हुनर से
वे अक्सर जैकेट की तारीफ़ में किसी कम्पनी का नाम लेते हैं
जैकेट कम्पनी के नाम से बिकती है
कम्पनी का असली मालिक एक मंत्री का ख़ास है
पर काम देखने वाला मालिक कोई और है
काम देखने वाला बेर की गुठली की तरह सख़्त है
उसे वहम है
उसकी सख़्ती कम्पनी की दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी का राज है
उसे नहीं पता तरक़्क़ी का राज दरअसल फूलवती (जैसों) के हाथ में है
अजनबी असली मालिक को भी नहीं जानते
न उन्हें किसी को जानने में कोई दिलचस्पी है
उन्हें तो जैकेट से मतलब
वे फालतू चीज़ों पर अपना टाइम ख़राब नहीं करते
उनके शब्दों में कहन कुछ यूँ है-
'मैटर ये करता है कि जैकेट कितने में पड़ी
और उस पर कितना डिस्काउंट मिला ?'
ऐसे में फूलवती की कौन सोचे ?
कौन सोचे कि उसके पास जोड़ों के दर्द के इलाज़ के पैसे नहीं है
कौन सोचे कि उसका साथी दस बरस पहले रेल से कटकर मर गया था
कौन सोचे कि फूलवती पैंसठ की उम्र में मेहनत करके केवल जीवित रह पायी है
जब उसका नाम तक जैकेट पहनने वाले जानते नहीं तो उसके बारे में कोई कैसे सोचे ?
मगर सवाल यह है कि जैकेट पहनने वाले फूलवती को क्यों नहीं जानना चाहते ?
फूलवती के बगल में उर्मिला रहती है
उर्मिला औरतों के लिए पचास रुपये का ब्लाउज़ सिलती है
उर्मिला के सिले ब्लाउज़ केवल गली की औरतें पहनती हैं
पर उर्मिला को सब जानती हैं
जानती हैं तभी तो उसके द्वार पर तारीफ़ें और उलाहने आते हैं
फूलवती के यहाँ अज़नबीपन आता है
आता नहीं दरअसल कई बरसों से आकर बीमार कुत्ते की तरह बैठा है
फूलवती कुछ नहीं कहती बस उसकी विषैली लार देखती है
देखती है उसका दुर्गंध से भरा सड़ता हुआ शरीर
कभी कभी फूलवती तय नहीं कर पाती कि सड़ कौन रहा है ?
कुत्ता ? वह ख़ुद ? जैकेट ? अजनबी ? मालिक ? मंत्री का ख़ास ? मंत्री ?
या फिर सब ???
बारिश आई है
मैं घर से बाहर निकली हूँ
और बारिश आ गई है ज़ोर से
बारिश भर गई है मेरे कपड़ों में
मैं कपड़ों का भार उतार कर
थकने तक भीगना चाहती हूँ
जैसे भीगती है मोहन राकेश की मल्लिका
बहुत इंतज़ार के बाद बारिश आई है
लग रहा है जैसे ये बारिश की बूंदें नहीं
तुम्हारी अंगुलियाँ हैं
जो मुझे छू रही हैं
महीनों बाद किसी ने मुझे छुआ है
अहा! बारिश ने मुझे छुआ है!!
एक परिचित औरत
इस बारिश में बैठकर रो रही है
वह ऐसे रो रही है जैसे रोया जाता है किसी कमाऊ आदमी के मरने पर
उसने रोते हुए बताया,
बारिश में गिर गई है उसके कमरे की दीवार,
टीन की छत, अलमारियां
और परात में रोटी के लिए माड़ कर रखा आटा
भी बारिश में गिर गया है
बक्से में रखे कपड़े बिखर कर सन गये हैं कींच में
अरहर, मूँगफली, धनिये के डिब्बों में भर गया है पानी
एक डिब्बे में कुछ रुपये रखे थे उसने अपने आदमी से छिपाकर
वह डिब्बा भी बारिश में भीग गया है।
बारिश आई है उसके घर ऐसे
जैसे आया हो कोई स्थानीय गुंडा
किसी गरीब को मारने-पीटने, लूटने
और खूँटे की तरह ज़मीन में ठोकने।
वह रो रही है
और मैं हँस रही हूँ
अगर वह रो रही है तो मैं कितनी देर हँस सकती हूँ
कितनी देर महसूस कर सकती हूँ तुम्हारे अंगुलियाँ की छुअन
इसका पता भी मुझे अभी-अभी बारिश में ही चला है।
बारिश ऐसे आई है इस बार मेरे जीवन में जैसे आई हो जादू में लिपटकर कोई निर्मम वास्तविकता
न मैं ये जादू रोक पा रही हूँ
न बदल पा रही हूँ ये वास्तविकता।
दूरियां
मैं उनसे एक खेत दूर जाती हूँ
वे मुझसे दो खेत दूर चले जाते हैं
मैं फिर दो खेत दूर जाती हूँ
तब तक वे चार खेत दूर चले जाते हैं
थक हारकर मैं चार खेत दूर जाती हूँ
वे आठ खेत दूर चले जाते हैं
मैं आठ खेत दूर जाने की कोशिश में मर रही हूँ
और वे गाँव लाँघ गए
'मैं गाँव कैसे लाँघू ?' प्रश्न हल भी नहीं हुआ!
