सविता सिंह की दस कविताएं
जिधर स्वप्न है
जिधर स्वप्न है
उधर ही प्यास है
उधर एक खाली मैदान है
पथरीला
कहते हैं उधर पहले घास का साम्राज्य था
उसमें रहने वाले जीवों का
एक बार आसमान से ढेर सारा जल उतरा
महीनों हरियाली को खुद में डुबोए रखा
फिर उसे नष्ट कर दिया
जीवन की प्यास बची रही
उसे ही समझने तमाम जीवों ने फिर जन्म लिया
तब से वे अब तक ऐसे ही हैं
प्यासे
गला सूखा हुआ
स्वप्न जगा चलता हुआ।
विकट इच्छा
उड़ती हुई सी एक प्यास
आकर गले में बस गई
वह महज पानी के लिए नहीं आई थी मेरे पास
उसे पता था मुक्ति का
कोई एक रास्ता मुझसे होकर जाता है
वह मेरे साथ ही चलना चाहती थी
पानी ढूंढना मेरा काम था
उसे तो बस चलना था
दग्ध मेरी आत्मा के साथ
उसे अंदाजा कहां था उन कंकड़ों पत्थरों का
जो रास्ते में आने वाले थे
उसे मेरी दूसरी प्यास के बारे में भी कहां पता था
जो मेरी आँखें जानती रहीं है
एक दृश्य को देखने की प्यास
उसी में मिल जाने की विकट इच्छा
उसकी आस
उसे कहां पता था।
एक दिन
जाने कहां बिजली गिर रही है
जाने क्यों बादल इतना गरज रहे हैं इस कदर
पानी ही पानी चारो ओर अब दिख रहा है
जानवर आसरे के लिए भाग रहे हैं इधर- उधर
चिड़ियों की आवाज़ें गुम है इस वक्त
जाने क्या होने वाला है
कि सब गुम हैं
आसमान में जैसे बादल युद्ध कर रहे हैं
आकाश एक खतरनाक जगह मालूम पड़ रहा है इस समय
अस्त्र- शस्त्र लिए जैसे आदमियों के जत्थे जान पड़ते है
जाने क्यों हवा भी तूफान सी चल रही है
मां कहती थी एक दिन सब मिट जाएगा
मेरी याद भी तुम्हारे साथ तुम्हारे दिल में
एक दिन लोगों के दिल भी नहीं होंगे
उनमें इकट्ठा जन्मों-जन्मों की रहस्यमई बातें भी नहीं।
ख़लल
यह अब तक नहीं देखी गई जगह है
मैं यहाँ कैसे आई
पहुंची कैसे ठीक इसी जगह
जहां से यह घाटी तिरछी सी दिखती है
यहां एक अजीब धुंध है
यहां सिर्फ पुरुष दिखते है
स्त्रियां गायब है यहां से
बेशक गाय और बकरियां दिखती है
ढेरों काम करतीं
कोई कहता है यह वही घाटी हैं
वहीं धुंध
जिन्हें मिटाने की लाख कोशिशें होती रहीं हैं
न घाटी पहाड़ में समाती है
न धुंध ही छंटती है
न खुलकर अंधेरा ही होता है
न और गहरा ही
यह समय के किसी अंतराल में अटकी हुई कोई एक जगह है
नहीं मालूम यह आवाज किधर से आती है और वैसे भी यह दिखती भी कहां है
मैं इस अदृश्य से ही पूछती हूँ
"मैं यहां क्यों आई हूं"
जवाब मिलता है
तुम उद्विग्न रहती हो
तुम्हारे सवाल इस अदृश्य को अपनी नोक से किसी तीर की मानिंद भेदते हैं
किसी अनात्म को रुलाते हैं, उसे खंगालते है
आसमान में कितने ही तारे
टिमटिमाने से खुद को रोकते हैं
ख़लल एक जगह है
यहां कितने ही सवाल अनुत्तरित पड़े है
सारे घात तो भाषा में ही लगते है
व्याकरण में स्थिर की गई होती है हमारी अमानवीयता
मनुष्यों की एक सहज स्थिति है
वह अपनी मनुष्यता रह रह कर भूल जाते हैं।
आश्चर्यलोक
आज सवेरे से
तेज हवाएं चल रहीं हैं
घर के पीछे वाले बागान में लगे
अनार की डालियों पर बुलबुल ने
अपना घोंसला बना रखा है
उसके नन्हे बच्चे वहां पल रहे हैं
लो, अब बारिश होने लगी
तेज हवाओं वाली बारिश!
