बसंत त्रिपाठी की कविताएं

 

बसंत त्रिपाठी 

बसंत त्रिपाठी की कविताओं में हाल के वर्षों का वह यथार्थ बेचैन करता है जो दिखता तो है लेकिन उसके दिखने का इतना अभ्यास करा दिया गया है कि वह निर्मम और खुरदरा होने के बावजूद बहुत असर नहीं करता।विकास के तमाम उपाय चमक-दमक की जमीन तैयार कर रहे हैं लेकिन उस चमक की नींव में जो दब रहा है वह भविष्य की राख है।ये कविताएं उसी 'अनामंत्रित अंधेरे' के बाद की कविताएं हैं जिसने धीरे-धीरे सबकुछ अपने नियंत्रण में ले लिया है या लेने के लिए प्रयासरत है।











 

पहाड़ से लौटकर


पहाड़ से लौटा हूँ 

बुरुँश, बाँज और देवदारु के जंगल से 

फेफड़ों में ऑक्सीजन भरकर लौटा हूँ 

लौटा हूँ बहुत नीला आसमान देखकर 

पारदर्शी जल को तेज बहते देखकर लौटा हूँ 

टूरिस्ट पैकेज को फाइव स्टार रेटिंग देकर लौटा हूँ 


लेकिन जब से लौटा हूँ 

उदास हूँ, दरक रहा हूँ कि हाय 

एक दिन बाँज के जंगल नहीं रहेंगे 

आसमान मैदानी आसमानों की तरह धूसर हो जाएगा 

पारदर्शी नदियाँ 

मटमैले नालों की तरह बहेंगी 


क्योंकि पहाड़ से सिर्फ लौटा नहीं हूँ 

अबाध निर्माण की विध्वंसक कार्रवाइयाँ देखकर लौटा हूँ 

अनगिन सुरंगों के शिलान्यास की खबरों से पटे 

अखबार देखकर लौटा हूँ 

एक ऐस गाँव देखकर लौटा हूँ 

जहाँ के दरवाज़े इंतज़ार में बूढ़े हो चुके हैं 


निश्छल पहाड़ियों को 

अपनी ही ज़मीन पर खड़े भव्य मकानों का 

वैतनिक रखवाला बनते देखकर लौटा हूँ 

मैदानी सैलानियों की अंधी भूख से चबती 

पहाड़ी सुंदरता देखकर लौटा हूँ 


पहाड़ से लौट आया हूँ 

लेकिन सपनों में पिघले ग्लैशियर की डरावनी छायाएँ नाच रही हैं 

पहाड़ से लौटा आया हूँ 

और प्रलय की आशंकाएँ पुख्ता हो गई हैं।




कवि 


तुम्हारे कंधे बहुत कमज़ोर हैं कवि 

तुममें अपनी ही कविता उठाने की ताब नहीं 


तुम कविता की दुनिया में चोर की तरह घुसते हो 

अगर्चे मालउड़ाऊ हो तुम 

लेकिन प्रबंधन की तकनीक में सिद्धहस्त 


तुम्हारी दाढ़ी, तुम्हारा झोला

तुम्हारा चश्मा

तुम्हारा बाना 

तुम्हारी चप्पल तुम्हारी चापलूसियाँ 

खुजली और खुराफातें 

चीख चीखकर कहती हैं 

इन्हें ही कविता मान लिया जाए 


कविता लिखने से पहले   

यश की बेशर्म इच्छा 

तुम्हारे चेहरे से टपकती है कवि 


तुम अपनी ही कविताओं का 

शर्मनाक हाशिया हो कवि 

कविताओं को जीने की चाह नहीं तुममें।




आगामी तानाशाह    


हमारे लिए 

राहत की बात यह नहीं है 

कि मौजूदा तानाशाह की चमक 

फीकी पड़ने लगी है 


हमारी मुश्किल तो यह है 

कि हमने एक तानाशाह पर यकीन किया 


इस तरह हमारा भविष्य अब

तानाशाहों के अंदेशों से 

भरा हुआ है 


चिंता यह भी 

