नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएं

 

नरेन्द्र पुण्डरीक 


नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएं हमारे समय के उस सच को बयान करती हैं जो कड़वा और चुभने वाला है।सीधी सरल भाषा में हमारे समय का जो विद्रूप चेहरा कविताओं में दिखता है वह बेचैन करने वाला है।ये और बात है कि इस बेचैनी को ध्वस्त करने के विकल्प के रूप न जाने कितने हथियार बाजार और व्यवस्था के पास उपलब्ध हैं जो एक पल में बधाई और एक पल में शोक के जाल में फंसा कर सबकुछ उलट पलट देने में सक्षम है।ये कविताएं उस चालाकी की तरफ भी इशारा करती हैं।


पानी को चुना

             

मेरे पुरखों ने नदी चुनी 

लिहाजा यह साफ है कि 

उन्होंनें पानी को चुना ,


पेड़ को चुना यानी

छाया को चुना और 

सुस्ता कर चलने को चुना 


रात आई तो 

एक साथ रहते हुए 

तारों को चुना और 

रात को बूझने के लिए 

उन्हें नाम लेकर बुलाया ,


यह सब करते हुए 

इस विशाल धरती में 

अपने लिए एक टुकड़ा चुना 

और उसे अपना देश कहा ,


जिसे पहन कर 

अपनी देह को ढ़का 

उसे अपना देश कहा,


नदी ,पहाड, चिड़िया,चुनगुन 

फूलों और पेड़ों से बातें की 

उन्हें अपना गीत कहा ,


कठिन अंधेरों में जब 

एक दूसरें की आंखें 

चमकी उसे अपना प्रेम कहा । 


सबके चेहरे में 


भादो कुवांर में कास के फूल 

गुम्मी ठर्रा की पुरुष गंध 

हरे में लहराता कनेर का पीला रंग 

धान में दूध की गलेथ 

सुथरी नदी में ठहरा आकाश 

सुबह झाडू हाथ में लिये 

घरों की डयोढी में 

उनींदी खड़ी बेहरियां 


मुझे लगता है कि मैं 

कविता लिख कर कुछ और 

ठीक कर सकता हूं 

जता सकता हूं कि धरती में 

कुछ और 

और अच्छा है 


मैं अपने मन को हिलाता हूं 

कुछ और इधर-उधर 

लहरे उठ कर दिमाग से टकराती हैं 

सपनें टूटतें हैं और 

दुख की छवि उभरती है 


मुझे बुझे हुये चूल्हों की राख समेटती 

औरतों के हाथों की रेखायें और 

धुंधली होती जाती दिखाई देती हैं 

लेकिन भूख फिर धीरे-धीरे 

लिपे पुते चूल्हों में आग सुलगाती है 

जीवन के तारतम्य में 

बाजरे के भुट्टे फिर लद फद होते हैं ,


सुख की झलक जीवन में फिर 

हल्के हल्के झिलमिलाती है और 

धरती की पुलक भरी गंध की ओर 

लौटनें लगते हैं फिर आकाश वासी 


कविता तकलीफ में रो सकती है 

गुस्से में धधक सकती है 

कविता का चेहरा 

सबका चेहरा है और 

सबके चेहरे में 

कुछ न कुछ होती है कविता ।





मैं मर चुका हूं 

                  