बुलबुल नर और मादा दोनों बारी बारी अपने घोंसले के आस-पास मंडरा रहे है
कहीं घोंसला पानी से भर न जाए
कहीं बच्चे नीचे गिर न जाएं!
आखिर में पानी में भीगती हुई
मादा बुलबुल अपने बच्चों को देखती है अपने ही वजूद से उन्हें ढक लेती है
भीगती हुई खुद उन पर जा बैठती है
अब उसे बारिश और हवा पूरी तरह डोला रहे हैं
एक पूरी सृष्टि ही डोल रही है
थोड़ी ही देर में दूसरी डाल पर बैठा
नर बुलबुल आता है
देखता है सबकुछ सम्भल गया है
धीरे-धीरे हवा भी थमने लगी है
हिलता हुआ एक संसार भी थम गया है
अपनी तरफ से मैं भी देती हूं
हवा और बारिश को धन्यवाद
ढेर सारा प्यार उमड़ आता है
इन अनजान पक्षियों के लिए
वे बचे रहें इस धरती पर
सबकुछ के बावजूद ऐसी प्रार्थना मन में स्वतः उगती है।
सोचा नहीं था पानी की आवाज
क्या कुछ कर सकती है भीतर के समुद्र के साथ
वहां के अनगिनत जीवों के साथ
वे ही जो मैं रही हूँ अपने पिछले जन्मों में
मैं कितने समय से हूं इस ब्रह्मांड में
सोचने लगी इस आवाज को सुनकर
इसमें मेरी पहली आवाज़ें शामिल हैं
पिछले जन्मों की स्मृतियां पानी में ही संचित है
उसके अणु-अणु में मेरा अस्तित्व है
आह! इसकी पारदर्शिता कितनी निष्ठुर
मेरा क्या विकल्प है
अपने को यूं पहचाने के सिवा
मैं क्या कुछ कर सकती हूं
मैं पानी के बिना क्या हो सकती हूं
मेरी आवाज़ का दस्तावेज और कहां हो सकता है?
इस विपद समय में
रसिया से एक चिट्ठी आई है
जो पचास साल पहले लिखी गई थी
कहने को तो यह सामान्य बातों से भरी है
जैसे किसी ने अपनी दिनचर्या किसी को लिख भेजी हो
लेकिन उसमें आज हो रहे युद्ध की भी बातें हैं
वह भी सामान्य दिनचर्या की बातों की ही तरह लिखी गईं है
हैरत है इससे मुझे क्या लेना देना
मैं क्यों इसकी चर्चा कर रही हूं
मैं तो ज्यादा से ज्यादा अपने देश के बारे में ही कुछ सोच पाती हूं
इसका कैसे कल्याण हो इसपर ध्यान जाता रहता है
वह भी मामूली सोच के तहत ही
मुझे अपने देश के
गरीब लोगों की चिंता होती है
क्योंकि अक्सर कोई न कोई कह देता है
कि बाढ़ अब हर साल आया करेगी
कि सूखा हर साल पड़ेगा
कोई न कोई आनेवाले दुर्भिक्ष की आशंका जता ही जाता है
फिर यह भी कि धनवान तो बच जाएंगे
मरेगा तो बेचारा गरीब ही
एक चिट्ठी अमेरिका से भी इसी तरह की आनी चाहिए सौ वर्ष पहले लिखी गई हो जो
जिसमें लिखा हो कि इस देश की जनता का एक दिन क्या हाल होगा
यदि यह देश यूं ही युद्ध करता रहा
सारी दुनिया में इसी का व्यापार करता रहा
लेकिन इससे भी मेरा क्या लेना देना हो सकता है
मैं कौन हूं जो शांति की बात को किसी के लिए जायज़ ठहरा सकूं
मैं किसी अप्रत्याशित खुशहाली का इंतजार भी नहीं करती
एक चिड़िया के आने का भी नहीं
जो मेरे बागान में अपना घोंसला बना कर जाने कहां चली गई वह एक दिन
मैं तो सुबह का भी इंतेज़ार नहीं करती
जबकि उसकी ही हवा मेरी जान में बसी जान है
जिससे यह जीवन अपने चार पहियों पर किसी तरह चलता है
इस विपद-समय में भी।
अमन के हवाले से
अब तो यही सोचती हूं
मैं क्यों कहती हूं इतनी सारी बातें
अमन के हवाले से
पक्ष में इसके
स्त्री की तरह वह भी एक छाया भर तो नहीं
युद्ध के मर्दाना अस्तित्व की
याद करती हूं कितने हजार सालों के इंसानी तारीख को