वे रेल पकड़ कर शहर आ गए
मैं भटक रही हूँ उनके शहर में
उन्हें खोजते
सब मिल रहा हैं यहाँ
कपड़ा-लत्ता, व्यंजन
घर, गाड़ियां, मनोरंजन
बस जेब में पैसे होने चाहिए
केवल वे नहीं मिल रहे
उन्होंने खोज लिए हैं और भी शहर
और भी देश
और आकाशगंगाएँ
और ब्रह्मांड
मेरी आँखें जल रही हैं उस अंतिम छोर की कल्पना से
जहाँ से नहीं जा पाएंगे वे और दूर
जहाँ नहीं रह पाएंगे हम और अपरिचित
और औपचारिक
और अज्ञात
जहाँ नहीं बचेगा 'मैं'
न बचेगा 'वे'
जहाँ न किसी को कोई पीड़ा होगी
न होगा कोई अपराधबोध
जहाँ नहीं होगा सुविधाओं की लालसा से सना कोई क्रूरतम स्वार्थ
(जहाँ से ये दूरियां शुरू हुई थीं)
जहाँ होंगी खेत की वही मेड़ें
गेहूँ की वही भूरी बालियां
सीने में धधकती वही आग
देह से छूटा वही खारा पानी।
टाइम पास
जब उन्हें बात करनी होती है
वह घण्टी घनघना देते हैं
तत्काल उनके कक्ष में उपस्थित होना होता है
वे कोई लेटर या फाइल की तरफ़ अँगुली से इशारा करते हुए कहते हैं-
बहुत अर्जेन्ट हैं
शाम तक खत्म करो
नहीं तो गिर सकती है बिजली
'इतनी जल्दी कैसे होगा सर ?'
कैसे नहीं होगा, करो। हेल्प ले लो, बताओ किसकी चाहिए हेल्प ?
वे मुँह की तरफ़् देखकर मुस्कुराते हैं
फिर हँसने लगते हैं
फिर कहते हैं बैठो
फिर गिनाने लगते हैं गुण
और गुणों के बीच में कमियों पर भी संक्षिप्त टिप्पणियाँ करते चलते हैं
औरत बैठकर ध्यान से सुनने लगती है अपनी कमियां
बताने लगती है उनकी वज़हें, तमाम निजी समस्याएं और उनके स्रोत
उनकी बातों से बात निकलती जाती है
उनके चेहरे का नूर बढ़ता जाता है
फिर वह नहीं कहते अर्जेन्ट काम है करो फटाफट, नहीं तो गिर जाएगी बिजली
वह ऐसे बात कर रहे होते हैं जैसे शाम को बारिश होने वाली हो
और पकौड़े तलने वाले हों
टाइम निकलता जाता है
औरत बैठे से खड़ी होती है
उनकी आँखें कहती हैं,
'अरे रुको न कर लेने दो न थोड़ा और टाइम पास
वैसे भी क्या करोगी इस टाइम का।'
दाँत
हर बार जब उसका दाँत टूटता
वह रोने लगती
उसे चुप कराने के लिए
मैंने एक अधसुनी कहानी को अपनी शैली में रचा
कहानी एक दंतपरी की
जो बच्चों के तकिये के नीचे रखे टूटे दाँत ले जाती और बदले में नए उजले मज़बूत दाँत दे जाती
परी यह काम केवल रात को करती
जब वह नींद की गोद में झूल जाती।
धीरे धीरे उसके सारे दाँत टूटते गए
हर दाँत के टूटने के साथ बचपन भी थोड़ा थोड़ा छूटता गया
वह जान गई दंतपरी की कहानी है झूठी
जिस साल उसके अंतिम दाँत टूट रहे थे
उस साल वह कई कहानियों की आलोचक हो गई थी।
एक बार जब लाई सेव खाते हुए उसका दाँत टूटा
वह आराम से दाँत पकड़कर पनारे तक चली आई
और दाँत टूटने की सूचना के साथ
पानी से कुल्ला करने लगी
मुझे लगा वह अपना दाँत फेंक देगी
मगर उसने दाँत को ऐसे पकड़ा
जैसे पकड़ रही हो अपना जाता हुआ बचपन
और बोली,
'मैं इसे तकिए के नीचे रखूँगी'
'मगर अब तुम ये जान चुकी हो,
दंतपरी की कहानी झूठी है।'
'हाँ मुझे मालुम है मगर फिर भी मुझे ये करना है'
रात होते ही वह दाँत तकिये के नीचे रखकर
गहरी नींद में सो गई
सुबह उसके उठने से पहले मैंने वह दाँत उठाया
और उसे कहीं कोने में छिपा दिया
वह उठी तो मैंने कहा,
'और क्या हुआ दाँत का ?'
