पंकज शर्मा का आलेख

 

पंकज शर्मा 


बीते एक-दो दशक में स्त्री कहानीकारों का रुतबा बढ़ा है। इस बीच उनकी एक के बाद एक यादगार कहानियां सामने आईं जो न केवल चौंकाती हैं, बल्कि हिंदी कथा संसार में बेशुमार अनुपम जोड़ती भी हैं। इधर की स्त्री कथाकारों की कहानियों से ज्यादा-कम इत्तेफाक रखने वाले सुधी पाठक-आलोचक को भान है कि स्त्री कहानीकार आज किसी निर्जीव चौहद्दी में कैद नहीं हैं। वे पूरी तैयारी और जोखिम के साथ कहानी लेखन में बेजोड़ उपस्थिति दर्ज कर रही हैं। 
पंकज शर्मा का यह आलेख समकालीन स्त्री कहानी लेखन की पड़ताल की एक कोशिश भर है। इस लेख में एक तरफ स्त्री कहानी में व्याप्त विविधता की खोज तो है ही, यह 'अंडरलाइन' करने का उद्यम भी है कि स्त्री कहानीकार किस तरह से समाज में व्याप्त सत्ता के विविध प्रतिरूपों के विरोध में मुस्तैदी से खड़ी हैं। 

यहां वर्तमान समय की चुनौतियों के बरक्स कहानियों का विश्लेषण उपलब्ध है और पढ़ने में कथेतर का आस्वाद भी। यह आलेख हमारे समय की स्त्री कहानी का अंतर्पाठ हमारे सामने प्रस्तुत करता है।






                 अनुपस्थिति के विरुद्ध


                                                       -पंकज शर्मा

इसी वर्ष के शुरुआती दिनों में स्त्री रचनात्मकता को लेकर फेसबुक की दीवार पर लिखी गईं केवल दो पंक्तियों ने मानो कोहराम मचाकर रख दिया था। पंक्तियां प्रतिष्ठित पत्रिका 'वागर्थ' के संपादक और वरिष्ठ आलोचक श्री शंभुनाथ जी ने कुछ ऐसे लिखीं: 'आजकल स्त्री रचनाकार आमतौर पर सांप्रदायिक हिंसा को विषय क्यों नहीं बनाती हैं? आखिर धार्मिक कट्टरता पर अधिकांश चुप क्यों हैं?' प्रश्नवाचक चिह्न के साथ लिखे वाक्यों का एक आशय यह भी लगाया गया कि स्त्री रचनाकारों के पास विषयों का टोटा है अथवा उनके पास कुछ बंधे-बंधाए प्रसंग हैं जिनके इर्द-गिर्द वे दशकों से जमी हुई हैं। हकीकत में उनका सवाल कम, स्त्री रचनात्मकता पर सीधे-सीधे आक्षेप ज्यादा था। खासकर इधर उभरी स्त्री कथाकारों पर, लेकिन इसे गहरे ग्रहण किया गया। कई दिनों तक उन आक्षेपनुमा सवालों के मुकाबले जवाब का सिलसिला जारी रहा। कुछ लोगों ने अपने प्रचलित अंदाज में हल्की-फुल्की बातें सामने रखीं। कुछ लेखिकाओं ने बेहिचक खुद के लिखे की अर्जी लगाई। कुछ ने बेजोड़ उत्तर दिए! 

देखना दिलचस्प होता है कि सवाल का स्वरूप गलत रहे और जवाब सही आने लग जाएं। श्री शंभुनाथ जी के सवाल के जवाब में दूसरा प्रश्न सहज खड़ा हो गया कि क्या सचमुच स्त्री रचनाकारों के पास विषय वैविध्य नहीं है? उनके पास सृजन का कोई व्यापक आधार नहीं है? विनीत भाव से स्वीकार कर लेना चाहिए कि स्त्री कहानीकारों ने पिछले दो-एक दशक में समूचे हिंदी साहित्य के परिदृश्य को बदलकर रख दिया। यदि आज कोई हिंदी कहानी का इतिहास लिखे तो वह इतिहास स्त्री कहानीकारों के बैगर अधूरा रह जाएगा।

पिछले दशक में स्त्री कहानी का जो विराट फलक दिखाई पड़ा, उसे अलग से रेखांकित करने के अनगिनत प्रयास हुए,आज भी हो रहे हैं। आखिर ऐसा हुआ कैसे? हुआ ऐसे कि अचानक स्त्री रचनात्मकता का ज्वालामुखी अचानक सक्रिय हो गया। देखते ही देखते स्त्री कलम से निकली ताजातरीन बेहतरीन कहानियों से हिंदी कहानी की फिजा बदल गई। न चाहते हुए, अनमने ढंग से ही सही, उन कहानियों पर सघन विमर्श निकल पड़ा। लिजलिजी भावुकता और प्रतिक्रिया का मोह त्यागकर नई उभरी कहानीकारों ने जटिल मगर प्रतिरोध का मार्ग चुना। एक तरफ स्त्री कहानी की सुदृढ़ परंपरा थी ही-कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, प्रभा खेतान, ममता कलिया, सूर्यबाला और नासिरा शर्मा की बाद वाली पीढ़ी अपने समय में गहरी छाप छोड़ने में कामयाब रही। मैत्रेयी पुष्पा, गीतांजलिश्री, मधु कांकरिया, आशा प्रभात, उर्मिला शिरीष, अलका सरावगी जैसी कहानीकारों ने मानो अपनी रचनात्मक सिद्धि से समूचे स्त्री लेखन को जगमगाती रोशनी से भर दिया। फिर सारा राय, रजनी गुप्त, लवलीन, सुषमा मुनींद्र और मनीषा कुलश्रेष्ठ वाली पीढ़ी के पास कहने के लिए कहानी नई थी। अनुभव संसार अनोखा था। स्त्री विमर्श का घना साया था- नतीजतन उन्हें कुछ अनकहा कहने की आजादी मिली, कतिपय अवसरों पर रचनात्मक छूट मिली।


