लीलाधर मंडलोई की कविताएं



                          लीलाधर मंडलोई 


लीलाधर मंडलोई की कविताएं प्रतिरोध की एक मजबूत आवाज़ हैं जिनमें हम अपने समय के स्याह सच को देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं और उसे पहचान भी सकते हैं।ये कविताएं ऐसे समय की हैं जब चीजों के मायने बदल दिए गए हैं और एक नई शब्दावली विकसित की जा रही है। यहां विरोध का मतलब बदल दिया गया है। प्रश्न उठाने को खतरनाक बना दिया गया है। इसके बावजूद जो आवाज है वह अपने होने को लेकर आश्वस्त हैं,आशंकित नहीं।ये कविताएं उसी आवाज के पक्ष में एक गवाही है।


पराजयों के बीच 


जो लोग मनाते हैं पराजय का उत्सव और

निराशा में खोजने लगते हैं आनन्द

मैं उन लोगों में नहीं हूँ

ईश्वर के भरोसे छोड़ नहीं सकता मैं यह दुनिया

एक छोटी सी चींटी भी है उम्मीद का बिन्दु

मुझे भरोसा है वह मनुष्य की तरह

कर सकती है ईश्वर को अपदस्थ कभी भी


जिन्हें पसन्द नहीं अँधेरा, उदासी और असहायता

मैं उनके साथ मिलके भेदना चाहता हूँ निराशा का गढ़

इसे न माना जाए मिथ्या आशावाद कि

पराजयों के ऐन बीच हम देख रहे हैं

प्रतिरोध का स्वप्न

हमें मालूम है कि क्रान्ति की पुनर्वापसी सम्भव नहीं

इसलिए जोड़ना चाहते हैं कुछ और रंग

मसलन हरा और सफेद

ज़रूरी हो तो थोड़ा नीला भी कि

एकजुट हों मजूर-किसान और स्त्री-दलित


हम पृथ्वी की ही नहीं

आसमान की दरारों के बारे में भी सोचते हैं

हम मुक्त करना चाहते हैं स्त्री और पृथ्वी की कोख

कि जो बन्धक पड़ी है उन हाथों में

जिन्हें हम तोड़ना चाहते हैं सबसे पहले


बाज़ार जो कि पूँजी पे सवार

छाता जा रहा है दुनिया के कोने-कोटरों में

और बिल्कुल सामाजिक नहीं

उसकी दिशा को मोड़ना चाहते हैं हम

कि जहाँ जीवन की साझा उजास है


मैं उन लोगों में नहीं हूँ

कि जो जान बूझके चुप हैं

न सही इस वक़्त कोई बड़ी कार्रवाई

मैे कोलगेट की जगह दातून और

मैकडॉनल्ड की जगह एक साँझे चूल्हे की

वकालत में कर सकता हूँ अपनी आवाज़ बुलन्द


मैं रंग, लिंग, धर्म या नस्ल के आधार पे

बढ़ रही ज़्यादती के ख़िलाफ़

सडक़ पे जा सकता हूँ

मुमकिन है टूट पड़े क़ानून का कहर

कम-से-कम मैं एक ऐसा समाचार तो बन ही सकता हूँ

कि बन्द पलकों में एक सही हरकत दर्ज़ हो

बन्द कपाटों में ऐसी हलचल कि सोचना शुरू हो।




लोहे का स्वाद


कुछ ऐसी वस्तुएँ जिनके होने से

आत्महत्या का अंदेशा था

बदन से उतार ली गई

बेल्ट और दाहिने हाथ की अँगूठी

पतलून की जेब में पड़े सिक्के

बायें हाथ की घड़ी कि उसमें ख़तरनाक समय था

जूते और यहाँ तक गले में लटकती पिता की चेन


अब वे एक हद तक निश्चिंत थे

ख़तरा उन्हें इरादों से था

जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीक़ा ईंज़ाद नहीं हुआ था

सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे

और इश्क़ के बारे में उन्हें कोई जानकारी न थी


घोड़े के लिए सरकारी लगाम थी

नाल कहीं लेकिन आत्मा में ठुकी थी

वह एक लोहे का स्वाद में जागती रात थी


लहू सर्द नहीं हुआ था

और वह सुन रहा था

पलकों के खुलने-झुकने की आवाज़ें

पीछे एक गवाह दरख़्त था

जिसकी पत्तियाँ सोई नहीं थीं

एक चिड़िया गुज़रके अभी गई थी सीख़चों से बाहर

और वह उसके परों से लिपटी हवा को

अपने फेफड़ों में भर रहा था

बाहर विधि पत्रों की दुर्गंध थी

बूट जिसे कुचलने में बेसुरे हो उठे थे

वह जो किताब में एक इंसान था

एक नए किरदार में न्याय की अधूरी पंक्तियाँ जोड़ रहा था


बाहर हँसी थी फरेबकारी की

और कोई उसकी किताबों के वरक् चीथ रहा था

मरने की कई शैलियों के बारे में उसे जानकारी थी

लेकिन वह जीने के नए ढब में थे


इस जगह किसी मर्सिए की मनाही थी

वह शुक्रिया अदा कर रहा था चाँद का

जो रोशनदान से उतर उसके साथ गप्पगो था

बैठकर हँसते हुए उसने कहा

लिखो! न सही कविता-दुश्मन का नाम।




शिकस्तों के बीच


दिलचस्प थी उनकी दास्तां

कि ज़िंदगी में उनकी

स्याह रातें न थीं


न ग़र्द में डूबे पाँव

न हादसे

न फ़ाकामस्ती

न आवाराग़र्दी


भूख से लड़ने का कोई

तजुर्बा नहीं था उनके पास

न ही था इस वज़ह

शिकस्तों के बीच

आंसुओं को जज़्ब करने का वसीला


वे हमारी तरह नहीं थे

इसलिए डूब गये

दौलत की किश्तियों में।


वसीला : साधन




ग़ैरहाज़िर दोस्तों की तरफ़


मैं हूँ और खड़ा धँसकती ज़मीन पर

ग़नीमत कि अकेला नहीं

लोग हैं जिनके पाँवों की बिवाइयाँ

मेरी आत्मा सरीखी हैं

और मैं उनमें बैठकर तमाखू खा सकता हूँ


यहाँ प्रसन्न अख़बार लोक का झूठा शोर नहीं

जिनके चेहरे हैं वक़्त की गर्दिश में

पढ़ सकते हैं सफ़ेद और काला


यहाँ एक भूकंप के बाद का अंधेरा है

एक जल चुके मकान की उड़ती राख

एक अभिन्न की मृत्यु में चुप घर

आहटों से घबराया बसंत

घड़ों के अंगों का दुख

टूटे खिलौनों की मिट्टी कबाड़


और मेरी आत्मा में बजता था जो कविता का सितार

उसके तार टूटके मस्तिष्क में चिपक गए हैं बेतरतीब

भय के शब्दों की गठरी में उलझा

दौड़ता हूँ ग़ैरहाज़िर दोस्तों की तरफ़

अंधेरा है सचमुच साबुत

सारे आइने इसमें डूबे हुए

अपने चेहरे से इतना महरूम

अपने शब्दों से इतना टूटा हुआ


मैं कि कोई खंडित शिल्प

न्याय की अंधी सुरंग में मूर्ति गढ़ता हूँ।




मैं तुम्हें गिरफ़्तार करता हूँ


देखो ये तस्वीर तुम्हारी है न

मैं कह रहा हूँ यह तुम्हारी है

रंगीन नहीं ब्लेक एण्ड व्हाइट निकलवायी है

देखो यह कुर्ता तुम्हारा है न

तरह-तरहे के कुर्ते हमने तुम्हारी वार्डरोब में देख

और अंगुलियों में यह रोशनाई


अभी भी मौजूद है क्या हम नहीं जानते?