'वह तो गायब हो गया!'
वह जानती थी दाँत का गायब होना दंतपरी का चमत्कार नहीं मेरी करतूत है
पर उसने नहीं कहा कुछ
वह बस ख़ुश थी।
उसके दाँतों के गिरने-उगने के साथ मैंने जाना कि
कैसे एक झूठ बदलता है एक कथा में
कैसे कथा बदलती है विश्वास में
कैसे विश्वास बदलाता है प्रेम में
और कैसे प्रेम बदलता है सुख में
ऐसी ही रची होगीं पुरखों ने कई कई कथा-कहानियाँ
और हजारों विविधतापूर्ण संस्कृतियाँ-सभ्यताएँ
इन्हें रचने का उद्देश्य शायद शुरू शुरू में यही रहा होगा कि कैसे किसी को दुःख से बचाया जाए
मगर कालांतर में वह बन गईं बहुसंख्यक को रुलाने-सताने-गिराने-दबाने का अचूक साधन
एक खूँख़ार दाँत!
कक्षा की लड़कियाँ
कक्षा में लड़कियां आती हैं,
ऐसे आती है जैसे आई हों राशन कार्ड से गेहूँ-चावल लेने
आई हों जैसे पंडाल में बैठे किसी बाबा से कोई कथा-वथा सुनने
आई हों पड़ोसी के घर बिलौआ में कुछ देर बेमन बैठने
मतलब वे बहुत कुछ लगती हैं पर कक्षा में आई हुईं छात्राओं की तरह बहुत कम लगती हैं
यहां बोर्ड पर कोई महत्वपूर्ण अवधारणा चल रही होती हैं
और वहाँ पंक्ति में बैठी लड़कियों की सुई समय के इर्दगिर्द घूमती है
'मेडम बस निकल जाएगी।'
कुछ लड़कियां उठकर चली जाती हैं
उनकी बेचारगी देखकर ऐसा लगता है जैसे उन्हें कक्षा की जगह पिंजरे में रखा गया है
और उनके पंख पक्षी की तरह बाहर जाने के लिए फड़फड़ा रहे हों
मगर कक्षा से निकलते ही कैदी लड़कियां उड़ती नहीं
चुपचाप एक सीध में भेड़ों की तरह चलने लगती हैं
चाहे कक्षा में चल रहा हो उनके जीवन का कितना ही ज़रूरी फ़लसफ़ा
कुछ भी उनके बाहर खड़े पिता या भाई या मित्र से ज़रूरी नहीं होता
'आख़िर तुम लोग ये साहित्य से बीए कर ही क्यों रही हो ?'
'दिनभर क्या करती हो ?'
'थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करो'
'पढ़ाई ही काम आती है'
ऐसी हर सलाह पर लड़कियाँ हंसती हैं और लगातार देर तक हँसती रहती हैं
तब लगता है शायद अध्यापन के कौशल में ही कमी है
वरना लड़कियां क्यों हंसती ?
आए दिन कक्षा में विडंबना, विरूपता, व्याकुलता, बैचेनी पसर जाती है
अधिकतर लड़कियां गाँव से आती हैं
वे बारिश में बारिश से दुखी होती हैं
सर्दी में रात से
गर्मी में लू से
उनके दुःख के कारण भी उनकी तरह ही बहुत पिछड़े हैं
अधिकतर लड़कियां कक्षा पाँच के बाद नियमित स्कूल नहीं गई हैं
कारण पूछो तो कहती हैं छठवीं का स्कूल दूसरे गाँव में था कैसे जातीं ?