इसका सीधा असर हिंदी के पाठकों पर पड़ा और उनके हिस्से में अभिनव पढ़ने-सुनने-गुनने की सामग्री आई। सुप्त पड़ी हिंदी आलोचना की तंद्रा भंग कर स्त्री कथाकारों ने अपनी मौजूदगी का एहसास कराया। उधर राजेंद्र यादव की 'हंस' ने एक नया दांव खेला। बिना किसी अगर-मगर के यहां स्वीकार करना चाहिए कि 'हंस' की सवारी से स्त्री कहानी फॉर्मूलेबद्धता की शिकार हुई। कहानी 'मुक्ति कथा' से 'देह कथा' की ओर मुड़ गई। इस बयार को राजेंद्र यादव ने खुद अपनी किताब 'आदमी की निगाह में औरत' में बखूबी समझाया है। थोड़ी बेचैनी, चंद भटकाव और थोड़ा अतिरिक्त घटे के बाद स्त्री हिंदी कहानी राजेंद्रीय प्रभाव से थक गई। फिर क्या था? बाद के वर्षों में, खासकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंतिम वर्षों में स्त्री हिंदी कहानी का इलाका बदल गया। मानवीय गरिमा से युक्त एक से बढ़कर एक लाजवाब कहानियां पढ़ने को मिलने लगीं। पिछले दस-पंद्रह वर्षों की स्त्री कहानी पर नजर डालें तो दर्जनों स्त्री कथाकार अपनी विलक्षण कहन और संवेदन के साथ अपनी चमक बिखेरती दिखीं। इस फेहरिस्त में नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र, वंदना राग, ज्योति चावला, जयश्री राय, योगिता यादव, कविता, आकांक्षा पारे और विनीता परमार जैसे महत्वपूर्ण नाम हैं। (कुछ और नाम भी जरूरी हैं जिनका जिक्र अन्य किसी दूसरे आलेख में करने का प्रयास किया जाएगा। फिलहाल इन्हीं कहानीकारों की प्रतिनिधि कहानी के इर्द-गिर्द बने रहना ज्यादा श्रेयस्कर होगा।) 

एक समय था जब स्त्री कथाकार आधी आबादी के उत्पीड़न को स्थूल तरीके से उभारने में संलग्न थीं। इक्कीसवीं सदी में उभरी कथाकारों ने दशकों से चली आ रही इस परियोजना से खुद को अलग-थलग कर लिया। उत्पीड़न की जगह उन जिम्मेदार तत्वों को अपनी कहानी में हिस्सेदारी देने लगीं, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता रहा था।

लेख के शुरुआत में जिन दो प्रश्नों का जिक्र किया गया है, उनमें पहले सवाल का उत्तर खोजने के प्रयास में हाल की लिखी स्त्री कहानियों की तरफ जाना पड़ेगा। फिर यह देखकर हर कोई दंग रह जाएगा कि स्त्री कथाकारों ने सांप्रदायिकता को केंद्र में रखकर रूह कंपा देने वाली अनेक असाधारण कहानियां लिखीं। सिर्फ लिखीं ही नहीं, इस मर्ज की तह तक जाने का गंभीरतापूर्वक प्रयास भी किया है। यहां दो कहानी के हवाले से इसे देखना चाहिए। एक है वंदना राग की कहानी 'यूटोपिया' और दूसरी है ज्योति चावला की कहानी 'अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती।' यह ठीक है कि दोनों कहानियों का तेवर और मिजाज भिन्न-भिन्न है लेकिन लेख के शुरुआत में उठाए गए दो सवालों में से एक का जवाब है। 

वंदना राग ने अपनी कहानियों को किसी बने-बनाए खांचे का शिकार होने से बचाए रखा। उनकी चर्चित कहानी 'यूटोपिया' धार्मिक तौर से बंटे सामाजिक चेतना की निर्मिति को प्रस्तुत करती है। महज एक 'प्रशिक्षित' आदमी का जीवन में प्रवेश किस हद तक बेतरतीब और अस्त-व्यस्त कर सकता है, उसका नजीर 'यूटोपिया' कहानी में प्रतिबिंबित होता है।

'नज्जो' के परिवार में मां है, तीन-तीन भाई हैं। वह सबसे छोटी है तो अपनी जिद के आगे किसी को घुटने के बल खड़ा कर देने की बाल सुलभ ताकत भी है। उसकी अम्मा यह सोचकर हैरान रहती हैं: ' ये लड़की न जाने क्या गुल खिलाएगी?' फिर अपनी लाडली पर यकीन है: ' सीख लेगी लड़की जात सब जीवन के कायदे पाबंदियां, रोजा, नमाज, सब जल्द ही।' अपनी बेटी की ओर से आश्वस्त अम्मी को क्या मालूम था कि एक दिन उसका अपना बेटा ही यह कहते हुए उन्हें स्तब्ध कर देगा, 'अम्मी मौलवी साहब कह रहे थे, औरतों को नमाज पढ़ते वक्त सलवार कमीज पहनना होगा। साड़ी में नंगापन होता है।' बेटे की दलील से उभर भी न पाई थी कि शकीला दर्जन की बातों ने उनके निश्चय को जोरदार टक्कर मारी: 'मुहल्ले में लौंडों की फौज बढ़ती जा रही है। ये जो हिंदुअन के लड़के हैं न, ये आजकल ज्यादा चढ़-बढ़ गए हैं। वैसे भी जमाना खराब है, लड़की जात के लिए, क्या हिंदू क्या मुसलमान।' इधर नज्जो की अम्मा बदल रही थी, उधर नज्जो तेजी से बड़ी हो रही थी। 'प्रशिक्षित' मौलवी उस्मान अली की हिदायत का साया पड़ चुका था। उन्होंने नज्जो की अम्मा को बता दिया था कि उनकी लड़की कल देवी देखने गई थी। मूर्ति की छाया में ये लड़कियां खराब हो जाएंगी और नापाक भी।

उधर अच्युतानंद गोसाईं भी बदल रहा था। वह जमाना और था जब खाली पड़े मैदान में वह क्रिकेट खेलता था और नज्जो गेंद पड़कने के लिए भागती थी। अब उसे 'प्रशिक्षित' श्री राम मोहन की शागिर्दी में वीडियो फिल्म और भाषण सुनाया जा रहा था, ' टूटी-फूटी सी मस्जिद, उसके आस-पास हजारों कार सेवक, मस्जिद के ऊपर चढ़े लोग, चीखतीं आवाजें एक धक्का और दो...' अच्युतानंद गजब की दूरदर्शिता और कर्तव्यपरायण के चलते अज्जू भैया में तब्दील हो चुका। धर्म का नशा शराब के नशे से ज्यादा चढ़ता है और इतना असरदार होता कि वह उन्मादी बन जाता है। उसी उन्माद में वह कल्पना करता है मुस्लिम लड़कियों को उठाने में कितना मजा है। बाद में उसके शार्गिद नज्जो का अपहरण कर उसे भेंट कर देते हैं।

वंदना राग आहिस्ते से खबर देती हैं कि दोनों कौम में जहर घोलने वाले लोग बड़ी तादाद में हैं। उन्हीं लोगों के कारण ही भाईचारा जैसा सामाजिक भाव एक ऐसे यूटोपिया में तब्दील हो गया है, जिसे कभी हकीकत में नहीं बदला जा सकता है।