तुम लेखक हो और क़लम नहीं रखते

तुम बहुत अच्छा लिखते हो

और तुम्हारे झोले में न डायरी है

न लिखा तुम्हारा एक शब्द

कहाँ हैं तुम्हारी लाल कविताएँ


तुम्हारी आँखों से तुम बरामद नहीं हो रहे

कहाँ छिपा रखे हैं तुमने अपने गुनाह

तुम्हें लोग अर्बन नक्सली कहते हैं

न तुम्हारी पीठ पर क्यूबा के उस

क्रान्तिकारी की फोटो है क्या नाम है उसका?

लो उसका नाम याद आया—चे ग्वेरा


वही दाढ़ी और कैप वाला

लेकिन उस जैसा कुछ नहीं है तुममें

अरे! मेरा तो माथा ही घूम गया

एक बात बताओ इतनी सारी शिकायतें हैं

तुम्हारे ख़िलाफ़, फिर तुम्हारी आँखों में

इस क़दर प्यार कहाँ से आया?

अब यह तो अपराध हुआ

और सच तक पहुँचने के लिए 

मैं तुम्हें गिरफ़्तार करता हूँ।




अनुपस्थिति


देखा जाए तो अनुपस्थिति में होता है उपस्थित बहुत कुछ

अब इधर देखो कि अनुपस्थित हैं बच्चे

मुझे सुनाई पड़ रही उनके बोल-बोलकर पढ़ने की आवाज़ें

कोई नहीं रसोई में और मूर्ख मैं इतना कि

सुन रहा तड़के की ध्वनि और घिरा

अनुपस्थित भोजन की गन्ध से कि दृष्टि इतनी


जबकि नहीं है वह और मैं देख रहा

खिड़की पर बैठा, इधर कामातुर पक्षी युगल

सुन रहा भीतर के कमरे से उठती

पागल चूड़ियों की पहाड़ी धुन और

अनुपस्थित देह में गूंजती मादल की थाप


जानते-बूझते कि सच नहीं यह

मैं निकलता अपनी उपस्थिति से बाहर

और उतर जाता अनपुस्थित झरने के संगीत में

नहाता अनुपस्थित जल फुहारों में

और शामिल हो जाता उन किंवदन्तियों में

तैर रहीं जो अनुपस्थित मछलियों की भाषा में


मैं एक अनुपस्थित पेड़ पर चढ़ता

और कुल्हाड़ी के ताज़ा घाव से

पहुँच जाता वहाँ जहाँ वह मृत्यु के भय से उदास बैठा

लाना चाहता मैं उसे बाहर और

डूब जाता वह सदियों पार कि याद बहुत


चौंका मैं बेहद और डूबा शर्म में कि कहा उसने

चलते थे पहले हम पांव-पांव मनुष्य के साथ

मानो सगामन या कहें नातेदार

हुआ कुछ ऐसा एक दिन कि हम पर

फेंके गए पत्थर, बरसी कुल्हाड़ियां और

हँसे वे कुछ इस बुरी तरह कि मानो हम क्रीतदास’

