उमा शंकर चौधरी की कविताएं
उमा शंकर चौधरी
उमा शंकर चौधरी की कविताएं अपने तेवर और कहन शैली के कारण अलग से पहचान में आ जाती हैं।उनकी कविताओं में एक बेचैनी है।ये वही बेचैनी है जिसे सीने में दबाए इस देश का नागरिक एक तरफ रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहा है तो दूसरी तरफ अपने स्वप्न के लिए।इन दोनों के बीच जीता हुआ वह उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता।ये कविताएं एक थके हुए या हारे हुए मनुष्य की नहीं बल्कि एक लड़ते हुए मनुष्य की कविताएं हैं।
तब भी
जिन्होंने दहशत के खिलाफ लिखीं कविताएं
नरसंहार के खिलाफ बनाई एक ज़रूरी पेंटिंग
जुल्म के खिलाफ हमेशा उठायी अपनी आवाज़़
उनका शरीर भी एक दिन कमज़़ोर हो जाएगा
उंगलियां कांपने लगेंगी एक दिन
लड़़खड़़ाने लगेगी आवाज़़
अमोनिया बढ़ जाएगा शरीर का और
होने लगेंगे वे स्मृति लोप का शिकार
अस्पताल के बिस्तर पर वे रहेंगे बेहोश
कई दिनों तक
कई दिनों तक उनकी स्मृति में नहीं होगा कुछ भी
अस्पताल के बिस्तर पर देखना उनको
आहत करेगा मन को
बाहर हम कई दिनों तक या कई महीनों तक
दुआ करेंगे उनके तंदरुस्त हो जाने की
संभव है एक दिन खत्म हो जाए सब कुछ
संभव है वे लौट आएं इस बार
लेकिन हो जाएं बेहद कमज़़ोर
कमजोर हो जाए उनकी दृष्टि
सुनने की ताकत
और सबसे अधिक उनकी जीने की ललक
पर विश्वास कीजिए
उस पेंटिंग के रंग में
लाल रंग का तीखापन
तब भी उतना ही होगा तीखा
दहशत पर लिखी उनकी कविताएं
इस दहशत के खिलाफ तब भी रहेंगी
उतनी ही ज़रूरी।
धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं..............
इन दिनों मेरी सबसे बड़ी चिन्ता है कि
बच्चों में बची रहे उनकी मासूमियत
इस उम्र में उनके पास हों
सिर्फ पतंगों और चिड़ियों की बातें
उन्हें अभी बीज से निकलने वाले पौधों के
कोमल पत्तों को देखना चाहिए
सम्मोहित करे उन्हें इस उम्र में
चिड़ियों का कुतर-कुतर कर फल खाना
देखते रहें बच्चे टुकुर-टुकुर उन्हें
लेकिन बच्चे, खराब मौसम को समझने लगे हैं
बच्चों को खिलते हुए गुलाब को देखना चाहिए
गुलाब की झड़ती हुई पंखुड़ियों को नहीं
टमाटर के पौधों में आ रहे फल के
एकबारगी लाल होने को देखकर
बच्चों को खुश होना चाहिए अभी
उनके नथुनों में अभी होनी चाहिए उसकी खुशबू
उनके सपनों में अभी होना चाहिए
नदी के तट का एक मनोहर दृश्य
बर्फ के गिरते फाहे की कोमलता
उनके सपनों में होनी चाहिए
अभी एक मधुर पुकार
लेकिन बच्चों के भीतर खत्म होती जा रही है मासूमियत
बच्चे समझने लगे हैं फूल से फल बनने और
उसके पक कर नष्ट हो जाने का जीवन क्रम
मैं चाहता हूं कि
बच्चों में बची रहे मासूमियत
बच्चों में बची रहे प्यार करने की इच्छा
उनके अंदर बची रहे कोमल पत्तों की छुअन
इस धरती को छूने का खरगोश-सा स्पर्श
उनके अंदर हो रंगों की विविधता
परन्तु बच्चों में धीरे-धीरे खत्म हो रही है मासूमियत