इक्कीसवीं सदी की स्त्री कहानीकार कबड्डी के खेल में 'रेडर' की तरह तो बिल्कुल व्यवहार नहीं करती हैं। वह किसी निर्धारित नियम से बंधी हुई भी नहीं हैं। उनके पास केवल कहानी की नहीं, कहानी के भीतर की कहानी कहने का सब्र है। इस वजह से उनके पास लंबी कहानी की जटिल संरचना को साध लेने का हुनर है। ज्योति चावला की कहानी 'अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती' इस बात का प्रमाण है। कहानीकार ने अपनी इस कहानी में न सिर्फ वर्जित विषय में प्रवेश किया बल्कि कहानी की कलात्मक बुनावट का एक उत्कृष्ट मानक भी प्रस्तुत किया है। कहानी चौरासी के सिख दंगों पर केंद्रित है। 


सिख दंगों पर बात चल निकली है तब स्वयं प्रकाश की एक असरदार कहानी 'क्या तुमने कोई सरदार भिखारी को देखा है?' याद हो आती है। दंगे की दहशत से खौफजदा सिख कौम ने सबकुछ लुटते-पिटते अपनी आंखों से देखा है। उनकी बेबसी-लाचारी की तस्वीर स्वयं प्रकाश ने खींच दी थी। उसी तरह ज्योति चावला की कहानी 'अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती' सिख कौम की चीख पुकार बनकर ही नहीं रह जाती बल्कि सदियों तक सुनी जाने वाली सिसकी बन जाती है।

यह कहानी चालीस साल पहले घटी त्रासदी की तरफ ले जाती है, जहां एक खुशहाल सिख परिवार है। इंदिरा गांधी के साथ घटी अप्रत्याशित घटना ने मानो समूचे देश को हिलाकर रख दिया था। सिख कौम को अच्छे से मालूम था, यह बहुत गलत हुआ है लेकिन हर सिख के प्रति गुस्से का भाव, घृणा और तबाह कर देने की इच्छा उनकी समझ से परे था। 

कहानी की प्रीतो और उनका परिवार भी खौफनाक हादसे का शिकार होता है। कहानी का परिवेश देश की राजधानी दिल्ली है। दिल्ली के नंद नगरी में बसा परिवार। परिवार मानो एक घर नहीं समूचा मोहल्ला ही है। घूमने-फिरने से लेकर एक चूल्हे में खाना बनाने तक का कारोबार मोहल्ले की खासियत है। सब मिल-जुल कर रहते हैं। सिख हिंदू और हिंदू में अंतर उस रोज हो गया जिस रोज कुछ सिरफिरों ने देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी। समूचा देश मानो खोल उठता है, और उसमें अनेक सिख परिवार होम हो गए। प्रीतो के परिवार को भरोसा था: 'जैसे ही कोई दंगाई हमारे घर की तरफ बढ़ेगा, पड़ोस वाले मिश्रा जी और शर्मा और सब लोग मिलकर इस आतंक को रोक लेंगे। आखिर हमारा कुसूर ही क्या था! लेकिन यह हमारा भ्रम था।' प्रीतो का समूचा परिवार भी उसी दंगे का शिकार हो जाता है। केवल बची रह जाती है इंदिरा गांधी की तरह बनने का ख्वाब देखने वाली प्रीतो। 

काश दंगाई उस तेरह बरस की लड़की को भी उसके मां-बाप और भाई के साथ जिंदा जला देते! कहानी की नैरेटर शुरुआत में जिक्र करती है यह कहानी वर्षों बाद भी सालती रही थी। उसने एक बार सोचा भी कि किसी जंगल के पेड़ के कान में या किसी घोड़े के कान में अपनी कथा कह देती! ऐसा होता तो प्रीतो की कहानी किसी को मालूम न चल पाती। 

किसी को मालूम नहीं है कि उसे जिंदा रखा क्यों गया? इस कल्पना से वह बेखबर है। एक अंधेरे कमरे में हंसी ठहाकों के बीच जो उसके साथ हुआ, उस वीभत्स घटना को झेल पाना असंभव था। तीन दिन बेहोश रहने के बाद उसे होश आता है। वह अपने घर की तरफ दौड़ लगाती है। वहां एक जले घर के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता। मां-बाप और दोनों भाइयों की जली अधजली लाशों को म्युनिसिपैलिटी वाले गाड़ी में लाद कर ले जा चुके थे। 

कहानी का मानो यहां इंटरवल होता है। पाठक चाहें तो थोड़ा सुस्ता लें। कहीं बाहर जाकर घूम आएं। क्योंकि प्रीतो के साथ अभी बहुत कुछ घटना बाकी रह गया है। अपने पूरे परिवार को खाक होते देखकर वह पंजाब चली जाती है, जहां उसके नाना -नानी हैं। दिल्ली का नाम सुनकर वह दहशत में आ जाती है। किसी तरह जख्म भरने शुरू होते हैं। साल दर साल बीतने लगते हैं। दंगे वाली घटना के ठीक दस साल बाद, 10 मार्च, 1991 को प्रीतो अपने जीवन के सबसे भरोसेमंद इंसान के साथ फिर दिल्ली लौटती है। वह इंसान सगा मामा है। सरकार द्वारा चौरासी के दंगे पीड़ितों को मुआवज़ा ले लेने का आइडिया भी उन्हीं का है। प्रीतो पहले इस प्रस्ताव को मान नहीं रही थी लेकिन मामा के समझाने पर तैयार हुई । दिल्ली लौटने पर पुरानी यादें रह-रह कचोट उठती हैं। नंद नगरी वाला घर, अमरूद के पेड़, बचपन में साथ खेलने वाले दोस्त, सब एक -एक कर याद आ रहे हैं।

प्रीतो के मामा अपने दोस्त के घर ठहरते हैं। देर रात तक दोनों दोस्त शराब पीते हैं। रात के अंधेरे में उसे महसूस होता है अंधेरे में उसके शरीर से कोई खेल रहा है। तत्काल पहचान पाना मुश्किल हो रहा है। प्रीतो को एकबारगी लगता है कि मामा के दोस्त ने जानबूझ कर उन्हें शराब पिला दी है ताकि वह जाग न सकें। दूसरे कमरे से आ रही रोशनी से मालूम पड़ता है वह हाथ किसी और का नहीं, उसके मामा का है। मामा के दोस्त ने पैरों को दबोच रखा है। कहानी का अंत एक गहरे सवाल के साथ होता है: क्या कभी स्त्री के लिए दंगे की त्रासदी कभी खत्म होगी? दंगे की पृष्ठभूमि पर लिखी इतनी कारुणिक कहानी है कि पाठक पढ़कर असहज हो जाए! इस कहानी की कहानीकार का रचनात्मक संघर्ष कमाल है। लगभग भुला दी गई घटना का ऐसा बितान रच दिया है कि ऐसा लगता है चौरासी का दंगा बीते कल की घटना है। अक्सर देखा गया है कि स्त्री कहानियों का ज्यादातर नैरेटर 'मैं' होता है। 'मैं' की आत्मिक पीड़ा कई बार एकलाप में बदल जाती है, कई बार 'मैं' की यातना सामूहिक यातना में रूपांतरित हो जाती है। इस कहानी की 'मैं' की यातना भी अकेले की नहीं है।