कोई-कोई ऐसी भी है जो सीधे पाँच से आठ में आ गई है
कुछ ने अब तक के जीवन में केवल प्रश्न-उत्तर याद किये है
कुछ नकल करके पास होती आई हैं कैसे होती आई हैं उन्हें ख़ुद भी नहीं पता
कभी-कभी लगता है लड़कियां अपना पूरा सच बताना नहीं चाहतीं
वे जितना बोलती हैं, उससे ज़्यादा डरती हैं
और जितना डरती हैं, उससे ज़्यादा कमज़ोर दिखती हैं
पेपर आते हैं तो कक्षा की लड़कियां कॉलेज़ के चक्कर काटने लगती हैं
किताब, कुंजी और इम्पोर्टेंट प्रश्नों के निहोरे करने लगती हैं
मगर कॉलेज़ की लाइब्रेरी में भी उनके हिसाब की कोई किताब नहीं पाई जाती है
लाइब्रेरियन चिढ़-चिढ़ के कहता है,
'सिर पर चढ़ गई हैं, किताब का नाम तक नहीं जानतीं, किताब इश्यू कराने आ जाती हैं और कुछ कहो तो लड़ने लगती हैं। इससे अच्छा तो गोबर पाथें खेती करें...'
एक लड़की भी चिढ़ कर कहती है-
'वही पाथकर आ रहे हैं सर, जाकर फिर करेंगे कमाई, आप रक्खे रहो अपनी किताबें...'
'दे दो न कुछ...'
'क्या देदें मेडम कुंजी और किताबों में अंतर तक नहीं जानतीं...'
ढूढ़कर एक आधुनिक कहानियों की किताब दे दी है
लड़कियां कह रही हैं,
वही देना मेडम जो परीक्षा में आए,
हम ज्यादा नहीं पढ़ सकते
ज्यादा तो ऐसे कह रही है जैसे न जाने कितना पढ़ती हों
क्या पता पढ़ती हो ?
कहती हैं- 'सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए कुछ-कुछ पढ़ते रहते हैं मेडम'
इसके अलावा झाड़ू, बर्तन, कपड़े, रोटी के अलावा खेत पर काम, दुकान पर मदद... ये सब करती हैं कक्षा की लड़कियाँ
कभी-कभी लगता है उनके सिर पर रखे घड़े निरा खाली हैं
और कभी लगता है कुछ बूँद जल है तरी में
यूँ बूँद-बूँद जल से भी भर सकता है उनका घड़ा
पर कैसे ? कहाँ ? और कब तक ?
मार्कशीट हाथ में आने के बाद फिर देखने को भी नहीं मिलेंगीं कक्षा की लड़कियाँ।
नेहा नरूका
जन्म 7 दिसम्बर, 1987 को उदोतगढ़, भिंड, मध्य प्रदेश में।
साहित्य में स्नातकोत्तर और ‘हिन्दी की महिला कथाकारों की आत्मकथाओं का अनुशीलन’ विषय पर पी-एच.डी.