धीरे-धीरे उनकी आंखें हो रही हैं उदास।
इन दिनों
इन दिनों शरीर में कम होता जा रहा है नमक
शरीर में कम होता जा रहा है लोहा भी
इन दिनों कुछ दूर जाता हूं और हाँफ कर बैठ जाता हूँ
इन दिनों अपनी ही सांसों की आवाज मुझे सनाई देने लगी है
इन दिनों कम होने लगी हैं बारिश में पानी की बूँदें
कम होने लगी हैं सूरज की रोशनी में गरमाहट
बच्चे बाहर खेलने जाते हैं
और उदास होकर घर लौट आते हैं
इन दिनों मैं खुद भी अखबार पढ़ने, टीवी देखने से
अपने को बचाने लगा हूँ
इन दिनों सचमुच शरीर में कम होता जा रहा है नमक और लोहा भी
इन दिनों धीरे-धीरे बच्चों की भूख मरने लगी है
आंसुओं में नमक का खारापन बढने लगा है
लोगों ने अपने दुख-दर्द के बारे में
बातें करनी कम कर दी हैं
कम कर दी हैं उन्होंने अब लोकतंत्र के बारे में सोचना
इन दिनों सचमुच बहुत बढ गई है आदमी में तकलीफ सहने की क्षमता
इन दिनों अपनी पाँच साल पुरानी तस्वीर से
नहीं मिलता है अपना चेहरा
नहीं पहचान पाते हैं हम उस तस्वीर में अपने ही बच्चे की हँसी
और अपनी पत्नी के चेहरे की लाली
इन दिनों हमारे चेहरे के स्वरूप ने ले लिया कोई और ही आकार
हमें हमारे अपने ही पहचान पत्र से
नहीं पहचान सकता है कोई
इन दिनों चेहरा कैसा तो काला पड़ गया है
कैसी तो हड्डियां निकल आयी हैं बाहर
इन दिनों सचमुच शरीर में कम होता जा रहा है नमक और लोहा भी
इन दिनों मेरी कविता में बार-बार आने लगा है दुख
बार बार आने लगी है खीझ
इस कविता में आती है एक बच्ची
जो पूछती है मुझसे कि क्या हुआ है इन दिनों
मैं देखता हूँ आसमान की ओर, समुद्र की ओर, हरी घास की ओर
और दोहराता हूँ उस बच्ची का सवाल
कि क्या हुआ है इन दिनों
पर कहीं से कोई जवाब नहीं आता
इन दिनों सचमुच कहीं से कोई जवाब नहीं आता
कि कैसे हमारे ही हाथ से फिसलता जा रहा है हमारा लोकतंत्र इन दिनों।
कहां जाएंगे वे दाने
अन्न के जो दाने अभी-अभी खेत में
धीरे-धीरे पकने को तैयार हो रहे हैं
उन्हें पता नहीं है
कि पकने के बाद वे कहाँ जाएंगे
अन्न के उन दानों को जिन्होंने सींचा
सहलाया, प्यार किया, चूमा
उन्हें भी नहीं मालूम कि पकने के बाद
कहाँ जाएंगे वे दाने
जिन्होंने कड़ाके की ठंड में की है रखवाली उन दानों की
उन दानों की रक्षा के लिए वे बने हैं कई बार
खेत के बीच निर्जीव बिजूका
वे भी नहीं जानते हैं इन दानों का भविष्य
बहुत सारे भूखे पेट इन दानों की तरफ
तरसती हुई निगाह से देख रहे हैं
बहुत सी थालियां इन दानों का कर रही हैं इंतजार
परन्तु यह किसी को नहीं है पता
कि खलिहान से उठकर अभी वे दाने कहाँ जाएंगे
यह लोकतंत्र होता तो अन्न के उन दानों से
उनकी मर्जी पूछी जाती
हवा से उसके रुख के लिए उसकी मर्जी पूछी जाती
आग से उसकी धधक पूछी जाती
बच्चों से पूछा जाता रोने का कारण
पेड़ की फुनगी पर बैठी चिड़िया से
उसके घर का पता पूछा जाता
