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Showing posts from September, 2025

नीलेश रघुवंशी की कविताएं

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                                    नीलेश रघुवंशी   नीलेश रघुवंशी की कविताएं अपनी कहन शैली,विषय वस्तु और भंगिमा के कारण समकालीन कविता में एक अलग स्थान बना चुकी हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं इसका उदाहरण हैं। नीलेश रघुवंशी की कविताओं में स्त्री कविता का एक ऐसा मुहावरा है जो स्त्री के स्वप्न और संघर्ष को रेखांकित भी करता है तो उसमें दीनता का भाव नहीं है।यहां गर्व और आत्मविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हैं। साँकल कितने दिन हुए किसी रैली जुलूस में शामिल हुए बिना  दिन कितने हुए  किसी जुल्म जोर जबरदस्ती के खिलाफ नहीं लगाया कोई नारा  हुए दिन कितने नहीं बैठी धरने पर  किसी सत्याग्रह, पदयात्रा में नहीं चली जाने कितने दिनों से ‘कैंडल लाईट मार्च’ में तो शामिल नहीं हुई आज तक  तो क्या सब कुछ ठीक हो गया है अब ?  इन दिनों क्या करना चाहिए  ऐसी ही आवाज़ों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखना चाहिए  ‘चुप’ लगाकर घर में बैठे रहना चाहिए  या इतनी जोर से हुंकार भरना चाहिए कि निर्लज्जता से डकार...

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं

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  प्रेम रंजन अनिमेष   यहां प्रस्तुत प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं स्त्री जीवन के द्वंद्व और दुःख को एक नए कोण से उभारती हैं।ये एक तरह से शोक गीत हैं जिन्हें पढ़ते हुए विह्वल हुए बिना नहीं रहा जा सकता। अनिमेष की कविताएं ऐसी ही होती हैं। दुख का पता                                                    वह उस स्त्री को नहीं जानता था उसकी देह को जानता था उसकी देह को जानता था वह पर उसके दुख को नहीं  फिर अपने दुख से  पहचानने लगा थोड़ा थोड़ा  लक्षण उस पीड़ा के मगर हाथ रखता वहाँ  तो छिटक कर दूसरी ओर दुख किलकता किसी बच्चे सा जब तक वह बताती कि दुख है पूरी देह ही आत्मा उसकी जा चुकी थी देह से परे चिता में झोंक दिया उसने उसे परिजनों मित्रों ने सांत्वना में  हाथ रखा पीठ पर कंधे पर आखिर वह थी उसकी  सहचरी सहधर्मिणी  उसने राहत की साँस ली कि देह के साथ  भस्म हो गया होगा  दुख भी उसका उसे पता नहीं था कि बदलता रहता दुख अपना पता.. ....

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएं

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  नरेन्द्र पुण्डरीक   नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएं हमारे समय के उस सच को बयान करती हैं जो कड़वा और चुभने वाला है।सीधी सरल भाषा में हमारे समय का जो विद्रूप चेहरा कविताओं में दिखता है वह बेचैन करने वाला है।ये और बात है कि इस बेचैनी को ध्वस्त करने के विकल्प के रूप न जाने कितने हथियार बाजार और व्यवस्था के पास उपलब्ध हैं जो एक पल में बधाई और एक पल में शोक के जाल में फंसा कर सबकुछ उलट पलट देने में सक्षम है।ये कविताएं उस चालाकी की तरफ भी इशारा करती हैं। पानी को चुना               मेरे पुरखों ने नदी चुनी  लिहाजा यह साफ है कि  उन्होंनें पानी को चुना , पेड़ को चुना यानी छाया को चुना और  सुस्ता कर चलने को चुना  रात आई तो  एक साथ रहते हुए  तारों को चुना और  रात को बूझने के लिए  उन्हें नाम लेकर बुलाया , यह सब करते हुए  इस विशाल धरती में  अपने लिए एक टुकड़ा चुना  और उसे अपना देश कहा , जिसे पहन कर  अपनी देह को ढ़का  उसे अपना देश कहा, नदी ,पहाड, चिड़िया,चुनगुन  फूलों और पेड़ों से बातें की...

पंकज शर्मा का आलेख

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  पंकज शर्मा  बीते एक-दो दशक में स्त्री कहानीकारों का रुतबा बढ़ा है। इस बीच उनकी एक के बाद एक यादगार कहानियां सामने आईं जो न केवल चौंकाती हैं, बल्कि हिंदी कथा संसार में बेशुमार अनुपम जोड़ती भी हैं। इधर की स्त्री कथाकारों की कहानियों से ज्यादा-कम इत्तेफाक रखने वाले सुधी पाठक-आलोचक को भान है कि स्त्री कहानीकार आज किसी निर्जीव चौहद्दी में कैद नहीं हैं। वे पूरी तैयारी और जोखिम के साथ कहानी लेखन में बेजोड़ उपस्थिति दर्ज कर रही हैं।  पंकज शर्मा का यह आलेख समकालीन स्त्री कहानी लेखन की पड़ताल की एक कोशिश भर है। इस लेख में एक तरफ स्त्री कहानी में व्याप्त विविधता की खोज तो है ही, यह 'अंडरलाइन' करने का उद्यम भी है कि स्त्री कहानीकार किस तरह से समाज में व्याप्त सत्ता के विविध प्रतिरूपों के विरोध में मुस्तैदी से खड़ी हैं।  यहां वर्तमान समय की चुनौतियों के बरक्स कहानियों का विश्लेषण उपलब्ध है और पढ़ने में कथेतर का आस्वाद भी। यह आलेख हमारे समय की स्त्री कहानी का अंतर्पाठ हमारे सामने प्रस्तुत करता है।                  अनुपस्थिति के विरुद्ध ...