नीलाक्षी सिंह के पास कई ऐसी कहानियां हैं जो लंबे समय तक स्मृति पटल को छेक कर रखी। 'रंग महल में नाची राधा' उनकी प्रसिद्ध कहानियों में एक है। प्रसिद्धि को एक तरफ सरका दें तब भी उसके प्रभाव को दरकिनार कर पाना संभव नहीं है। यह इतनी प्रभावी कहानी है कि स्त्री कहानियों के 'लाउड टोन' को बदलकर रख दिया। स्त्री 'देह की महिमा' का बखान करने वाले विचारक भी इस कहानी को पढ़कर चकित रह गए। कहानी दीवानबाई के इर्द-गिर्द घूमती है। वह एक सुख परिवार की केंद्र बिंदु हैं। उनके व्यक्तित्व के दो पहलू हैं: पहला, वह 'किस्से की तरह चंचल' हैं। दूसरा, 'कहानी की तरह गंभीर।' दोनों पहलुओं का महत्व एक समान है। हालांकि दीवानबाई व्यक्तित्व का एक ही पहलू ज्यादा उभरा हुआ है। दूसरा दबा रहता है। जब तक दबा है तब तक समूचा परिवार खुशहाल है। समाज में इज्जत है। दबा रहने वाला पहलू जिस दिन उछलकर बाहर आया, सब खत्म। टूटे शीशे की तरह बिखर जाने को बेताब। 

दीवानबाई के साथ कुछ ऐसा ही घटता है। अपने कॉलेज के जमाने का प्रेम वह कभी नहीं भूल पाती। जबरन वैवाहिक जीवन में धकेल दी गई दीवानबाई दांपत्य जीवन के दायरे को समझती हैं। मन में भारी उथल-पुथल मची रहे, उसे पढ़ने किसी को नहीं देती। पति को भी नहीं। मन का रंग महल कितना अपना होता है! एक-एक दीवार के खंभे, शमादानों की रोशनी से जगमग श्वेत जहीन पर्दे-सब कुछ जाना-पहचाना। हर कोना खुशनुमा। उस रंग महल के 'कृष्ण' के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने की अदम्य इच्छा से लबालब दीवानबाई। और वास्तविक संसार का 'रंग महल' कितना बदरंग। तमाम वर्जनाओं से नत्थी।

खुशहाल दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने के बाद छप्पन वर्ष की आयु में दीवानबाई को एहसास होता है कि उसने अपना सारा कर्तव्य का निर्वाह कर दिया है। परिवार के भरे-पूरे जीवन से वह रूखसत हो गई, तब भी परिवार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है। इसकी अनुभूति पहली बार उस समय होती है, जब पोता चिल्लाकर कहता है, 'दादी नहीं रहेगी तो हम पूजा करेंगे और प्रसाद किसी को नहीं देंगे।' दीवानबाई पोते के प्रत्युत्तर से दुखी होने के बजाय प्रसन्न होती हैं। वह सोचती हैं, 'कितना छोटा और सधा हुआ जवाब था। उनके सारे अन्तर्द्वंद, ऊहा-पोह, भीतरी उठा-पटक का जवाब इस नन्हें से बच्चे ने कैसे पलक झपकते दे दिया। कितना सही। कितना नपा-तुला। वह नहीं रहेगी, तब भी दुनिया उसी रफ्तार से चलेगी। कोई और ले लेगा उसका स्थान।' कुछ ऐसा ही पूछने पर सुदामा प्रसाद भी हंसते हुए कहा: 'अरे भई, तुम बड़ी भाग्यशाली कहलाओगी। अपने पीछे इतना सुखी घर छोड़ जाओगी। मैं तुम्हें मुक्ति दूंगा। और क्या चाहिए?' 

सुदामा प्रसाद को बनाने में स्त्री की भूमिका कितनी अहम थी, मालूम है? पहले उनकी मां-जिन्होंने अपने घर की खस्ता हालत को दुरुस्त करने के लिए मुंह ढककर ट्रेन की डिब्बों में मूंगफली बेचा करती थीं। उसी क्रम में हादसे की शिकार हुई, चल बसी। फिर पत्नी ने रात-दिन घर के काम से निजात पाने के बाद सादे कपड़ों में मोतियां टिककर धनार्जन किया। इन्हीं दोनों स्त्रियां की बदौलत वे वकील बने, फिर फिरे दिन।

सुदामा प्रसाद पत्नी को मुक्ति देने के लिए तैयार हैं मगर प्रेमी के साथ बचे जीवन में लौट जाए, इसके लिए वह राजी कैसे हो सकते हैं? निरुपमा रॉय अपनी किताब 'नागरिकता का स्त्री पक्ष' में बड़ी कमाल की एक बात लिखती हैं: 'घर के दायरे के पतन और इसके उद्धार का विमर्श इस रूप में सामने आया मानो यह स्त्रियों को अपने बारे में फैसला करने की क्षमता दे रहा हो। किंतु असलियत में वह इसमें कटौती कर रहा था।' दीवानबाई के मर-खप जाने से उन्हें (किसी को) ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है लेकिन अपने प्रेमी के पास लौट जाए जिसका वजूद सुदामा प्रसाद सहित किसी ने महसूस ही नहीं किया। दीवानबाई की प्रार्थना के एवज में वे अपने समूचे बल का प्रयोग करते हुए गला घोंटकर उन्हें मुक्ति मार्ग पर भेजने का प्रबंध करने लग जाते हैं। दीवानबाई को मुक्ति से रोक कौन सकता है? उन्हें रोकना संभव है? उन्हें अपनी मंजिल का पता मालूम है: 'मायके के तीन घर बाद।' नीलाक्षी सिंह ने अपनी इस कहानी के जरिए बता दिया कि स्त्रियां का केवल अपने मन के रंग महल में नहीं, अपने वास्तविक जीवन के रंग महल में प्रवेश करने का समय आ गया है। 


'क्या औरत एक उम्र के बाद सिर्फ और सिर्फ मां रह जाती है? क्या औरत हर उम्र में सिर्फ और सिर्फ मां होती है? नहीं?' नीलाक्षी सिंह की कहानी में यह सवाल बारंबार गूंजता है। सुपरिचित कहानीकार कविता की कहानी 'उलट बांसी' को इस सवाल के साथ जोड़कर पढ़ने पर 'समझ' की कुछ और दराजे खुलती हैं। कहानी में बुजुर्ग मां अप्रत्याशित निर्णय सुनाती है कि वह विवाह करने जा रही है। इस निर्णय को सुनते ही परिवार में धमाका होता है। बेटा मां के इस निर्णय का बहिष्कार करता है, उनकी शादी में हरगिज शामिल न होने बात कहते हुए सपरिवार लौट जाता है।