मैं मर चुका हूं 

ठीक से उलट - पुलट कर 

मैें देख चुका हूं कि

मैं मर चुका हूं,


देख लो आंखों से 

कुछ दिखाई नहीं रहा है 

न कान से कुछ सुनाई दे रहा है ,


हाथ अब बिल्कुल नहीं उठते 

किसी को बचानें के लिए 

न पैर बढते हैं 

आगे जाने के लिए ,


मुंह खुलता है केवल 

खाने के लिए 

मुंह से शब्द नहीं फूटते 

कुछ कहने के लिए 

यकीन करो कि मैं मर चुका हूं ।   




साबका 


सबसे पहले मेरा साबका 

उन स्त्रियों से पड़ा 

जो हवा-धूप के 

होते हुए भी 

अपने अंधेरे और सड़न में खुश थीं 


जिनके पति साल के 365 दिन 

देवता बने रहते थे 

इन्हीं स्त्रियों में मेरी मां थी 

जो हमसे अधिक 

शालिग्राम की बटिया के 

भोजन और पहनावे के लिए 

चिन्तित रहती थी 


इसके बाद मेरा साथ 

उन स्त्रियों से रहा 

जो दिन भर चरेर धूप में 

रहते हुये भी अपने दुखों को 

तनिक भी नहीं काट पा रही थीं ,


इन्होंने ही मुझे 

हवा-धूप-पानी के 

स्वाद के साथ 

चढ़ी धोतियों और पानी से 

उपजा इनका सौन्दर्य

अब भी कहीं 

मेरे भीतर सुरक्षित है,


चालीस साल बाद भी जिसे

नहीं व्यक्त कर पाए शब्द 

बिंब नहीं उठा पाए 

जिसका बोझ 

प्रतीक नहीं ठहर पाए 

जरा भी जिसके सामने 

कुछ भी कहें मर्मज्ञ 

मैं इसे कविता में 

रख रहा हूं जस का तस ।


सब एक ही जैसे थे 


सब एक ही जैसे थे 

न कोई छोटे लगते थे न बडे़

सब के घर एक ही जैसे थे 

कच्चे खपरैल से ढके 

बरसात में पानी से बचने के लिए 

खिसकाते रहते थे सब अपनी चारपाईयां


सबके कपड़े लगभग एक ही जैसे थे 

थोड़ा सा कुछ के कम फटे 

कुछ के ज्यादा 

पर सब में मैल की परत 

एक जैसी थी 


सब एक दूसरे के घर का 

सब कुछ जानते थे 

सब का रोटी पानी 

लगभग एक जैसा था ,


खेल के मैदान में तो हम उनके 

आगे ही रहे मित्रता का बोध होने पर 

जानबूझ कर हम हो जाते थे पीछे

इसका संज्ञान उन्हें भी रहता था 

सो सब एक दूसरे के कंधे पर 

रख कर हाथ चलते रहे ,


स्कूल में आए तो आगे हमें नहीं

उन्हें बैठाया गया 

तब हमें मालूम हुआ 

हम और वे अलग थे ,


इसके बाद हमें यह बोध 

लगातार कराया जाता रहा 

हम छोटे हैं और बडे़

उनके बडे़ होने की जो परिभाषा 

हमें बताई गई 

वह हमारे गले से कभी 

नीचे नहीं उतरी 

लेकिन हमें बिना किसी सीढ़ी के 

आदमी होने के नीचे

और नीचे उतारा जाता रहा 

और वे चढते रहे 

बिना किसी सीढ़ी के उपर और उपर ।




यकीन करो

                     