अनुपस्थित हुआ इस तरह वह और

उपस्थिति हुई असंख्य कुल्हाड़ियां 


हुआ कोई-न-कोई अनुपस्थित

कि जहाँ उपस्थिति होनी थी अचूक

मुझे होना चाहिए था संसद में

मेरी अनुपस्थिति से अब वहाँ अपराधी

अनुपस्थिति का शाप इतना भयानक

मन्दिर में इन दिनों क़ब्जा शैतानों का


मैं एक छाया दिल्ली की सड़कों पर पागल

मेरा ‘मैं’ तक अनुपस्थित कि मारा गया

उगते सूर्य का उजाला था जिधर अनुपस्थित

अनुपस्थित सूर्य का मंत्रोच्चार था बहुत

जो उपस्थित बहुत हर जगह और जुगाड़ से

विरोध में रहा मैं उनके और इस तरह वाह यदि

अनुपस्थिति की याद बहुत हर घड़ी ईमानदार तो मैं एक कवि।




लौटकर आया तो


छूटता कितना कि समेटने से बाहर

घर में हर शख़्स उदास

घबराता चीज़ों को छूते हुए

दीवारों को ताकता ऐसे कि याद करता कुछ


खूंटियों की खाली हुई जगह को छूता

कि उतारता अनटंगे कपड़े

खोलकर सर्द हवा में घर की खिड़कियाँ

बुदबुदाता देख कुछ जो निगाह से ग़ायब

छुपकर फेर लेता अंगुलियाँ झट पलकों पर

कि सुबह से आँख में कुछ बैठा और

लाख कोशिश के बाद घर किए भीतर तक


कितनी तकलीफ़ है कि एक अदृश्य तिनका

आँखों के घर को बिल्कुल नामंजूर

और हम हैं कि छोडक़र इस घर को

बैठे तैयार हैं कि कब निकलें

कहने को न यह जगह अपनी

और सरकारी मुलाजिम का कोई घर कैसा


हम परिंदे हैं जो कठिन मौसमों में

बदलते रहते हैं बेरहमेस ठिकाने बिन चाहे

बहुत भारी है यह और बाक़ियों से जुदा

बेटा उदास है, बेटी-चुप

पत्नी गुमसुम कि ढूँढ लाए कोई

देखकर यह सब गया कि लौटा नहीं

औरों के कहने को कुत्ता लेकिन उसके बेटे-सा

लौटकर आया तो ढूँढेगा कहाँ,जाएगा किधर।


सभी पेंटिंग: लीलाधर मंडलोई 




लीलाधर मंडलोई

जन्म तिथि -15.10.1953

शिक्षा-बी.ए.बी .एड.,बी.जे.,एम.ए.

किताबें 9 कविता संग्रह,आत्मकथा -"जब से आंख खुली  हैं 5 काव्य चयन,6 डायरी ,8 संपादित कृतियां,3 बच्चों की किताब ,3 निबंध संग्रह,आलोचना व यात्रा वृत्तांत की किताबें और मीडिया तथा फिल्म के लिए लेखन।

अनुवाद की तीन किताबें -

1-अनातोली पारपरा की रूसी कविताएं "मां की मीठी आवाज़ "अनिल जनविजय के साथ

2-शकेब जलाली की ग़ज़लें मंज़ूर एहतेशाम के साथ

( दोनों शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली)

3-"धरती के ज़ख़्म " युध्दोत्तर संवेदना की विश्व कवियोंकी कविताएं-प्रकाशन संस्थान, दिल्ल

सम्मान -कबीर,रज़ा,किशोरीअमोनकर ,शमशेर,नागार्जुन, रामविलास शर्मा, प्रमोद वर्मा सम्मान, वागीश्वरी, वसुंधरा, कृति और साहित्यकार पुरस्कार आदि।

एकल चित्रकला प्रदर्शिनियां-

1-राष्ट्रीय कला संग्रहालय ,बनारस।

2-भारत भवन,भोपाल।

3-रानी दुर्गावती,संग्रहालय, जबलपुर

4-मिक्स मीडिया चित्र-इंस्टाग्राम पर abstract_mandloi नाम से उपलब्ध।

5-फेसबुक पर Lleeladhar Mandloi Chhavi नाम से डिजिटल चित्र ,स्केच व छायाचित्र उपलब्ध।

6-सौ से अधिक चित्रों निर्मित किताबों के आमुख प्रकाशित।

7-कला डायरी प्रकाशित।

8-कलाओं पर लेख प्रकाशित।

9-भारतीय चित्रकला पर संपादित कृति -भारतीय चित्रकला प्रकाशित।

10-ब्रीदिंग स्टोन शीर्षक से स्व -चित्रों का कैटलॉग प्रकाशित।

11-विश्व कविता पर एकाग्र अनुवाद की किताब का संपादन-आइसेक्ट प्रकाशन,भोपाल

11-पूर्व संपादक-नया ज्ञानोदय व वर्तमान संपादक-विश्वरंग संवाद ,भोपाल।

संपूर्ण विवरण -गूगल,बेबसाइट व कविताएं हिंदी कोश,हिंदवी, फेसबुक अकाउंट पर उपलब्ध ।

संप्रति- सह निदेशक व अध्यक्ष वनमाली सृजन पीठ,दिल्ली-रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्व विद्यालय, भोपाल से सम्बद्ध