प्रारंभ में जब अपूर्वा को उनके भाई खबर की तरह बताता है। उसे लगता है सभी एक जगह जुटाने के लिए मां ने यह खेल खेला है। वह भी इस खेल में शामिल हो जाती हैं। लेकिन बात सच निकलती है। इस सच को सुनकर वह कुछ कहने सुनने की स्थिति में नहीं रह जाती है। पति अनूप को टेलीफोन पर इसकी सूचना देती है। पति की प्रतिक्रिया भाई की तरह होती है बल्कि उससे ज्यादा कठोर और आक्रामक। अपूर्वा को वह हिदायत देता है कि तत्काल वह लौट आए। वह मां की शादी के बाद लौटने की बात कहती है। अब उसे अपनी मां के फैसले की कीमत चुकानी है। वह अपनी मां की शादी करवाकर लौटती है लेकिन पति उसे लेने स्टेशन नहीं आता है। अपूर्वा समझने का यत्न करती है, जीवन के 'एक यात्रा में कितनी और यात्राएं समानांतर चलती हैं।' और स्त्री जीवन की ऐसी यात्राएं सपाट तो बिल्कुल नहीं होतीं। नि: संदेह कथाकार कविता ने अपनी कहानियों के जरिए स्त्री कहानी को गहराई दी है। 'उलटबांसी', 'मेरे नाप के कपड़े' जैसी अनेक कहानियों की कहानीकार के पास कहन की जादुई शैली है। भाषा का वैभव है और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है-वास्तविक आधुनिकता का बोध। उनकी कहानियां जीवन के कटु यथार्थ से सीधे-सीधे निर्गत होती हैं इसलिए परंपरागत सोच को जोरदार टक्कर मारती हुईं आगे निकल जाती है। 

वर्तमान स्त्री कहानी के परिदृश्य में अल्पना मिश्र एक जाना पहचाना नाम है। उनकी एकबहुचर्चित कहानी है 'छावनी में बेघर। कहानी में सेना में कार्यरत सैनिक के परिवार की अनिश्चितताओं का मार्मिक अंकन हुआ है। कहानी कई स्तर पर आगे बढ़ती है। पहले छावनी में 'घर' होने की विडंबना, फिर बसे-बसाये परिवार को अचानक घर खाली करने का आदेश से उत्पन्न जटिलताएं सामने आती हैं। दूसरे स्तर पर 'मीनू' का आत्म संघर्ष, अकेलापन और अतीत की यादें, जिनके सहारे उसे मरना-जीना है। कहानी का तीसरा स्तर घनघोर रूप से राजनीतिक है। यह ठीक है कि कहानी में ये तीनों स्तर एक-दूसरे से इस कदर गुंथे हुए हैं कि उन्हें अलग करके देख पाना कठिन है। 

कहानी में इस बात का जिक्र है कि मेजर कुमार कारगिल के युद्ध में तैनात हैं मगर उनकी गतिविधियों का बयान कहीं नहीं आया है। कहानी के अंत में मालूम चलता है कि वे पैट्रोलिंग के लिए निकले थे और दो दिनों से उनका पता-ठिकाना मालूम नहीं हो पा रहा है। दूसरी तरफ मीनू का युद्ध कई स्तरों पर प्रतिबिंबित हुआ है।

अल्पना मिश्र की कहानियों के कथानक सीधे, सरल या सपाट नहीं होते हैं। कई बार तो कथानक ही पाठक को घनघोर रूप से चमत्कृत कर देता है। एक जरूरी बात और, उनकी कहानियां सिर्फ स्त्री-विमर्श की चौखटों में नहीं अटती, समसामयिक परिघटना को आधार बनाकर उन्होंने अनेक असरदार कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों के केंद्र में आज का मनुष्य है जो किसी 'वाद' अथवा 'विमर्श' का मोहताज नहीं है। कहानीकार को मालूम है कि स्त्री का संघर्ष कभी मोनोलिथक (एकाश्मिक) नहीं होता है। उसे कई मोर्चों पर एक साथ संघर्ष करना पड़ता है। 

अपनी पीढ़ी में योगिता यादव सशक्त कहानीकार हैं। इनकी कहानियां भले हो-हल्ला नहीं मचाती, मगर खामोश भी रहने रहने देती। अलग मिजाज की उनकी कहानियों का कथ्य चिर परिचित हो सकता है लेकिन अंतर्वस्तु से परिचय कहानी की आखिरी पंक्ति पढ़ने के बाद ही मालूम चल पाता है। योगिता की कहानी में आगे क्या होगा, इसका पूर्वानुमान लगा पाना कठिन है। इनके यहां नकलीपन की जगह नहीं है। सच के लिए अड़ी रहने वाली योगिता यादव की पात्र किसी भी परिस्थिति में हार नहीं मानती हैं। जीवन के उजले-काले पक्ष को स्वीकार करते हुए घोर निराशा के दौर में भी आत्महंता नहीं बनतीं। जीवन के रण में जूझने का शऊर उनके पात्रों को आता है। राजधानी के भीतर बाहर' कहानी इस बात का प्रमाण है।

कहानी के केंद्र में है दिल्ली का परिवेश। जानी-पहचानी दिल्ली। जीवन के हर पक्ष में खुलापन है, रफ्तार तेज है। नई पुरानी दिल्ली के ठीक सटी एक और दिल्ली है। इस दिल्ली से साबका हर किसी का नहीं पड़ता है। उस दिल्ली में कुछ भी खास नहीं है। ऊंची इमारतें नहीं, सरकारी दफ्तर नहीं, पर्यटन का कोई अवशेष नहीं, है सिर्फ गांव जैसा परिदृश्य। विकास की पटरी पर दौड़ने के लिए तैयार। पहली वाली नई-पुरानी दिल्ली से दूसरी वाली दिल्ली का मामला थोड़ा जटिल है। एक हद तक उलझा हुआ भी है। अनेक वर्जनाओं से लिपटी यह दिल्ली किसी को अचंभित कर सकती है। यहां देश के संविधान से ऊपर का अघोषित लागू सख्त कायदा कानून है। इस कहानी में ज्यादातर हिस्सा शहर के बाहर वाली दिल्ली का है जिसकी कल्पना पहली वाली दिल्ली को जानने वाले लोग नहीं कर सकते हैं।