‘सातवाँ युवा द्वादश’ में कविताएँ संग्रहीत।
‘हंस’, ‘आजकल’, ‘वागर्थ’ आदि पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन।
2023 में 'फटी हथेलियां' शीर्षक से पहला कविता संग्रह प्रकाशित।
2024 का मध्य प्रदेश का प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान।
फिलहाल शासकीय श्रीमन्त महाराज माधवराव सिन्धिया महाविद्यालय, कोलारस में हिन्दी विषय में अध्यापन कार्य।
ई-मेल : nehadora72@gmail.com






अच्छी संवेदनशील कविताएं
ReplyDeleteनेहा नरूका की कविता ‘टाइम पास’ कार्यस्थल पर मौजूद लैंगिक असमानता और सत्ता के सूक्ष्म दुरुपयोग को अत्यंत सधी हुई भाषा में उजागर करती है। कविता की साधारण लगने वाली स्थितियाँ—“घण्टी घनघना देना”, “फाइल की तरफ इशारा करना”, “अर्जेन्ट काम”—दरअसल उस सत्ता-नाटक की परतें हैं, जिसमें स्त्री का श्रम, उसकी उपस्थिति और समय, पुरुष-प्रधान दफ्तर संस्कृति में उपभोग की वस्तु बन जाते हैं। नरूका की भाषा यहाँ सीधी, बोलचाल की और ठंडी विडंबना से भरी है—जहाँ “गुणों के बीच कमियों पर टिप्पणियाँ” और “बारिश-पकौड़े” जैसे रूपक कामुक सत्ता के छिपे खेल को बेनकाब करते हैं। यह कविता स्त्री के अनुभव को निजी नहीं, बल्कि सामाजिक और संरचनात्मक स्तर पर उजागर करती है—एक धीमी किन्तु गहरी प्रतिरोध की आवाज़ के रूप में।
ReplyDeleteअच्छी कविताएँ।
ReplyDeleteनयी पीढ़ी की कवयित्रियों में सबसे सशक्त व स्पष्ट आवाज़। बहुत अच्छी कविताएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता बिल्कुल सच्ची
ReplyDeleteभई, मैं तो फ़िदा हूँ इस युवा कवि पर। हिन्दी कविता में अनन्य हैं ये।
ReplyDeleteअच्छी कविता है, बहुत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविताएं।
ReplyDeleteसच्ची कविता।
ReplyDeleteटाइम पास बताती है आज टाईम ही नहींहै पास करने के लिए, उन्हें जो कर्मयोगी है।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविताएँ 💞
ReplyDeleteबहूत अच्छी कविताएँ, खास कर, दूरियाँ।
ReplyDeleteशंकरानंद जी नेहा नेरूका जी की कविताएं बेहतरीन है। मैंने उनकी कविता संग्रह "फ़टी हथेलियां" पढ़ कर बहुत ही प्रभावित हुआ। बांग्ला में उनकी उनकी कविताओं को अनुवाद करने का कोशिश करूंगा।सादर।
ReplyDeleteइन कविताओं में सबसे अच्छी कविता है -- दाँत ! दन्तपरी की कहानी।
ReplyDeleteकवि शंकरानन्द भाई
ReplyDeleteकाम देखने वाला बेर की गुठली की तरह सख़्त है...... जैकेट कम्पनी वाली फूलवती कविता के इस एक नवीन बिंब से ही पता चलता है नेहा नरूका कितने सुखद काव्य मिजाज की कवि है। यह कविता बड़ी कंपनी किस प्रकार श्रम और व्यक्तित्व की पहचान को निगल लेती है इस भाव,विचार और वक्त की नब्ज़ को पहचानती है ।
इसी तरह बारिश आई है कविता और अन्य कविताएं धूप जितनी साफ और सुंदर है। वाह ।अभिनंदन नेहा नरूका जी।
सुंदर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteनेहा नरूका प्रतिभाशाली कवि हैं। उनकी कथन की अपनी मौलिक भाव शैली है।
ReplyDeleteउन्हें बधाई और शुभकामनाएं।
नमस्कार शंकरानंद जी
ReplyDeleteनेहा नरूका की कविताएँ सादगी में गहरे अर्थों को समेटे हुए हैं। वे अपने समय और समाज की नब्ज़ को बहुत बारीकी से पकड़ती हैं। उनकी भाषा सहज है, पर असर गहरा छोड़ जाती है। हर कविता में जीवन के उस हिस्से को आवाज़ दी गई है, जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है चाहे वह श्रमिक स्त्री हो, बरसात में ढहता घर हो, या कक्षा में बैठी गाँव की कोई लड़की।
सच कहूं तो नेहा की कविताएँ झकझोरती नहीं, बल्कि धीरे-धीरे भीतर उतरती हैं और वहीं ठहर जाती हैं। उनमें संवेदना है, प्रतिरोध है, और सबसे बढ़कर, सच्चाई है।
सादगी भरी पर असरदार कविताएँ। मन के बहुत भीतर तक पहुँचने वाली।
आपको और नेहा को खूब सारी शुभकामनाएं🌺
बेहद संवेदनशील कविताएँ हैं। फूलमती और बारिश पहले भी पढ़ी थीं।
ReplyDeleteइतनी प्रवाही कविताएँ कि क्या कहूँ, दंतपरी की तरह सभी में एक अर्थ का भी त्वरण है. गजब शिल्प है. शैली अदभुत है.
ReplyDeleteनेहा की कविताओं का स्वर अलहदा, लीक से हटकर है, जो आश्वस्त करता है..
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