कि हर आगामी तानाशाह 

पहले की तुलना में ज़्यादा क्रूर होगा 

ज़्यादा आततायी 


वह सबकुछ डंके की चोट पर करेगा।




अनामंत्रित अँधेरे की कथा      


जो अँधेरा हमारे आसपास 

जम कर ठोस हो चुका है 

वह अनांमत्रित था लेकिन अप्रत्याशित नहीं 

पिछले कई वर्षों से धीरे-धीरे  

वह हमारी ओर आता रहा था

पर हमारी आँखें ही उसे देख न पाई 

पदचाप सुनने में चूक गई श्रवण-तंत्रियाँ 

किताबें उस अध्याय के जिक्र से बचती रहीं 


इतिहास यद्यपि महानायकों से पटा पड़ा है 

लेकिन कुटिल सेंधमारों ने 

इतिहास की दीवारों पर अपनी कामयाबी घोषित कर दी 


बेशक हमने उसे प्रत्यक्षतः आमंत्रित नहीं किया था 

लेकिन हमारे रक्त में छिपे संस्कारों ने 

उसे गुप्त इशारों से बुलाया था 

विज्ञान और ज्योतिष के द्वन्द्व में फँसे दिमाग को कूटकर 

उसने आने का रास्ता बनाया 

समृद्धि के सपनों से खुराक पाई 

धर्म उसके कुशल ढोलकी थे 


हम भूख से बेहाल थे 

लेकिन उठे और उसके लिए तोरण पताकाएँ सजाने लगे

यह जानते हुए भी  

कि मारने के अचूक हथियार हैं उसके पास 


हमने ढोलक की थाप सुनी भी थी

लेकिन गांधी को नोटों में पाकर आश्वस्त थे 

हमें भरोसा था अपने संविधान पर 

उड़ती हुई तितलियाँ  

हमें यकीन दिलातीं कि रंग-बिरंगी यह दुनिया 

रंग-बिरंगी ही रहेगी 


जब वह तारकोल के अनगिनत ड्रमों के साथ आया 

हमने सोचा कि सड़क बनाने आया है 

लेकिन उसने उड़ेंल दिए सारे ड्रम 

घास के मैदान और गीतों की पंक्तियों पर 


हमारे तलुए धँस गए पिघले तारकोल में 

दिमाग कल्पित आसमान में चक्कर काटने लगा 

हमने अँधेरे की बादशाहत को सलाम कहा 

और उसके लिए ढूँढ़ लाए एक चाबुक


हमें समझा दिया गया था 

कि चाबुक हमारे समय का अनिवार्य सत्य है 

और ‘सड़ाक्’ दरअसल देह में उभरी

भविष्य के रक्तपुष्प की मोहक ध्वनि।




पहचान 

 1.

इसकी पर्याप्त संभावना थी कि पहचान लिया जाऊँगा 

इसलिए चेहरा निकालकर मैंने कोट की भीतरी जेब में रख लिया 

अब गर्दन के ऊपर लगभग चौकोर सपाट जगह थी 

बिल्कुल कोरी 

ऐसे बाहर निकलने के कई फायदे थे 


समस्या लेकिन और बढ़ गई जब 

कोरी जगह पा लोग अपना लेखा लिखने लगे 

अमिट होने की इतनी तीव्र तड़प से भरे हुए थे वे 

कि घायल कर देने की हद तक गहरा लिखते 


निपट अकेले में खतरा टला जान 

जब मैं अपना चेहरा पहनता 

तो उसकी पतली झिल्ली के पीछे से गहरे लिखे अक्षर झाँकते 

अब मैं जो नहीं हूँ वही लगता हूँ 

बनिस्पत इसके कि जो मैं हूँ 


हालत यह है कि पहचान भी नहीं पा रहा हूँ खुद को 

आईनों ने मेरी मदद करनी छोड़ दी है 

बस ख्वाबों में कभी कभी देख पाता हूँ खुद को 

ख्वाब लेकिन स्मृति के उजाले में धुँधले हैं।


2.