उसी दूसरी वाली दिल्ली की यह कहानी है। कहानी के केंद्र में है सुनीता। वह दिल्ली जो किसी की आँखें नहीं चौंधियाती, दिमाग झन्ना कर रख देती है। दो छोटी बहनों के साथ बड़ी हुई सुनीता की आकांक्षाएं जब तब कूद फांद कर बाहर निकलती हैं। मां ने लड़कियों वाले कॉलेज में दाखिले के लिए फॉर्म भरने को कहा, लेकिन उसने बस उन्हीं कॉलेज को छोड़कर सभी लड़कों वाले कॉलेज का फार्म भर दिया और पहुंच गई अपने पसंदीदा कॉलेज की दहलीज पर। कभी अंग्रेजी की रीढ़ तोड़ने का प्रण लेती है, कभी बस के शीशे फोड़ देती है। अफसोस होने पर खुद को समझा भी लेती है: 'शीशे नहीं अकड़ फोड़ी थी उस दिन हमने उसकी।' एक समय गांव की लड़कियों के लिए आदर्श थी सुनीता, बाद के दिनों में हर दायरे को लांघने वाली लड़की बनी और सबकी नजरों में खटकने लगी। जिस आत्मविश्वास के साथ उसने लड़कों वाले कॉलेज में दाखिला लिए था, उसका आत्मविश्वास का अधिकांश हिस्सा घर वालों को समझाने बुझाने में लग रहा था। लेकिन उसने अपने परिवार को समझा लिया था कि पहले पढ़ाई करेगी, फिर शादी बल्कि बिना शादी किए भी रह सकती है। कॉलेज में ब्वॉयफ्रेंड के बिना भी होने का दावा ठोक देती। लाइब्रेरियन के नाम पूछने पर सरनेम 'सिंह' जोड़कर बता देती है-सुनीता सिंह। उसे भरोसा था कि चेहरे पर जाति नहीं लिखी रहती।

मिट्टी के बर्तन बनाने वाले परिवार को लगता 'छोरी हाथ से निकल गई' लेकिन अपनी दोनों छोटी बहनों की वह नायिका है। सुनीता को वर्जनाओं से रहित दूसरी दिल्ली लुभा रही थी। केमेस्ट्री ऑनर्स की पढ़ाई कठिन जरूर लगती है पर आटा चक्की वाले सुरेश से विवाह कर लेने से ज्यादा आसान थी। वक्त के साथ साथ दूसरी वाली दिल्ली धीमे ही सही, बदल रही थी। जमीन के भाव आसमान छूने लगे थे। घर के बाहर लंबी चौड़ी कार खड़ी होने लगी। लेकिन मानसिकता पीछा छोड़ने को राजी नहीं है। मां-बाप बदलने को तैयार नहीं है। गांव बदले, न बदले-सुनीता ने परिवार के इंकार को स्वीकार करना छोड़ दिया। नतीजतन आटा चक्की वाले जगदीश से सबसे छोटी बहन श्वेता का विवाह तय हो गया। उससे बड़ी सोनू भी विदा कर दी गई। बची रह गई सुनीता। अपमान, आत्मग्लानि के बावजूद उसने तय कर लिया था चाहे कुछ भी हो जाए, वह पढ़ाई नहीं छोड़ेगी और जब तक पढ़ाई खत्म नहीं हो जाती तब तक शादी नहीं करेगी।

दिल्ली के बाहर वाली दिल्ली के रस्मो रिवाज, कायदा कानून से ऊपर कुछ नहीं हो सकता। एक बेटी का इंकार, दूसरी बेटी झेलती है। श्वेता की कम उम्र में शादी, फिर जुड़वा बच्चे की मां बन जाने की प्रक्रिया ने उसे मानसिक अवसाद की तरफ धकेल दिया। फिर अचानक पिता की मौत से सुनीता और बड़ी हो जाती है। घर की गार्जियन वाली हैसियत होने के बाद भी सुनीता का प्रतिरोध कम नहीं होता है। सुसराल में श्वेता हालत देख बच्चा सहित अपने घर फिर उठा लाती है। कुछ दिन बाद श्वेता वापस ससुराल पहुंचती है लेकिन 'बेटियों के कुनबे से आई बेटी ने यहां भी बेटी जन दी...निपूती की छोरी ने आके हमारा भी कुनबा खराब कर दिया' जैसे सास का उलाहने सुनने वाली श्वेता ज्यादा विकट स्थिति झेलने लग जाती है। बच्चे को सुनीता अपने पास रखने का निर्णय लेती है। कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाकर अपना घर संभाल लेने वाली सुनीता अपने संस्थान में सबसे कब उम्र वाली है जबकि गांव में सबसे ज्यादा उम्र की बिनब्याही लड़की वाली पहचान है। यह उस दिल्ली की कहानी है जिस दिल्ली की आधुनिकता देख हर कोई मोहित हो उठता है। योगिता यादव ने अपनी कहानी में राजधानी का एक ऐसा चेहरा दिखा दिया है जिसकी कल्पना दूर दूर तक किसी को नहीं हो पाती है। 

जयश्री रॉय की कहानी 'मोहे रंग दो लाल...' वासुदेव कृष्ण की नगरी वृंदावन में रहने वाली हजारों-लाखों विधवा स्त्रियों की सिसकियों की कहानी है, जिसे बाहर से बिल्कुल नहीं सुना जा सकता है। भीतर प्रवेश करते ही डरी-सहमी सिसकियों की भीषण चीत्कार गूंजने लग जाती है। माधव की धरती पर हजारों महिलाएं दिन-रात राधे-कृष्ण का जाप करती हैं लेकिन उनका जीवन भिखारियों की तरह होता है। 'चिन्मयी' बीमार है, मोतियाबिंद की वजह से लगभग अंधी हो चुकी है। उसका एकमात्र सहारा उमा ब्राह्मणी ही है जो महज तेईस की उम्र में विधवा होकर यहां आ गई। जिल्लत भरी जिंदगी, दुत्कार और तिरस्कार यहां रह रही हजारों स्त्रियों का भाग्य है। कब कोई गली बक दे, पीट दे, किसी का हाथ पकड़ कर अंधेरी गली में खींच ले, कुछ नहीं मालूम। सिर्फ एक बात मालूम है उन्हें: 'बिगड़ने को अब उनके पास कुछ नहीं है। न देह, ना भाग्य।' जीवन जानवरों के झुंड की तरह बीत जाता है और मौत उससे भी बदतर। सैकड़ों साल तक यहां कृष्ण का नाम जपने वाली सफेद सादी में लिपटी स्त्रियां बेरंग परलोक सिधार गई। कुछ की लाशें तो कुत्तों के हिस्से में आई, कुछ के टुकड़े-टुकड़े कर नदी में बहा दी गई। दासियां अपने कृष्ण को याद कर करके थक गईं, ऊब गईं लेकिन वे कहां सुनने वाले!