यकीन करो यह मुल्क 

मरे हुए लोगों का मुल्क है 

मरे हुए लोग 

खाते हैं पीते हैं 

हंसते हैं ,बोलते हैं ,गाते हैं 

रोज हाट बाजार जाते हैं 

सौदा सुल्फ भर भर झोलों में लाते हैं ,


मरे हुये लोग 

संख्या में बहुत अधिक होते हैं 

लेकिन मुट्ठी भर लोगों के 

गुलाम होकर जीना पसंद करते हैं ,


इन मरे हुए लोगों की 

बातों की न पूछिये 

मरे हुए लोग आपस में 

बडे़ तीसमार खां होते है 

बूंदी का एक किला 

रोज ढहाते हैं ,


गोरी और गजनवी यही थे 

अकबर और औरंगजेब की 

सेना भी यही थे 

क्लाइव और डलहौजी की 

तोपों में यही गोले भरते थे 

यही चुन चुन कर 

लगाते थे निशानें ,


यह मरे हुये लोग 

रात के अंधेरे में 

मुल्क का फाटक खोलते थे 

अपने किले खुद ढहाते थे


मरे हुए लोगों को 

ईरानी -तूरानी

गोरे और काले से 

मतलब नहीं होता 

जो गद्दी में आता है 

उससे ही होता है 

इनका सगा नाता 

सगा नाता निभाते निभाते 

यह मरे हुए लोग 

अपना ताबूत खुद बनाते हैं और 

खुद उसमें दफन होते है ,

यह मरे हुए लोग 

भूख में हंसते हैं 

बेकारी में ठहाका लगाते हैं ,


यह मरे हुए लोग 

विधान के हर खांचे में 

फिट हो जाते हैं 

वैसे ही मोड़ लेते हैं 

अपनें हाथ-पांव 

वैसे ही अपने पेट में 

घुसा लेते हैं अपना सिर 

बेहद कमाल के होते हैं 

यह मरे हुए लोग । 


नरेन्द्र पुण्डरीक 

                     

जन्म - 15 जुलाई 1953 ,बांदा , 

ग्राम - कनवारा केन किनारे बसे गांव में 

समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में से।कविता के महत्वपूर्ण आयोजनों में भागीदारी।

कविता संकलन - ‘ नंगे पांव का रास्ता 1992, सातों आकाशों की लाड़ली , 2000, इन्हे देखनें दो इतनी ही दुनिया’ ,2014, ‘ इस पृथ्वी की विराटता में ’, 2015, इन हाथों के बिना ,2018 ,समय का अकेला चेहरा 2021, केरल राज्य सरकार की केरल पाठावली में हाईस्कूल के पाठयक्रम कविता संग्रहीत वर्ष 2016,शंकराचार्य वि0वि0कालड़ी में एम0 ए0 में चुनी हुई कवितायें और केदार:शेष -अशेष , पाठयक्रम में स्वीकृत । पंजाबी , बांगला अंग्रेजी एवं मलयालम आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित ।  

आलोचना - ‘ साहित्य: सर्वण या दलित ’ 2010, मेरा बल जनता का बल है ,2015 केदार नाथ अग्रवाल

के कृतित्व पर केन्द्रित । 

संपादन- छोटे हाथ, 2007 , मेरे साक्षात्कार ,2009, चुनी हुई कवितायें -केदारनाथ अग्रवाल2011,केदारःशेष

अशेष ,2011,कविता की बात ,2011, उन्मादिनी ,2011, कहानी संग्रह केदारनाथ अग्रवाल , प्रिये -प्रियमन

2011, केदार नाथ अग्रवाल और उनकी पत्नी के पत्र ,आराधक,योध्दा और श्रमिकजन-,कविता का लोक आलोक -2011 केदार:शेष -अशेष भाग -2 2014, ओ धरा रुको जरा ,पाब्लो नेरुदा की कविताओं

का अनुवाद ,केदार नाथ अग्रवाल। केदार नाथ अग्रवाल की विविध बिम्ब धर्मी कविताओं का चयन कर 6 काव्य पुस्तिकाओं का संपादन। 

सम्मान- वर्ष 2018 में रास विहारी न्यास द्वारा प्रथम रामधारी सिंह दिनकर सम्मान से सम्मानित 

वर्तमान में -केदार स्मृति शोध संस्थान बांदा के सचिव , ‘माटी’ पत्रिका के प्रधान संपादक एवं 

     केदार सम्मान व डा0 रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान के संयोजक 

       