अन्न के उन दानों से पूछी जाती उनकी इच्छा
अन्न के दानों को जिन्होंने अपने पसीने से उगाया है
जिन्होंने की इन दानों की रखवाली
दानों के पकने के बाद
इस लोकतंत्र में
उन्हें कर दिया गया है दरकिनार
जब अभी बहुत सी खाली थालियों को है इंतजार
इन दानों का
जब अभी तमाम भूखी निगाहें घूर रही हैं इस तरफ
ठीक इसी समय प्रधानमंत्री के टेबल पर
बन रही हैं योजनाएँ
इन दानों को जब्त कर लेने की।
कुछ भी वैसा नहीं
अब जब तक तुम लौट कर आओगे
कुछ भी वैसा नहीं रहेगा
न यह सुनहरी सुबह और न ही यह गोधूलि शाम
न यह फूलों का चटक रंग
न चिड़ियों की यह कतार
और न ही यह पत्तों की सरसराहट
अब जब तक तुम लौटकर आओगे
रात का अँधेरा और काला हो चुका रहेगा
बारिश की बूँदें और छोटी हो चुकी होंगी
हमारे फेफेड़े में जगह लगभग खत्म हो चुकी रहेगी
जब तुम गये थे तब हमने सोचा था
कि अगली सर्दी खत्म हो चुका होगा हमारा बुरा वक्त
राहत में होंगी हरदम तेज चलने वाली हमारी साँसें
लेकिन अगली क्या उसकी अगली और उसकी अगली सर्दी भी चली गयी
और ठीक सेमल के पेड़ की तरह बढ़ता ही चला गया हमारा दुःख
अबकि जब तुम आओगे तो
तुम्हें और उदास दिखेंगे यहां हवा, फूल, मिट्टी, सूरज
और सबसे अधिक बच्चे
अबकि जब तुम आओगे तो चांद पर और गहरा दिखेगा धब्बा
मैं जानता हूँ कि तुम आओगे देखोगे इन उदास मौसमों को
और तुम जान लोगे हमारे उदास होने का ठीक ठीक कारण।
जो हमसे छीना नहीं गया था
सबसे पहले उन्होंने हमसे हमारा नमक लिया
फिर हमारा लोहा
फिर सूरज, रोशनी, तपिश
हवा, पानी, आकाश
पेड़, पत्ते, खुशबू
और फिर उन्होंने हमारी साइकिल ली
और फिर रोटी सेंकने का चिमटा
पहले हमने लोहे के बिना रहने की आदत डाली
फिर सूरज के बिना
हमारे शरीर का पानी हमारा नहीं रहा
फिर खत्म हो गया हमारे मुँह का स्वाद
हमने रोना चाहा लेकिन हमारे आँसुओं से
नमक गायब था
हमने आँसू के बिना भी रहना सीखा
फिर हँसी के बिना
एक दिन हमारी नींद गायब हुई
और उससे पहले कान के पर्दे
आँसू, हँसी, नींद और कान के पर्दों के बिना
रहने का हमारा यह नया सलीका था
और इस तरह हम जब जीवन के अभ्यस्त हो गए
तब उन्होंने कहा सुख, आनन्द, खुशी
और हम अचानक झूमने लगे
उन्होंने कहा पेड़, पौधे, धूप
और हम उनसे ही धूप मोल खरीदने लगे
फिर हमने उनसे हवा खरीदी, रोशनी खरीदी
और एक दिन खरीदी अपनी ही सांसें
फिर एक दिन उन्होंने हमें घूमते चाक पर
अपने हाथों से मिट्टी के दिये बनाने का ख़्वाब बेचा
यह दुख की घड़ी हो सकती थी
परन्तु हम दुखी नहीं थे
हमको यह बतलाया गया था
और बार बार बतलाया गया था कि
हम सबसे ताकतवर हैं
हमसे ही यह धूप है, हमसे ही यह तपिश है
और हमसे ही है यह मिट्टी की खुशबू
और तब हमारी पुतलियों को विभिन्न रंगों से सजा दिया गया
इस दुख की घड़ी में भी जब कि
ख़त्म हो गयी थी हमारे चूल्हे की आग
झड़ गए थे पेड़ के पत्ते
और साँप के काटने से मर गयी थी
बुधरी की आठ साल की बेटी