असल के साथ पहचाने जाने का असीम भय था 

तय किया कि तरह तरह से रोज़ दिखना है 

कभी नदी निहारते कभी आसमान ताकते 

कभी किताब पर झुका सिर 

कभी घाटी की गहराई में झाँकती आँखें 

कभी खेत में पाया जाता कभी रेस्तराँ में 

जंगल और मॉल में इस तरह खड़ा होता 

कि पता न चले किसके पक्ष में हूँ 


मैं शांति के पक्ष में लिखता और जोर से गाता – 

‘जय हिन्द की सेना’ 

‘लिखा ही सत्य है’ के पक्ष में नारे लगाकर 

संपर्क अभियान में निकल पड़ता 


मैं एक तरह से नहीं पहचाना जाऊँ 

यही मेरी पहचान है अब।


 3.


बहुत बिकने की इच्छा से इस कदर ग्रस्त हूँ 

कि बहुत दिखता हूँ 

जहाँ ज़रूरत नहीं 

वहाँ भी दीख पड़ता खीसे निपोरता

 

बहुत दिखकर ही छुपाता हूँ 

अपनी असल पहचान।





बसंत त्रिपाठी

जन्म 25 मार्च 1972 भिलाई नगर छत्तीसगढ़ में

शिक्षा एम.ए. (हिन्दी) , पी-एच.डी.

प्रकाशन मौजूदा हालात को देखते हुए, सहसा कुछ नहीं होता, उत्सव की समाप्ति के बाद, नागरिक समाज, घड़ी दो घड़ी (कविता), शब्द (कहानी), प्रसंगवश (आलोचना) राष्ट्रभाषा का सवाल, डॉ. रामविलास शर्मा : जनपक्षधरता की वैचारिकी, मीरांबाई, मुक्तिबोध, कामायनी, श्रृंखला - क्रांतिकारियों का जीवन दर्शन (संपादन)

समकालीन हिंदी कविता में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘सूत्र सम्मान’ 2007. 

‘लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान’ 2011 

नागपुर के श्रीमती बिंझाणी महिला महाविद्यालय में 22 वर्ष अध्यापन के पश्चात वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापन

पता-302, बृज हरि अपार्टमेंट, ड्रमण्ड रोड, अशोक नगर, प्रयागराज-211001 

मो. 9850313062

ई-मेल basantgtripathi@gmail.com


Comments

  1. इन कविताओं में चेतना बनाम राजनैतिक चेतना का इलाक़ा बिल्कुल आज में खुलता हुआ आगामी कल की शिनाख़्त करता है।

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  2. सभी कविताएँ बहुत बेहतरीन और समय की साक्षी हैं --
    पहली कविता कवि और पाठक से जीवन बचाना मांगती है --

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  3. पहाड़ देखकर लौटा हूं, तुम्हारे कंधे बहुत कमज़ोर हैं कवि जैसी पंक्तियां बसंत त्रिपाठी की कविताओं में उनकी रचना,-शैली की मिसाल है यही उनकी कविता को अनूठा बनाती है । उनकी कविताओं में प्रवेश करते ही रचनात्मक-सुख महसूस होने लगता है और धीरे से कविता प्रश्ननाकूल होने लगती है।बढ़िया शैली से सृजित कविताएं। अभिनंदन कवि मित्र बसंत ।

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  4. कैलाश बनवासी12 October 2025 at 01:32

    शानदार कविताएं 🌷🌷
    अपने समय की दुरंगी, चौरंगी, बहुरंगी चालाकियों,क्षद्मों को पूरी निर्ममता से झीने व्यंग्य,तंज से उधेड़ते और आत्म भर्त्सना की आड़ ले उनकी अदिखती भयानक भर्त्सना,उनका असल चेहरा दिखाती कविताएं।
    अंतिम तीन कविताएं इसकी दमदारी से तस्दीक करती हैं।
    बधाई 🌹🌹🌹

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  5. बहुत कम कवि ऐसे होते हैं जिनके पास समय को टटोलने की नब्ज़ होती है और जिनकी कविताओं की पंक्तियों में हमारे समय का सच शामिल होता है।बसंत जी इसीलिए मेरे प्रिय कवि हैं। बेहद मारक कविताएँ हैं ।जितनी अच्छी कविताएं हैं,उतनी ही सुंदरता से आपने प्रकाशित भी किया है शंकरानंद जी ।धन्यवाद आपको भी💐

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  6. ज्योति कृष्ण वर्मा13 October 2025 at 23:08

    अच्छी कविताएं हैं। हार्दिक शुभकामनाएं।

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  7. बेहतरीन कविताएं

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