उनकी इस दुर्गति का कारण वही आश्रम वाले ही हैं। खुद का मन भर गया तो वेश्यावृत्ति की तरफ धकेल दिया गया। कोई लाइलाज रोग लग गया तो धक्के मारकर आश्रम से बेदखल कर दिया। ऐसा नहीं है कि सरकार द्वारा दी जाने वाली विधवा पेंशन, स्वधार योजना, अन्त्योदय अन्न योजना यहां तक नहीं पहुंची है, खूब पहुंची है। लेकिन उन सभी लाभों को आश्रम वाले झपट लेते हैं। उन्हीं के हाथों साबुन, तेल के नाम पर कुछ मिल जाए तो उसकी कीमत भी वसूली जाती है। माधव की इस नगरी में 'रह रही स्त्रियां कोने में कराह रही हैं। मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही हैं। बीमार होना, मर जाना कोई अनहोनी नहीं, दिनचर्या का हिस्सा है।' 

वृंदावन की होली दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बदलाव के नाम हुआ यह है कि अब वहां विधवा स्त्रियों को होली खेलने की छूट है। कहीं बाहर निकलने की आजादी है। लेकिन इस बदलाव के लिए बहुत इंतजार करना पड़ा है। वृंदावन में हजारों स्त्रियों की स्थिति आज भी कितनी भयावह है, कितना हृदय विदारक, इस कहानी को पढ़कर उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जयश्री राय ने उन स्त्रियों की कहानी लिखी है जिसके बारे में लोग जानते जरूर है लेकिन मुंह खोलने का साहस नहीं कर सकते हैं। इधर की स्त्री रचनात्मकता में यह साहस बेशुमार देखा जा सकता है। यह कहना जरूरी है कि जब-जब हिंदी में स्त्री विमर्श इधर-उधर छिटका, जयश्री रॉय पुनः खींचकर मूल विषय की तरफ ले आई।

आकांक्षा पारे उम्दा कहानियां लिखकर अपनी खास पहचान बनाई है। नए जमाने की चुनौतियां आकांक्षा पारे की कहानियों को कथ्य बनाती हैं। उनकी एक अत्यंत चर्चित कहानी है 'कंट्रोल+आल्ट+शिफ्ट=डिलीट।' कहानी का शीर्षक चौंकाता है लेकिन कंप्यूटर की दुनिया से इत्तेफाक रखने वाले लोगों के लिए यह भाषा रोजमर्रा का हिस्सा है। दरअसल, यह एक शॉर्टकट है, जिसके प्रयोग से कंप्यूटर में रखे किसी फाइल को स्थाई रूप से हटा देता है। पुनः उसे वापस लाना संभव नहीं हो पाता। 

सवाल उठता है ऐसे शीर्षक की वजह क्या है? वजह है आज का उलझा हुआ समय। कहानी में एक सूचना भर है कि सुदीप मलिक नामक कंप्यूटर इंजीनियर ने अपनी पत्नी अनुरीता सिंह की हत्या बेसबॉल बैट से मारकर कर हत्या कर दी है और उसके मृत शरीर को छोटे-छोटे टुकड़े काटकर डीप फ्रिजर में रखा दिए हैं। कहानी में हत्या का सुराग ढूंढने का प्रयास तनिक नहीं है। न यह बताने की चेष्टा है कि हत्या कितनी निर्दयता से की गई है। असल में, पूरी कहानी केवल संकेत देती है कि बेहतरीन शिक्षण संस्थान से पढ़ा व्यक्ति, अच्छा-खास मुकाम हासिल करने बाद वह किस तरह का वातावरण निर्मित कर लेता है कि हत्यारा बन बैठता है। 

कहानी में सुदीप कहीं नहीं दिखाई पड़ता, न उसकी पत्नी के बारे में कोई खास जानकारी है। कोर्ट रूम में दोस्तों ,परिचितों और अध्यापकों के बयान से उसके बारे में जानकारी मिलती है। सभी के बातों का निचोड़ यह है कि उसकी दुनिया निपट कंप्यूटर स्क्रीन थी। बाहर की दुनिया से वह वास्ता नहीं रखता था। कहानी में एक मार्के की बात आई है: 'कम्प्यूटर स्क्रीन के अलावा वे दुनिया को किसी और माध्यम से समझना ही नहीं चाहते।' सुदीप का कोई समाज नहीं है। धीरे-धीरे वह मनुष्य से कट चुका है। कंप्यूटर में हिंसक गेम डाउनलोड करने और उसे रात-रात भर जागकर हिंसक गेम खेलने का चस्का लगा हुआ है। सुदीप मलिक का आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। फिर कोई अचानक कैसे किसी अपने को इतनी बेरहमी से मार सकता है और कोई अपराधबोध तक नहीं होता।

दरअसल आकांक्षा पारे की यह कहानी नई पीढ़ी की बदली हुई संवेदना को आमने-सामने बड़ी खूबसूरती से रखती है। एक ऐसी नई पीढ़ी जिसकी दुनिया मोबाइल और कंप्यूटर में सिमट कर रह गई है। वह गेमिंग के हर उतार-चढ़ाव को समझना चाहता है। कोडिंग-डिकोडिंग में उलझा रहता है। प्रोसेसिंग की स्पीड से उसे जीवन में गति मिलती है। न कोई साथी, ना परिवार से मतलब, न समाज में हिस्सेदारी। हर वक्त कंप्यूटर पर उंगलियां थिरकती रहती हैं। वह सिस्टम तो ऑपरेट करना सीख लेता है, बाद में सिस्टम उसे ही ऑपरेट करने लगता है। सचमुच 'रोबोट इंसानों की तरह बनाए जा रहे हैं और इंसान रोबोट बनता जा रहा है।' कहानीकार ने मशीन से घिरे रहने वाले आदमी की मन: स्थितियों को अपनी कहानी में बारीक तरीके से समझाया है। 

हाल के वर्षों में स्त्री कथाकारों पर्यावरण संकट को केंद्र रखकर कहानियां लिखी है। उसी कड़ी में विनीता परमार की 'ट्रांसलोकेट @82सेंटीमीटर' कहानी बहुत महत्वपूर्ण है। 'ट्रांसलोकेट' वृक्ष को एक स्थान से जड़ सहित उखाड़कर दूसरे स्थान में रोप देने की प्रक्रिया है। '82' सेंटीमीटर से संबंध वृक्षों की सेहत से है। यह कहानी विकास के नाम पर विध्वंस से उपजी अफरा-तफरी को प्रतिबिंबित करती है। विकास का लावा फूटा तो एक और शब्द खूब चलन में आया-पलायन। गरीब, असहाय जनता एक स्थान से दूसरे स्थान पर शरण तलाशती रही। कभी सरकारी फरमान के कारण, कभी पूंजीपतियों की आशा-आकांक्षा के चलते। इस कहानी में भी पलायन आता है लेकिन इस बार किसी समुदाय अथवा व्यक्ति का नहीं-वृक्षों का पलायन। एकदम नई सोच से जन्मी विनीता परमार की यह कहानी एकदम से ठिठका देती है।