अभी हम जीवित थे और
इस बात से खुश थे कि
हमसे छीना नहीं गया था हमारा राष्ट्रगान, राष्ट्रीय पशु
राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय निशान, राष्ट्रीय ध्वज
और सबसे अधिक हमारी नागरिकता
छीनी नहीं गयी थी अभी हमसे हमारी प्रार्थना।
सबसे पहले उसका साथ
सबसे पहले उम्मीदों ने ही छोड़ा होगा
उसका साथ
फिर उसके हाथ, पांव, नाक, मुंह
पसलियों, फेफड़ों, अंतड़ियों ने
और फिर दिमाग ने
और सबसे अंत में साथ छोड़ा होगा
उसकी आंखों ने
सबसे पहले अपनी आंखों से
उसने देखा होगा
आसमान की लालिमा को
फिर घर लौटते चिड़ियों के झुंड को
फिर उसने देखा होगा पेड़ों को
पेड़ों से झड़ रहे पत्तों को
खेतों में उदास फ़सलों को
और फिर गड्ढों को
उसकी आँखों ने सबसे पहले ढूँढा होगा
एक जोड़ी आँखों को ही
लेकिन उसे आँखों के बदले दिखे होंगे
ढेर सारे चेहरे और ढेर सारी आँखें
एक भीड़, ढेर सारी आवाजें
ढेर सारे नाखून
और कुछ रंग
उसने अपनी आँखों को नीचे झुकाया होगा
और बंद हो गयी पूरी दुनिया
उन आखों के भीतर
वह दुनिया जिसको सँजोने के बारे में
उसने कभी बुने होंगे ढेर सारे ख़्वाब
सबसे पहले उसने थामा होगा
नाउम्मीदी का ही साथ
और खत्म हो गयी होगी चिंता
खत्म हो गयी होगी आवाज
खत्म हो गया होगा डर
उसने याद किया होगा अपने बचपन को
गलियों को, गुल्लर के पेड़ों को,
कौओं को
और अपने उस साथी को
जो उसकी मोहब्बत में उतार लाता था
पेड़ की आखिरी फुनगी से उसकी पतंग
यह जो हवा और धूप है
जिससे वह बहुत परिचित रहता आया था
वह हो जायेगी इतनी बेगानी और रूखी
उसने कभी सोचा नहीं था
उसने सोचा यह भी नहीं था कि
पीपल के पेड़ पर बैठी चिड़िया
उसकी ओर बिना देखे उड़ जायेगी
सबसे पहले उम्मीदों ने ही छोड़ा होगा
उसका साथ
इसलिए यह चिड़िया, मिट्टी, हवा, धूप
और यहां तक कि इन गलियों से उसे
कोई शिकायत नहीं थी
और आखिर में जब उसने बंद की होंगीं अपनी आँखें
तब उसकी आँखों में धीरे-धीरे पसरा होगा अँधेरा
जैसे धीरे-धीरे घुसता है बाढ का पानी
उस अंधेरे में जरूर दिखी होंगी उसे कुछ शक्लें
कुछ सूखे पत्ते, कुछ टूटे तारे
और कुछ बहुत ही उदास बच्चे।
वे सब अब हमारी संख्याओं में हैं
(कोरोना की दूसरी लहर में बहुत ही भयावह स्थिति के बीच 19/05/2021 को लिखी गयी कविता)
जो अब हमारे बीच नहीं हैं
वे सब अब हमारी संख्याओं में हैं
कल जो मेरा दोस्त मरा है
वह कभी मेरे लिए अपने कोबे में भरकर
लेकर आया था ओस की बूँदें
उसे भी मुझे अब महज एक संख्या में जानना है
हम यहाँ चुकुमुकु बैठे हैं और गिन रहे हैं
संख्याएं एक-दो-तीन-चार
सौ-दो सौ, हजार-दो हजार-चार हजार
कल का आँकड़ा है 4536
इस आँकड़े का जो 36वां है वह मेरा दोस्त है
हो सकता है कि कल का आँकड़ा
4737 हो और वह पैंतीसवाँ, छत्तीसवाँ, सैंतीसवाँ सब मेरे परिचित ही हों
जो मेरे परिचित नहीं हैं वे भी
किसी न किसी के माँ, पिता, भाई, बहन, दोस्त
