मदन कश्यप की कविताएं

मदन कश्यप 

मदन कश्यप की कविताओं से गुजरते हुए यह एहसास हर बार होता है कि उनकी कविताएं तटस्थ नहीं बल्कि अपने समय और समाज से मुठभेड़ करती कविताएं हैं। उनमें हमारा समय बोलता है।यही कारण है कि उनकी कविताएं पढ़ते हुए एक बेचैनी सी होती है।ये कविताएं गहरे रूप से राजनीतिक हैं।यहां प्रस्तुत कविताएं पढ़ कर यह बात बहुत विश्वास के साथ कही जा सकती हैं।


अमेरिका


मेज पर फैलाकर दुनिया का नक्शा 

पूछता है मेरा बेटा : कहाँ है अमेरिका


मैं अपनी मद्धम आँखें नक्शे में गड़ाकर 

काँपती अँगुलियों से उसे दिखाता हूँ 

यह देखो बेटे यहाँ है अमेरिका

मेक्सिको पनामा कोस्टारिका होंदुरास 

और वेनेजुएला पर कुण्डली मारकर बैठा हुआ 

कैरेबियन सागर में पूँछ पटक-पटककर 

अल-सल्वादोर को डुबोता 

और निकारागुआ को भिगोता हुआ 

ग्रेनाडा की छाती में विषदन्त चुभोने के बाद 

क्यूबा की ओर फण तानकर फुफकारता हुआ 

यहाँ है अमेरिका


काँपती अँगुलियों से उसे दिखाता हूँ 

कि बेचैन हो जाता है प्रश्नाकुल मन 

क्या सिर्फ यहीं है अमेरिका 

नक्शे में खिंची सीमाओं में ही


फिर प्रिटोरिया के कन्धे पर किसने रखी हैं बन्दूकें 

किसके बूते पर ऊँची आवाज़ में बोलती हैं मारगेट थैचर 

किसके एम्युनिशन बूटों के नीचे दबा बिलबिला रहा है लेबनान


किसके हथियारों ने लड़ी थी फॉकलैण्ड की लड़ाई 

किसके हथियारों से लड़ रहे हैं इराक-ईरान 

किसके हथियारों पर सान चढ़ा रहे हैं इज़राइल और जॉर्डन


अफ्रीका लातिनी अमेरिका और एशिया के तानाशाहों का 

कौन है खैरखवाह 

कहाँ की हैं ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ 

जिन्होंने दो-तिहाई दुनिया को बना रखा है 

अपना चारागाह


कोई सीमा नहीं उसकी 

कोई नक्शा नहीं उसका 

अल-सल्वादोर से फिलीपीन्स तक 

मेक्सिको से जापान तक 

कहाँ नहीं है अमेरिका


नक्शे में आँखें मत धँसाओ

सिर ऊपर उठाकर दुनिया को देखो

जहाँ-जहाँ गूँजती है उत्पीड़ितों की चीख

जहाँ-जहाँ हँसता है तानाशाह

जहाँ-जहाँ लोग हैं बेहाल

जहाँ-जहाँ है भोपाल

वहाँ-वहाँ है अमेरिका


इससे पहले कि दुनिया में खिले खूबसूरत फूल 

लिखी जाए खूबसूरत 

कविता 

इस दुनिया को नष्ट कर देना चाहता है अमेरिका !




भेड़िया


कभी-कभी मेरे बेटे के कोमल चेहरे की ओर 

बढ़ता हुआ सा दिखता है उसका पंजा 

एक छोटा सा एकांत तलाशता हूँ पत्नी के लिए 

कि लगता है पर्दे के पीछे वह है 

दूर तक निहारता हूँ बेटियों को स्कूल जाना 

लगता है वह पीछे-पीछे जा रहा है


दफ़्तर से लौटने पर 

पानी माँगने से पहले पूछता हूँ 

सबकुछ ठीक तो है 

कहीं दिखा तो नहीं वह 

जिसकी गुर्राहटें लगातार बजती रहती हैं मेरे कानों में


वह दिखे तो 

बंद की जा सकती है खिड़की 

दरवाज़े पर बढ़ायी जा सकती है चौकसी 

कम किया जा सकता है अँधेरे में आना-जाना 

फिर भी न माने तो 

मरोड़े जा सकते हैं उसके पंजे 

मगर कहीं भी होता नहीं दिखता वह 

बस उसके होने का एहसास डराता है मुझे


मेरे सपने में आते हैं सर्वेश्वर 

कहते हैं : भेड़िया है

तुम मशाल जलाओ! 