शहर में फोरलेन यानी लंबी-चौड़ी सड़क बनाने की योजना को अमलीजामा पहनाने का वक्त आ गया है। आस-पास काफी हलचल है। कुछ लोग मोटा मुआवजे पाकर खुशी से फूले नहीं समा रहे, कुछ आश्वस्त है कि फोरलेन सड़क बनने के बाद धंधा- पानी का जुगाड़ लग जाएगा। इन सब के बीच केवल एक आदमी विचलित है, नाम है उसका 'मोंटुवा'। वह सड़क के किनारे चाय की दुकान चलाता है। उसकी दुकान पर अक्सर चाय के बहाने भीड़ लगी रहती है, लोगों का आना-जाना जारी रहता है। हल्के-भारी मुद्दे चाय की दुकान पर सुलझते हैं। लेकिन इस बार का मुद्दा थोड़ा गंभीर है। 

'मोंटुवा' की चाय दुकान से होकर ही फोरलेन सड़क निकल रही है। संयोग से उसकी दुकान बच गई है। उसे ज्ञात है कि सड़क के किनारे जितने वृक्ष हैं उन सभी को काटकर हटा दिया जाएगा। इस बात से वह व्यथित है। संयोग से एक दिन उसकी मुलाकात एक वकील से होती है। मोंटुवा के अनुनय विनय के चलते वकील कोर्ट में पीआईएल लगा देता है। सुनवाई के बाद कोर्ट आदेश देती है कि जिस वृक्ष की मोटाई नब्बे सेंटीमीटर से ज्यादा है, उसे काट दिया जाए और उससे कम मोटाई वाले वृक्ष को कहीं दूसरे स्थान पर ट्रांसलोकेट कर दिया जाए। वास्तव में, यह एक जीत थी लेकिन पेड़ों को उस स्थान से हटाकर कहीं दूसरी जगह स्थानांतरित करने वाली बात भी नहीं जंचती है। लेकिन वह कर ही क्या सकता है। जब से कोर्ट का फैसला आया है तब से वह कई बार पीपल और पाकड़ के पेड़ को नाप चुका है। कभी वह पेड़ नब्बे सेंटीमीटर से कम हो जाता है कभी ज्यादा। 

कहानी में मोंटुवा का लगाव उन वृक्षों के प्रति देखने लायक है। कोर्ट के निर्णय के अनुसार वृक्षों को ट्रांसलोकेट करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। नदी के किनारे छोटे-छोटे गड्ढों में पेड़ों को ठूंसा दिया गया है। छह महीने के बाद एक दिन उन वृक्षों को देख भर लेने की इच्छा से वह उसी स्थान पर पहुंचता है। वहां का माजरा देख वह बिलख पड़ता है। नदी किनारे केवल ठूठ बचे रह गए हैं, 'वह एक-एक पेड़ को छूता है। कभी नीचे जड़ को खुरचता है। किसी पेड़ में हरेपन की निशानी नहीं।' कहानी का अंत उसकी विक्षिप्तता वाली अवस्था से होता है। जिस तरह से विनीता परमार ने एक आदमी का वृक्षों के प्रति प्रेम को दिखाया है, वह कमाल है। कहानी अत्यंत सधी हुई है। शुरू से अंत तक बंधे रखने में कामयाब रहती है। इससे भी बड़ी बात यह है कि जिस तरह से कहानीकार ने पेड़ के जीवन को मूर्त करने का प्रयास किया है वह काबिलेतारीफ है।

इधर के कुछ वर्षों में स्त्री सृजनात्मकता की जमीन से अनगिनत अमूल्य कहानियां प्रस्फुटित हुई हैं। उनका अनुभव संसार व्यापक है, इसलिए उनकी कहानियों में विषयगत विविधता भी है। उनमें कहानी के शिल्पगत प्रयोग को लेकर भी चौकन्नापन कम नहीं है। श्री शंभूनाथ जी ने स्त्री रचनात्मकता को लेकर जो आक्षेप लगाए हैं, स्त्री कहानी के अध्ययन के बाद वह स्वत: निर्मूल साबित हो जाते हैं। दर्जनों स्त्री कहानियों की कथा भूमि के केंद्र में सांप्रदायिकता है। उसके अलावा भी ऐसे अनेक वर्जित विषयों पर वह लिख रही हैं जो पुरुष कहानीकारों के बस की बात नहीं है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि कौन उस विषय लिख रही हैं, किसने इस विषय से मुंह मोड़ लिया है। असल मसला सरोकार की है। आज की स्त्री कहानीकारों ने सरोकार के करना न केवल चर्चित हुई बल्कि अपनी जबर्दस्त उपस्थिति भी दर्ज करवाई है। एक बहस जरूर प्रासंगिक हो सकती है कि उनकी रचनात्मकता को आलोचना की जिस कसौटी पर कसने का उद्यम किया जाता रहा है, वह कितना सार्थक है। बहरहाल, यह भूलना नहीं चाहिए कि स्त्री कहानीकारों को समाहित करने के बाद ही हिंदी कहानी का अधूरा इतिहास पूरा हो सकेगा।


पंकज शर्मा

चर्चित आलोचक। महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर आलोचनात्मक लेखन। कई वर्षों तक 'युद्धरत आम आदमी' से जुड़े रहे। 'पाखी' साहित्यिक पत्रिका के बतौर कार्यकारी संपादक और 'संवेद' पत्रिका का शिवमूर्ति विशेषांक के अतिथि संपादक भी रहे। राम शरण जोशी का 'मीडिया समग्र' पुस्तक का (पांच भागों में) संपादन सहित करीब छह पुस्तकों का संपादन। 'कथा समय' (पच्चीस भागों में) पुस्तक पर कार्य जारी।

Mob- 7033111596 





Comments

  1. शंभुनाथ जी का टारगेट हाल के कुछ वर्षों में होने वाले साम्प्रदायिक घटनाओं को लेकर है।
    यह सवाल तो उचित है कि नासिरा शर्मा के उपन्यास " जिंदा मुहावरे " की तरह आज के स्त्री कथाकार क्यों न कुछ लिखने की जरूरत समझती हैं।
    सरकार के विरोध में लिखने के जिगर चाहिए।
    आलेख के लिए साधुवाद।

    ReplyDelete
  2. अनवर शमीम6 September 2025 at 04:31

    युवा आलोचक एवं संपादक प्रिय पंकज शर्मा ने अपने आलेख में स्त्री कथा लेखन की बहुत ही बारीक पड़ताल की है।जिन महिला कथाकारों की कहानियों का ज़िक्र इस आलेख में है,वे सभी हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकार हैं।इस आलेख को पढ़ कर महिला हिंदी कथा लेखन की दशा और दिशा को समझा जा सकता है।इस बेहतरीन आलेख के लिए पंकज जी को बधाई और आपका आभार।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एकांत श्रीवास्तव की कविताएं

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं

प्रभात की कविताएं