पता - डी0 एम0 कालोनी , सिविल लाइन , बांदा - 210001 

        मो0 9450169568/8948647444



Comments

  1. नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं को पढ़ना जीवन और जगत के ऐसे सच से साक्षात्कार करना जिसे नाजायज रूप से ढकने-दबाने की कोशिशें होती रही हैं। नपुंसक सोच आदमी को मुर्दे में तब्दील कर देती है। साकारात्मक सोच और चिंतन से ही जीवंतता आती है। जहाँ जीवंतता है वहीं जीवन है, ऐसा जीवन जो मनुष्य को मनुष्य होने लिए, आदमी को आदमी कहलाने के लिए बना है। जहाँ जीवन है वहाँ बेचैनी भी है तो छटपटाहट भी, हवा में लहराती मुट्ठी भी है तो आंदोलित करने वाला परिवर्तनकामी प्रखर स्वर भी।
    यू तो यहाँ प्रस्तुत सभी कविताएं उम्दा हैं पर, खासकर कवि की आत्मस्वीकृति पर केंद्रित "मैं मर चुका हूँ', सचमुच कई अर्थों-संदर्भों को उद्घाटित करने वाली कविता है। इस कविता से गुजरते हुए रोलां बार्थ की कृति 'Death of Author'" का स्मरण ताजा हो गया।
    'यकीन करो", 'सब एक जैसे थे " "पानी को चुना " भी गहरा प्रभाव छोड़ने में सफल हैं।
    सुबह की पटना यात्रा को ज्यादा सुखद बनाने के लिए स्वनामधन्य कवि और संपादक दोनों कों हार्दिक बधाई और शुभकामना!एं!

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  2. स्वप्निल श्रीवास्तव13 September 2025 at 19:33

    वैविध्य पूर्ण कविताएं।

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  3. चंद्रेश्वर13 September 2025 at 19:34

    बधाई एवं शुभकामनाएं। नरेंद्र पुंडरीक अच्छे कवि हैं।

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  4. हरगोविंद पुरी13 September 2025 at 19:35

    इस ब्लॉग में एक से बढ़कर एक कविताएं

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  5. हीरालाल नागर14 September 2025 at 03:32

    भाई नरेन्द्र पुंडरीक की कविताओं का सादापन भाता है। उनके अर्थों में सीधे पहुंचना भी अच्छा लगता है। मेरे पुरखों ने नदी चुनी और पेड़ को चुना। जैसी पंक्तियां जीवन शक्ति अर्जित की प्रक्रिया का एक हिस्सा हैं। जीवन प्रकृति से बंधा हुआ है। सबके चेहरे में जैसी कविताओं के जरिए वे प्रकृति में प्रवेश करते हैं। मरे हुए लोग कविता जीने का ही रूपक हैं।
    पुंडरीक की कविताएं समकालीन कविता कीपरंपरा को समृद्ध करती हैं।

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  6. प्रतिमा प्रसाद14 September 2025 at 09:28

    समय के विद्रूप चेहरे से आँख मिलातीं कविताएं प्रकृति की शीतल छांव से ठंडक का लेप भी लगातीं हैं ।

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  7. गगन मीत14 September 2025 at 09:29

    बहुत अच्छी कविताएँ, बहुत बधाई

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  8. शशिभूषण मिश्र14 September 2025 at 09:35

    जिसे पहन कर
    अपनी देह को ढ़का
    उसे अपना देश कहा,

    नदी ,पहाड, चिड़िया,चुनगुन
    फूलों और पेड़ों से बातें की
    उन्हें अपना गीत कहा

    अंदर तक धंसने वाली अर्थगर्भी कविताएं..इनमें विगत और वर्तमान का अंतराल है जो बहुत कुछ बदल देता है, इनमें अपने समय का नाज़ुक मिजाज दर्ज़ है । संयुक्तता के बिखराव की पीड़ा बाँचती इन कविताओं से गुजरना एक विकल अनुभव है..मूल्यवान लेनदेन करती कविताएं..

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  9. बेहतरीन कविताएं, बधाई
    शुक्रिया पढ़वाने के लिए 🙏

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  10. बहुत सुंदर सार्थक अलग-अलग तेवर की कविताएं हैं। बहुत अच्छा लगा पढ़कर बहुत शुभकामनाएं सर

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