दर्ज हैं जिसमें हत्या क्रूरता अपहरण दासता और न जाने कितनी अनैतिकताओं के मजीद मिसालें
एक औरत हूं इसलिए सबकुछ याद है
इसकी चश्मदीद गवाह जो रही हूं
देखें, मेरी रूह लाख कोड़ों के दागों से किस कदर भरी पड़ी है
सोचती हूं ही नहीं
जानती भी हूं किन्होंने बनाए
हथियार इतने
बहाए खून इतना सारा
इनसे बेहतर तो जनावर जान पड़ते हैं
जब भी इस मसले पर संजीदगी से सोचती हूँ
कि मैं एक औरत हूं
मेरे साथ आखिर कौन है
तो वही खड़े मिलते हैं मेरे पक्ष में
यह भी कि अगर मैं हूं तो अपनी यादाश्त की पुस्तगी की वजह से ही
किसी की दया के कारण नहीं
तमाम क्रूरताओं और युद्धों के बावजूद हूं
इस समय मैं खुद को कितना अलहदा पाती हूं
बम और मिसाइलें बनाने वालों से
मैं एक स्त्री हूं इसलिए भी कहती हूँ
मैं दुनिया में अमन चाहती हूं।
बाहर भले आग के गोले उड़ते हों अभी।
मेरा कोइ शत्रु नहीं
वहीं जाकर संपन्न होती हूं
जहां नदी पत्थरों पर लिखती है गीत
संगीत जहां शब्दों को आश्रय देते है
मैं खुद जहां खड़ी हो यह सब देखती हूं
भूल जाती हुई मृत्यु को
पूरी होती हूं यहां
एक स्त्री होती हूं
जब जंगल का प्रेम एक चुप में मिलता है
पेड़ों के नेह बरसते हैं मुझपर
वहां के असंख्य जीव मुझे अपना समझते है
मैं किसी और पर अब निर्भर नहीं
कोई और मुझपर नहीं
अपनी राह ही चल रहें हैं सभी
मेरा कोई अब शत्रु नहीं।
किन्ही शाखों पर ठहरी है सुबह
आसमान लाल होने के पहले वाले रंग में सना है
सूरज मेरे भीतर ही रुका हुआ है
वहीं चांद भी दुबका हुआ कहीं
सारी कायनात भीतर ही है
इसके बाहर क्या हो सकता है सोचती हूं
यह ठंड किधर से आती है
यह सिहरन कहां से उठ रही है
कौन सी वह धड़कन है जो सुनाई देती है
और किसकी
कोई और कायनात है जो मुझतक इस तरह आती है
जैसे अपनी ही छूटी हुई कोई सांस
किसी और समय की।
चाहती हूं ढेर सारा प्यार रहे हर जगह
ताकि जी सकूं कहीं भी
कोई भय निगल न जाए मुझे
कोई दूसरा लोक खुद में मिला न ले मुझको
जिन नदियों को चाहती रही हूं
जिस समुद्र को सौंपा अपना सबकुछ
उन्हे छोड़ आज भी कहीं और जाने का जी नहीं
सुबह उतर आई है शाखों से नीचे
अपने हल्के लाल रंग संग
इसी में रहना चाहती मैं अभी
अपनी इसी उदास देह में
इसकी एक लहर जैसी।
वह स्त्री जंगली पशुओं से नहीं डरती
उनसे बातें करती है बल्कि
जब भी मार खाती घर में
वह रोती हुई पहुंच जाती
किसी हिरण के पास
वह न मिलती तो नीलगाई तो मिल ही जाती
वह किसी गदहे को भी अपना हाल सुनाने में नहीं हिचकती
कितनो ही गदहे सरीखे मनुष्यों को बल्कि
वह असहिष्णु पाती रही है
उसका अपना ही पति क्या कम है
इन सबों से
उसका ध्यान आते ही उसके सारे रोएं रो पड़ते
सोचती वह एक खालिस गधा ही मिला होता तो भी सब्र कर लेती
उसे अपने सच्चे रूप में ही उससे मोह रखती
इन बस्तों से परे यह स्त्री पेड़ों से बतियाने में तो
सबसे अधिक उल्लास महसूस करती
हर पेड़ की अपनी कहानी है
अपना अनुभव
जो मनुष्यों से कम जटिल नही
मगर उसकी कहानियां भिन्न होती हैं
सुनने में रात दिन कब बीत जाते पता भी नहीं चलता
सचमुच भिन्नता प्रसन्नता का उद्गम है
समुद्र ने भी बताया था उसे एक रोज
"हर नदी अपनी तरह की है
कोई पियरी साड़ी में
तो कोई हरियर छींटदार लुगा में
किसी का नीला रंग है तो कोई
माटी अईसन
जब सब मिलकर आती हैं आनंद तब सीमा नहीं रहती