या कम से कम परिचित तो अवश्य होंगे
जो अब हमारे बीच नहीं हैं
वे सब बदल गए हैं संख्याओं में
सरकार अपने खाते में दर्ज करती है आँकड़े
गिनी जाती हैं लाशें
आँकड़ों में दो संख्याओं की भी कमी
ला देती है सरकार के चेहरे पर मुस्कुराहट
वह जिसकी दो साल की बेटी की उँगली से
छूट गया है माँ का स्पर्श
उससे कोई पूछे इस एक संख्या का मतलब
वह पुरुष संख्याओं में कैसे बतलाएगा
अपनी पत्नी का साथ छूटने का दुख
जिसके साथ अभी अभी उसने उस सामने वाले पेड़ पर
टाँका था एक सितारा
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर
अपनी उम्र को संख्या में गिनने वाले पिता के सामने
गुजर गया है उसका पुत्र
जैसे अंतरिक्ष से टूटकर समुद्र में गिरा है एक उल्का
जो अब हमारे बीच नहीं हैं
वे सब अब हमारी संख्याओं में हैं
जिन घरों में बुझ गए हैं दीये
उन घरों में नहीं है कोई संख्या
वहां बस बचा रह गया है एक मायूस सा सूखा पेड़
कुछ खिलौने
एक अंतहीन सूनापन और एक लम्बा इंतजार
परन्तु सरकारें गिन रही हैं अभी संख्याएं
अभी चारों तरफ सिर्फ गूंज रहे हैं 4537, 3678, 4632 के आँकड़े
अभी कुछ ही दिनों पहले तक
इस देश में गूँज रहे थे विकास और समृद्धि के जो आँकड़े
उन पर मौतों के ये आँकडे़े अभी भारी हैं
समृद्धि के इन आँकड़ों को
सूर्य की तरह फिर से चमकने के लिए
अभी करना है थोड़ा इंतजार।
अभी थम सी गयी है जिन्दगी
(कोरोना की दूसरी लहर में बहुत ही भयावह स्थिति के बीच 19/05/2021 को लिखी गयी कविता)
यह कितना अजीब है कि बयालीस की उम्र में भी
वह सिर्फ अभी और इसलिए जिंदा रहना चाहता है कि
अभी उसकी बेटी की उम्र महज आठ वर्ष है
उसने अभी-अभी अपने बेटे के लिए लिया था
चांद का एक टुकड़ा
जिसकी अभी किस्तें भरी जाना बाकी है
वह जिंदा रहना चाहता है उस घर के पूरा होने तक
जिसमें रह सकें उसकी पत्नी के साथ
उसके बच्चे सकुशल
वह स्त्री जो सदा करती रही है
अपने पति के स्वास्थ्य को लेकर चिंता
वह जिंदा रहना चाहती है ताकि रह सके उसका पति सुरक्षित
बेटा अपने पिता की बीमारी के लिए जिंदा रहना चाहता है
और पिता अपने बेटे की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए
प्रेमिका अपने प्रेमी की सलामती की करती है दुआ
दोस्त अपने दोस्त के अस्पताल से
सकुशल लौट आने का कर रहा है इंतजार
मासूम बच्चे दुबक जा रहे हैं अपनी मां की गोद में
बच्चे बुदबुदाते हैं अपने मन में
और ईश्वर से करते हैं अपने माँ-पिता की सलामती की इबादत
जिन्दगी का यह एक अजीब मोड़ है
जहाँ धरी की धरी रह गयी हैं सारी योजनाएं
वह अपनी बेटी के दूसरे जन्मदिन पर
इस बार देना चाहता था बादल के कुछ फाहे
वह अपनी बूढ़ी माँ के लिए
इस सर्दी जुटाना चाहता था कुछ कपास
वह महज तीन दिन बाद ही अपनी पत्नी को
देना चाहता था कुछ सुखद आश्चर्य
छः साल का बच्चा अपनी माँ को सुनाना चाहता था
सात का पहाड़ा