मेरे सपने में आते हैं भुवनेश्वर 

कहते हैं : भेड़िया है 

तुम गोली चलाओ !


सपनों में भी बेचैन हो जाता हूँ मैं 

मशाल भी जलाऊँगा और गोली भी चलाऊँगा 

पर कहीं दिखे तो भेड़िया !




तब भी बचा रहेगा देश


एक दिन तुम नहीं रहोगे 

तब भी बचा रहेगा यह देश 

खत्म इसे भला क्या कर पाओगे 

खत्म तो तुम खुद हो जाओगे


कैसे मरोगे 

दुश्मनों की फौज से घिरने के बाद आत्महत्या कर लोगे 

या प्रतिद्वंद्वी की जेल में आखिरी सांस लोगे

जनता तुम्हें सड़कों पर दौड़ाएगी 

अथवा किसी विमान दुर्घटना के बाद 

एक टूटे दांत से तुम्हें पहचाना जाएगा 

नहीं पता

हम तो मरने के बाद भी तुम्हें 

बस तुम्हारे चहकते झूठ से ही पहचानेंगे


मैंने तो जले हुए मकान की 

भीतरी दीवार पर दस साल बाद भी बची हुई कालिख में 

तुम्हारा चेहरा देखा था 

मेरे लेखे वही तुम्हारा पहला और आखिरी चेहरा है

जो तुम्हारे मरने के बाद भी दिखता रहेगा


कोई नहीं मारेगा फिर भी तुम मर जाओगे 

और अपूर्ण रह जाएगी देश को मार देने की दुष्कामना 

बचा रहेगा तब भी यह देश 

भले ही थोड़ा आहत 

किंचित टूटा फूटा 

कुछ कुछ लहूलुहान और हलकान 

लेकिन थमेगी नहीं उसकी सांसें


एक दिन यह जयकारा बंद होगा 

थालियां तालियां भी शांत हो जाएंगी 

सम्मोहन टूटेगा 

और खुद को ही घायल करनेवाले लोग 

लग जाएंगे वापस देश को बचाने में 

किसान खेतों में लौटेंगे 

फसलें लहलहाएंगी 

विनिर्माण कारखानों में गूंजेंगे मशीनों के संगीत


रात होगी इतना अंधेरा नहीं होगा 

दिन होगा इतनी निराशा नहीं होगी 

धीरे धीरे पटरी पर लौटेगा देश 

प्रतिहिंसा से मुक्त होकर परंपरा को पहचानेंगे लोग 

और इतिहास के खलनायकों के गहवर में 

एक पिंडी तुम्हारे नाम की भी बना देंगे।




फिर लोकतन्त्र


बिकता सबकुछ है 

बस खरीदने का सलीका आना चाहिए 

इसी उद्दण्ड विश्वास के साथ 

लोकतन्त्र लोकतन्त्र चिल्लाता है अभद्र सौदागर


सबसे पहले और सस्ते 

जनता बिकेगी 

और जो न बिकी तो चुने हुए बेशर्म प्रतिनिधि बिकेंगे 

यदि वे भी नहीं बिके तो नेता सहित पूरी पार्टी बिक जाएगी 

सौदा किसी भी स्तर पर हो सकता है


नैतिकता का क्या 

उसे तो पहले ही 

तड़ीपार किया जा चुका है 

फिर भी ज़रूरत पड़ी तो थोड़ा वह भी खरीद लाएँगे बाज़ार से 

और शमीली ईमानदारी 

यह जितनी महँगी है 

उतनी ही सस्ती 

पाँच साल में तीन सौ प्रतिशत बाप की ईमानदारी बढ़ गयी 

बेटे की तो पूछो ही मत


सबसे सस्ता विकता है धर्म 

लेकिन उससे मिलती है इतनी प्रचुर राशि 

कि कुछ भी खरीदा जा सकता है 

यानी लोकतन्त्र भी।




तब भी प्यार किया


मेरे बालों में रूसियाँ थीं 

तब भी उसने मुझे प्यार किया 

मेरी काँखों से आ रही थी पसीने की बू 

तब भी उसने मुझे प्यार किया 

मेरी साँसों में थी बस जीवन-गन्ध 

तब भी उसने मुझे प्यार किया


मेरे साधारण कपड़े 

किसी साधारण डिटर्जेंट से धुले थे

जूतों पर फैली थी सड़क की धूल 

मैं पैदल चलकर गया था उसके पास 

और उसने मुझे प्यार किया


नज़र के चश्मे का मेरा सस्ता फ्रेम 

बेहद पुराना हो गया था 

कन्धे पर लटका झोला बदरंग हो गया था 

मेरी जेब में था सबसे सस्ता मोबाइल 