उसे यह बात वाजिब लगी
कितने ही रंगों के फूलों को देखती उसे भी ऐसा ही लगता
पास पड़ोस के लोगों को देखते जो कभी नहीं लगता
सब एक समान दिखे अपने स्वार्थ में
अपनी मूर्खताओं में तो और भी असह्य
यह सार्वभौमिकता की लत मनुष्यों को ही क्यों लगी है
क्यों सब एक ही जैसा होना चाहते हैं
एक ही जैसे आताताई
एक ही जैसे जुल्मी।
हवस
जो सुखा देते हैं जीवन का सोता
वे बनाते हैं सभ्यताएं
वे ही जो युद्ध करते हैं योद्धा होते हैं
राज्य बनाते हैं रौंदते हैं
हारे हुओं को
जो प्राणवान जंगली घासों को महज घास समझते हैं
उन्हें साफ करवा देते हैं नई फसलों के लिए
वे ही बाद में पेड़ों के साथ भी
बेदर्दी से पेश आते हैं
हरी-भरी पृथ्वी को बंजर बना देने की एक हवस है उनमें
दूर तक एक साम्राज्य चाहते है वे
हरियाली पर
स्त्री पर
उनका यह जातीय मामला जाने कैसे बन गया है
इस पर कोई बहस नहीं चाहिए उन्हें
उन्हें नहीं सोचना जंगल के मन पर
मगर जब तक हवा स्त्री साथ है
कल-कल जल जंगल भी
ऐसे बेहिस साम्राज्य नहीं बचे रह सकते
अनन्त तक
इस बार की लड़ाई जंगल की है
और उसकी हवा की!
तृष्णा
कितना आसान था सबकुछ नकार देना
फिर करना ही क्या था
किसी साकार के शून्य में चले जाना था
मगर वह शून्य किधर है
ऐसी तेज धूप है अभी
कि रोशनी के सिवा कुछ और बचा दिखता नहीं है
मगर इतने से साकार का क्या पता चलता है
उसके शून्य की कोई कल्पना नहीं उभरती कहीं
यदि मान लूं यह दोपहर कुछ भी नहीं
नहीं उसकी धूप कोई तापमान ही
यह भी कि धूल ही आखिरी सच है जीवन का
तब भी तृष्णा नहीं जाती
उसे जानने की
खोजने की उस जगह को
जहां स्त्रियों के लिए एक तालाब हो और उनके सुस्ताने के लिए
एक छायादार वृक्ष ।
सविता सिंह
जन्म फरवरी, 1962 को आरा, बिहार में।
दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी.।
मांट्रियाल (कनाडा) स्थित मैक्गिल विश्वविद्यालय में शोध व अध्यापन। सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अध्यापन आरम्भ करके डेढ़ दशक तक आपने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया। आप अमेरिका के इंटरनेशनल हर्बर्ट मारक्यूस सोसायटी के निदेशक मंडल की सदस्य एवं को-चेयर हैं।
‘अपने जैसा जीवन’ (2001), ‘नींद थी और रात थी’ (2005), ‘स्वप्न समय’ (2013), ‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021), ‘वासना एक नदी का नाम है’ (2024), ‘प्रेम भी एक यातना है’ (2025)। प्रकाशित काव्य संग्रह। दो द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल’ (फ्रेंच-हिन्दी) (2008)। ओड़िया में ‘जेयुर रास्ता मोरा निजारा’ शीर्षक से संकलन प्रकाशित। ‘प्रेम भी एक यातना है’ का ओड़िया अनुवाद प्रकाशित (2021)। अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तर्राष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल। ल फाउंडेशन मेजों देस साइंसेज ल दे’होम, पेरिस की पोस्ट-डॉक्टरल फैलोशिप के तहत कृष्णा सोबती के ‘मित्रो मरजानी’ तथा ‘ऐ लड़की’ उपन्यासों पर काम प्रकाशित। राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में ‘रियलिटी एंड इट्स डेप्थ : ए कन्वर्सेशन बिटवीन सविता सिंह एंड रॉय भास्कर’ प्रकाशित। ‘पोएट्री एट संगम’ के अप्रैल 2021 अंक का अतिथि-सम्पादन।