यहां जिन्दगी एकदम थम सी गयी है
जैसे पेड़ पर अटक गया है एक पत्ता
बादलों में जैसे फंस कर रह गयी हैं बारिश की बूंदें
गले तक आकर रुक सी गयी हैं
बहुत सी बातें
थमे हुए हैं अभी बहुत सारे प्रेम पत्र
किताबों के पन्नों के बीच सूख गए हैं गुलाब के फूल
कितने दिन हो गए सुने खुशी के दो शब्द
अधरों पर अटके हैं अभी बहुत सारे चुम्बन।
उमा शंकर चौधरी
एक मार्च उन्नीस सौ अठहत्तर को खगड़िया बिहार में जन्म। कविता और कहानी लेखन में समान रूप से सक्रिय।
प्रकाशन- चार कविता संग्रह ‘कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे’, ‘चूंकि सवाल कभी खत्म नहीं होते’, ‘वे तुमसे पूछेंगे डर का रंग’, कुछ भी वैसा नहीं तीन कहानी संग्रह ‘अयोध्या बाबू सनक गए हैं’, ‘कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां’, ‘दिल्ली में नींद’ और एक उपन्यास ‘अंधेरा कोना’ प्रकाशित।
सम्मान - साहित्य अकादमी युवा सम्मान, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन सम्मान, रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार, अंकुर मिश्र स्मृति सम्मान, पाखी जनप्रिय लेखक सम्मान।
कहानियों, कविताओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कविता संग्रह ‘कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे’ का मराठी अनुवाद साहित्य अकादमी से प्रकाशित।
कविताएं देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल।
विभिन्न महत्वपूर्ण श्रृंखलाओं में कहानियां और कविताएं संकलित।
कहानी ‘अयोध्या बाबू सनक गए हैं’ पर प्रसिद्ध रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर द्वारा एनएसडी सहित देश की विभिन्न जगहों पर पच्चीस से अधिक नाट्य प्रस्तुतियां।
संपर्कः- मो0- 9810229111 umashankarchd@gmail.com






बहुत अच्छी कविताएँ। सच में बैचेन करने वाली। जन-जीवन से जुड़ी हुईं। कवि के कहन से बहुत जुड़ाव महसूस कर रही हूँ। बहुत शुक्रिया साझा करने लिए।
ReplyDeleteउमाशंकर जी को पढ़ता रहा हूं। जल्दी में दो कविताएं पढ़ ली है। अच्छी कविताएं हैं। आपने संक्षिप्त परिचय देकर अच्छा किया। आश्वस्त हुआ कि अब अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी। बहुत बधाई!
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविताएं 😊
ReplyDeleteमार्मिक व्यंजनापूर्ण कवितायें हैं जिनमें प्रतिरोधी मानसिकता संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त हुई है। व्यक्ति नहीं बल्कि उनके कामों को कवि ने अपने भाषा-शिल्प में बांधा है। उमाशंकर जी को बधाई और आपको साधुवाद।
ReplyDeleteसभी कविताएं बहुत व्यापक फलक पर और सूक्ष्म, संकेतिक हैं, ऐसी कविताएं बहुत कम पढ़ने को मिलती हैं, 👌👌
ReplyDeleteउम्दा कविताएं
ReplyDeleteउम्दा कविताएं
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