मेल आई डी-leeladharmandloi@gmail.com

फोन-9315305643












Comments

  1. छूटता कितना कि समेटने से बाहर

    घर में हर शख़्स उदास

    घबराता चीज़ों को छूते हुए

    दीवारों को ताकता ऐसे कि याद करता कुछ

    मंडलोई जीको पढ़ना 🤌

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छी कविता

    ReplyDelete
  3. लीलाधर मंडलोई जी की ये कवितायें सहज-सटीक संवेदनापूर्ण और मर्मस्पर्शी हैं। मार्मिक व्यंजना में प्रतिरोध की झलक स्पष्ट परिलक्षित होती है। उन्हें बहुत बहुत बधाई और कौशिकी में ये कवितायें साझा करने हेतु आपको साधुवाद।

    ReplyDelete
  4. नरेश चन्द्रकर

    सुविचारित, संवेदनशील और अपने हर पंक्ति में समाज की आंख को देखने वाली कविताएं । कवि की उम्र का पका-अनुभव भी इन कविताओं में झलकता है।
    एक काव्यांश से मेरी टिप्पणी की तस्दीक हो जाती है, देखिए

    अब वे एक हद तक निश्चिंत थे
    ख़तरा उन्हें इरादों से था
    जिनकी ज़ब्ती का कोई तरीक़ा ईंज़ाद नहीं हुआ था
    सपनों की तरफ़ से वे ग़ाफ़िल थे
    और इश्क़ के बारे में उन्हें कोई जानकारी न थी......

    वाह,प्रिय वरिष्ठ कवि मंडलोई जी। अभिनन्दन।

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  5. सवाल उठाने की संस्कृति को प्रोत्साहित करने वाली कविताएँ

    ReplyDelete
  6. लीलाधर मंडलोई "घर घर घूमा" के कवि हैं। बरसों पहले अंडमान निकोबार के अछूते आदिवासी जीवन को दर्ज करने वाली कविताओं का यह उपहार लेकर वे हिंदी में आए थे। तब से लेकर "रात बिरात" तक और निरंतर अब तक उनकी काव्य यात्रा जारी है। वे समय सजग कवि हैं। उन्होंने अपने अनेक संग्रहों में नए प्रयोग किए हैं। संवेदना और प्रकृति के साथ वे समय की खरोचों को कविता में दर्ज करते हैं। लीलाधर मंडलोई की इन कविताओं के लिए कौशिकी और कवि के प्रति हार्दिक आभार......

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  7. मांघीलाल यादव3 August 2025 at 03:25

    कौशिकी का पुनर्प्रकाशन सुखद है,लीलाधर मंडलोई जी की कविताओं में जीवन दर्शन है।
    वे अक्सर कविताएं अलहदा ही लिखते हैं।
    आप दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाईयां।
    🙏🌷🙏

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  8. ज्योति कृष्ण वर्मा3 August 2025 at 03:29

    अभी पढ़ी हैं। सुंदर कविताएं हैं। हार्दिक शुभकामनाएं।

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  9. मीठेश निर्मोही3 August 2025 at 05:43

    अच्छी कविताएं ।शादार प्रस्तुति ।आपको और मंडलोई जी को बहुत-बहुत बधाई ।

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  10. बढ़िया कविताएँ!

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  11. प्रवीण माधव3 August 2025 at 19:12

    एक नई क्रांति की आवाज बन जाने की कोशिश में निखरी हैं कविताएं।
    इंद्रधनुषी रंग के बाद एक नए रंग देने की कोशिश में कांति पुंज सी चमकी हैं कविताएं।
    बहुत बहुत बधाई मंडलोई जी
    बहुत बहुत बधाई शंकरानन्द जी

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  12. शुभा द्विवेदी मिश्रा5 August 2025 at 01:20

    मिथ्या आशावाद और दमन की राजनीति को आत्म संकल्प से तोड़ने की कोशिश करती कविताएँ !
    मंडलोई जी को हार्दिक बधाई 🙏🏻

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