कई विदेशी और भारतीय भाषाओं में कविताएँ अनूदित-प्रकाशित। कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में कविताएँ शामिल और उन पर शोध कार्य। हिन्दी अकादमी और रजा फाउंडेशन के अलावा ‘महादेवी वर्मा पुरस्कार’ (2016), ‘युनिस डि सूजा अवार्ड’ (2020) तथा ‘केदार सम्मान’ (2022) से सम्मानित।
सम्प्रति इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर, स्कूल ऑव ज़ेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ की संस्थापक निदेशक।
ई-मेल : savita.singh6@gmail.com






यह आपके काव्य जगत में जुदा स्वर.है मौजू और भाषा का ताप वहां से जन्म लेता है और कहन,जहां से कायनात का
ReplyDeleteमर्म बोलता है।
सविता सिंह की ये कविताएँ समकालीन हिंदी कविता में स्त्री चेतना, प्रकृति, अस्तित्व और अमन की गहरी आकांक्षा का मार्मिक आख्यान हैं। इनमें भाषा की कोमलता और विचार की दृढ़ता साथ-साथ चलती है—जहाँ जल, धूप, धुंध, पक्षी, जंगल, युद्ध और स्त्री का अंतःसंघर्ष एक-दूसरे में विलीन होकर जीवन के विराट अर्थ की खोज करते हैं। सविता की कविताएँ बाहरी यथार्थ से टकराती हुई भीतर के सन्नाटों और स्वप्नों को पहचानने की यात्रा हैं। वे युद्ध और वर्चस्व की मर्दाना सभ्यता के बरक्स स्त्री के रूप में अमन, प्रेम और प्रकृति-संवेदना की पुनर्स्थापना करती हैं। इस संग्रह में कवयित्री का स्वर एक साथ व्यक्तिगत और सार्वभौमिक है—वह अपने भीतर के पानी, जंगल और पक्षियों में मानवीय करुणा, प्रतिरोध और पुनर्जन्म की संभावना खोजती है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने, उर्वशी.
Deleteअद्भुत कविताएं
ReplyDeleteअच्छी कविताएँ ।
ReplyDeleteबढ़िया कविताएं।
ReplyDeleteमेरी प्रिय कवि हैं सविता। इनकी कविताएं जीवन से उपजी है और जीवन की बात करती है। युद्ध को लेकर दुनिया में बहुत कविताएं लिखी गई है पर सविता की कविता में जो संवेदनशीलता और विचार है वो कविता को बहुत आगे ले जाती है। वो जानती हैं इतिहास सिर्फ सभ्यताओं का नहीं, बर्बरताओं का भी इतिहास है। रूस से चिट्ठी आने और अमेरिका से चिट्ठी आने का बिंब कमाल का है। जिस तरह पूरी दुनिया में तानाशाहियों का उदय हुआ है उसके खिलाफ कविता आवाज देती है। सविता सिंह जानती हैं हमारे समाज की विडंबनाएं और अंतर्विरोध क्या है। कविता इन तमाम मुद्दों पर बात करती है । उनकी कविता में सिर्फ हमारा देश ही नहीं पूरी दुनिया में मनुष्यता पर हो रहे खतरे को महसूस किया जा सकता है। उनकी कविता मनुष्यता को बचाने की बात करती है।
ReplyDeleteसविता जी की कविताएँ स्त्री चेतना का महत्व पूर्ण आख्या न है
ReplyDeleteअच्छी लगी कविताएं 👌👌
ReplyDeleteख़लल एक जगह है
ReplyDeleteयहाँ कितने ही सवाल अनुत्तरित पड़े है
बहुत बढ़िया
कविताएं पढ़वाने के लिये शुक्रिया।
ReplyDeleteसविता जी की कविताएँ पढ़ते हुए लगता है कि कविता का एक सुंदर सुसज्जित घर बनाया है,जहाँ बहुत आहिस्तगी से पाँव रखकर प्रवेश करना होगा।बहुत सुंदर और अर्थवान कविताएँ हैं।सविता जी की इन कविताओं को प्रकाशित करने के लिए शंकरानंद जी आपका भी बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता.... आहटों से बात कहती कविता..
ReplyDelete