फिर भी उसने मुझे प्यार किया


एक बाज़ार से गुज़रे 

जिसने हमें अपनी दमक में 

शामिल करने से इन्कार कर दिया 

एक खूबसूरत पार्क में गये 

जहाँ मेरे कपड़े और मैले दिखने लगे 

हमारे पास खाने का चमकदार पैकेट नहीं था 

हमने वहाँ सार्वजनिक नल से पानी पिया 

और प्यार किया !




बाज़ार


इस बाजार में बेचने की कला बिकती है


एक हाथी बेच रहा है अपनी लीद 

एक बाघ बची हुई हड्डियों और 

माँस के कुछ सड़े-गले टुकड़ों का ढेर लगाये बैठा है 

एक गदहा अपने मूत से गीली हुई मिट्टी के लिए 

खरीददारों को आवाज लगा रहा है 

एक लकड़बग्घा बिकी हुई चीजों को चुरा कर 

फिर से बेचने की ताक में इधर-उधर दौड़ लगा रहा है


ग्राम प्रधान तक का चुनाव 

नहीं जीत पाने वाला सौदागर 

बेच रहा है लोकतंत्र !



मदन कश्यप


जन्म : 29, मई 1954, बिहार के वैशाली जनपद में।

शिक्षा : बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से। (हिंदी)।

पुस्तकें : अब तक सात कविता संग्रह प्रकाशित : लेकिन उदास है पृथ्वी, नीम रोशनी में, कुरुज, दूर तक चुप्पी, अपना ही देश, पनसोखा है इंद्रधनुष और ‘बस चांद रोएगा’

'कवि ने कहा' के अन्तर्गत एक चयन प्रकाशित। कविता, वैचारिक आलेख और आलोचना के अलावा, सामाजिक विषयों पर अखबारों में नियमित लेखन । कई स्तंभ चर्चित । आलेखों के चार संकलन प्रकाशित-मदभेद, लहूलुहान लोकतन्त्र, राष्ट्रवाद का संकट, लॉकडाउन डायरी, बीजू आदमी।

सम्मान एवं पुरस्कार : कविता में उल्लेखनीय योगदान के लिए कई संस्थाओं द्वारा

पुरस्कृत और सम्मानित। कुछ चुने हुए सम्मान: 1. अज्ञेय शब्द शिखर सम्मान (2023), 2. नागार्जुन पुरस्कार (2016) 3. केदार सम्मान (2015) 4. शमशेर सम्मान (2009) 5. बनारसीप्रसाद 'भोजपुरी' सम्मान (1994) इत्यादि ।

संपर्क : बेटिना-2786, महागुन मॉर्डन, सेक्टर-78, नोएडा-201301 (उ.प्र. ) मो. 9999154822 

E-mail: madankashyap0@gmail.com






 

Comments

  1. अपने समय की साम्राज्यवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध मनुष्यता के पक्ष में खड़ी कवितायें

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  2. मदन कश्यप की सभी कविताएं बहुत ही प्रभावशाली और उल्लेखनीय हैं। अभी सब पढ़ गया हूं। इनमें से कुछ को पहले भी कहीं पढ़ा हूं। मदन कश्यप अपनी पीढ़ी के कवियों में समकालीन राजनीतिक चेतना के अग्रणी कवि हैं। वे अब भी निरंतर लिख-पढ़ रहे हैं जो अनुकरणीय है हमारे लिए।
    आपका - चंद्रेश्वर/लखनऊ

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  3. कैलाश मनहर10 August 2025 at 09:39

    अपने समय की साम्राज्यवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध मनुष्यता के पक्ष में खड़ी कवितायें।

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  4. महेश आलोक10 August 2025 at 09:40

    बहुत अच्छी कविताएं।मदन जी बड़े कवि हैं।

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  5. प्रदीप यादव10 August 2025 at 09:40

    बिकता सबकुछ है
    बस खरीदने का सलीका आना चाहिए

    💐अद्भुत💐

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